Sunday, September 8, 2019

नौकरी कब मिलेगी



शास्त्रों के अनुसार ग्रहों का मानव शरीर पर किसी न किसी रूप में प्रभाव पड़ते हैं। ये प्रभाव प्रतिकूल या अनुकूल हो सकते हैं। मानव की सभी क्रियाएं, कमोबेश, इन ग्रहों के द्वारा संचालित होती हैं। नौ ग्रहों में किस ग्रह की महादशा और अंतर्दशा में नौकरी मिलेगी इसका विस्तृत विवरण यहां प्रस्तुत है। 1. लग्न के स्वामी की दशा और अंतर्दशा में 2. नवमेश की दशा या अंतर्दशा में 3. षष्ठेश की दशा या, अंतर्दशा में 3. प्रथम, षष्ठम, नवम और दशम भावों में स्थित ग्रहों की दशा या अंतर्दशा में 4. राहु और केतु की दशा, या अंतर्दशा में 5. दशमेश की दशा या अंतर्दशा में 6. द्वितीयेश और एकादशेश की दशा या अंतर्दशा में पहले नियम में लग्नेश की दशा या अंतर्दशा का विचार किया गया है। इसका मुख्य कारण यह है कि लग्न शरीर माना जाता है। नवम भाव भाग्य का भाव माना जाता है। भाग्य का बलवान होना अति आवश्यक है। अतः नवमेश की दशो या अंतर्दशा में भी नौकरी मिल सकती है। छठा भाव प्रतियोगिता का भाव माना जाता है। दशम भाव से नवम अर्थात भाग्य और नवम भाव से दशम अर्थात व्यवसाय का निर्देश करता है, अतः षष्ठेश की दशा या अंतर्दशा में भी नौकरी मिल सकती है। जो ग्रह प्रथम, षष्ठम, नवम और दशम में स्थित हों वे भी अपनी दशा, या अंतर्दशा में नौकरी दे सकते हंै। जीवन की कोई भी शुभ या अशुभ घटना राहु और केतु की दशा या अंतर्दशा में घटित हो सकती है। यह घटना राहु या केतु का संबंध किसी भाव से कैसा (शुभ या अशुभ) है इस पर निर्भर करती है। दशम भाव व्यवसाय का भाव माना जाता है। अतः दशमेश की दशा या अंतर्दशा में नौकरी मिल सकती है। एकादश भाव धन लाभ का और दूसरा धन का माना जाता है। अतः द्वितीयेश और एकादशेश की दशा या अंतर्दशा में भी नौकरी मिल सकती है। ग्रहों का गोचर भी महत्वपूर्ण घटना में अपना योगदान देता है। गोचर: गुरु गोचर में दशम या दशमेश से नौकरी मिलने के समय केंद्र या त्रिकोण में होता है। -अगर जातक का लग्न मेष, मिथुन, सिंह, वृश्चिक, वृष, या तुला हो, तो जब भी शनि और गुरु एक-दूसरे से केंद्र, या त्रिकोण में हों, तो नौकरी मिल सकती है, अर्थात नौकरी मिलने के समय शनि और गुरु का एक-दूसरे से केंद्र या त्रिकोण में होना अति आवश्यक है। -नौकरी मिलने के समय शनि या गुरु का या दोनों का दशम भाव और दशमेश दोनों से या किसी एक से संबंध होता है। - नौकरी मिलने के समय शनि और राहु एक-दूसरे से केंद्र या त्रिकोण में होते हैं। -नौकरी मिलने के समय जिस ग्रह की दशा और अंतर्दशा चल रही है उसका संबंध किसी तरह दशम भाव या दशमेश से या दोनों से होता है। उदाहरण के लिए यहां कुछ कुंडलियां प्रस्तुत हैं। उदाहरण 1: जातक का जन्म 7.5.1976 को हुआ। भोग्य दशा बुध की 5 वर्ष 8 महीना 3 दिन है। 10.1.1989 से शुक्र की महादशा चल रही है। 10.5.1993 से 10.1.1995 तक शुक्र की दशा में चंद्रमा की अंतर्दशा रही। जातक को नौकरी जून, 1994 में मिली। दशमेश शुक्र नवम भाव में बैठा है। यह नियम 4 तथा 6 को सत्य साबित कर रहा है। अंतर्दशा स्वामी चंद्रमा द्वादश भाव का स्वामी होकर द्वादश में बैठा है। अंतर्दशा स्वामी बताए गये किसी नियम को सत्य साबित नहीं कर रहा है। नौकरी मिलने के समय गुरु (वक्री) तृतीय भाव में तथा शनि सप्तम भाव में बैठा था। राहु भी तृतीय भाव में बैठा था। गोचर के प्रथम नियम के अनुसार नौकरी मिलने के समय गुरु दशम भाव या दशमेश से केंद्र या त्रिकोण में होना चाहिए। उस समय गुरु तृतीय भाव में था जो दशमेश शुक्र से केंद्र में है। गुरु वक्री होने के कारण दशम से त्रिकोण में है। जातक का जन्म सिंह लग्न में हुआ। नौकरी के समय गुरु तृतीय भाव में तथा शनि सप्तम भाव में है जो एक-दूसरे से त्रिकोण मेें हैं। इस प्रकार गोचर का दूसरा नियम सत्य साबित हुआ। गोचर में शनि सप्तम भाव में दशमेश शुक्र पर दृष्टि डाल रहा है और तृतीय भाव से गुरु शुक्र को देख रहा है। यह गोचर नियम तीन को सत्य साबित कर रहा है। राहु तृतीय भाव में तथा शनि सप्तम भाव में गोचर मंे हैं जो एक-दूसरे से त्रिकोण में हैं। यह गोचर नियम चार को सत्य साबित कर रहा है। उदाहरण 2: जातक का जन्म 16.4.1969 को हुआ। जन्म के समय केतु की भोग्य विंशोत्तरी दशा 6 वर्ष 9 महीना 5 दिन है। जातक को नौकरी फरवरी 2000 में मिली। सूर्य की महादशा 21.1.1996 से आरंभ हुई। नौकरी के समय सूर्य की दशा और बुध की अंतर्दशा थी। दशमेश सूर्य षष्ठ भाव में बैठा हुआ है। एकादशेश बुध षष्ठ भाव में बैठा हुआ है। नियम 6 और 7 तथा 4 सत्य साबित हुआ। नौकरी मिलने के समय शनि और गुरु गोचर से छठे भाव में दशमेश के साथ बैठे हंै। यह गोचर नियम प्रथम को सत्य साबित कर रहा है। जातक का लग्न वृश्चिक है और गोचर में शनि और गुरु एक साथ अर्थात एक-दूसरे से केंद्र में हैं। गोचर नियम 2 सत्य साबित हुआ। गोचर से नौकरी मिलने के समय राहु नवम भाव में है, जो गोचर शनि से केंद्र में हुआ। गोचर नियम 4 सत्य साबित हुआ। दशमेश सूर्य बुध के साथ छठे भाव में है। इस प्रकार दशानाथ सूर्य और अंतर्दशानाथ बुध का पारस्परिक संबंध हुआ। गोचर नियम पांच सत्य साबित हुआ। उदाहरण 3: तीसरी कुंडली के अनुसार जातक का जन्म 26.5.1963 को हुआ। गुरु की विंशोत्तरी दशा 13 वर्ष 2 महीना 26 दिन है। जातक को नौकरी 1994 में शनि महादशा और गुरु की अंतर्दशा में मिली। ऊपर बताये गये नियम कर्क लग्न वाली कुंडली पर लागू नहीं होंगे। गोचर के नियम भी इस पर लागू नहीं होंगे। ये नियम सिर्फ उसी कुंडली पर पूर्णतः लागू हांेगे जिसका लग्न मेष, वृष, मिथुन, सिंह, वृश्चिक या तुला है। कुंडली 3 में लग्न कर्क है। शनि सप्तम और अष्टम का स्वामी होकर सप्तम भाव में बैठा है। गुरु षष्ठ और नवम का स्वामी होकर भाग्य स्थान में बैठा है। षष्ठेश और नवमेश की दशा या अंतर्दशा में नौकरी मिलती है जैसा कि द्वितीय और तृतीय नियमों में उल्लेख किया गया है। परंतु इस कुंडली के साथ अपवाद है। गोचर के दृष्टिकोण से देखें। नौकरी मिलने के समय शनि अष्टम भाव में और गुरु पंचम भाव में बैठा है। राहु भी पंचम भाव में बैठा है। गोचर के प्रथम तथा द्वितीय नियम सत्य साबित हो रहे हंै। उदाहरण 4: जातक का जन्म 13.9.1947 में सिंह लग्न में हुआ। केतु की भोग्य विंशोत्तरी दशा 6 वर्ष 29 दिन है। जातक को नौकरी शुक्र की दशा और मंगल की अंतर्दशा में मिली। शुक्र दशमेश होकर लग्न में बैठा है और मंगल नवमेश है। दशानाथ और अंतर्दशानाथ द्वितीय और षष्ठ नियम को सत्य साबित कर रहे हंै। गोचर के दृष्टिकोण से नौकरी मिलने के समय शनि और गुरु दोनों पंचम भाव में बैठेे हैं। राहु भी गोचर से लग्न में बैठा है। दशम भाव का स्वामी शुक्र लग्न में बैठा है और पंचम में बैठा गुरु उसे देख रहा है। राहु और शनि एक-दूसरे से त्रिकोण में हं। अंतर्दशा स्वामी मंगल एकादश भाव में है जिस पर पंचम में बैठे शनि और गुरु की दृष्टि है। दशमेश शुक्र और गोचर का गुरु एक-दूसरे से त्रिकोण में विराजमान हैं। इस प्रकार गोचर के प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ नियम सत्य साबित हो रहे हंै। उदाहरण 5: जातक का जन्म 18.3.1967 को तुला लग्न में हुआ। जन्म के समय मंगल की विंशोत्तरी दशा 5 वर्ष 11 महीना 15 दिन है। जातक को नौकरी नवंबर, 1999 में मिली। उस समय गुरु की महादशा और शुक्र की अंतर्दशा चल रही थी। तृतीय तथा छठे भाव का स्वामी गुरु वक्री होकर दशम भाव में बैठा है। अष्टम और लग्न का स्वामी होकर शुक्र सप्तम भाव में बैठा है। इससे प्रथम तथा तृतीय नियम सत्य साबित हो रहे हैं। अब गोचर पर ध्यान दें। नवंबर, 1999 में गुरु और शनि दोनों वक्री होकर सप्तम भाव में बैठे हंै। गोचर का राहु दशम भाव में बैठा है। शनि के वक्री होने के कारण गोचर का राहु और शनि एक-दूसरे से त्रिकोण में हैं। वक्री गुरु गोचर से दशम से दशम अर्थात सप्तम भाव में बैठा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि गोचर के प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ नियम सत्य साबित हो रहे हं। इन कुंडलियों के अतिरिक्त और भी अनेक कुंडलियों पर उपर्युक्त नियमों को लागू करके देखा गया जो 90 प्रतिशत तक सत्य साबित हुए हैं।

फलित ज्योतिष संबंधी जानकारीयॉं

1. संतान प्राप्ति के लिए पति-पत्नी दोनों को रामेश्वरम् की यात्रा करनी चाहिए तथा वहां सर्प-पूजन करवाना चाहिए। इस कार्य को करने से संतान-दोष समाप्त होता है।

2. स्त्री में कमी के कारण संतान होने में बाधा आ रही हो, तो लाल गाय व बछड़े की सेवा करनी चाहिए। लाल या भूरा कुत्ता पालना भी शुभ रहता है।

3. यदि विवाह के दस या बारह वर्ष बाद भी संतान न हो, तो मदार की जड़ को शुक्रवार को उखाड़ लें। उसे कमर में बांधने से स्त्री अवश्य ही गर्भवती हो जाएगी।

4. जब गर्भ धारण हो गया हो, तो चांदी की एक बांसुरी बनाकर राधा-कृष्ण के मंदिर में पति-पत्नी दोनों गुरुवार के दिन चढ़ायें तो गर्भपात का भय/खतरा नहीं होता।

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5. यदि बार-बार गर्भपात होता है, तो शुक्रवार के दिन एक गोमती चक्र लाल वस्त्र में सिलकर गर्भवती महिला के कमर पर बांध दें। गर्भपात नहीं होगा।

6. जिन स्त्रियों के सिर्फ कन्या ही होती है, उन्हें शुक्र मुक्ता पहना दी जाये, तो एक वर्ष के अंदर ही पुत्र-रत्न की प्राप्ति होगी।

7. यदि बच्चे न होते हों या होते ही मर जाते हों, तो मंगलवार के दिन मिट्टी की हांडी में शहद भरकर श्मशान में दबायें।

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8. पीपल की जटा शुक्रवार को काट कर सुखा लें, सूखने के बाद चूर्ण बना लें। उसको प्रदर रोग वाली स्त्री प्रतिदिन एक चम्मच दही के साथ सेवन करें। सातवें दिन तक मासिक धर्म, श्वेत प्रदर तथा कमर दर्द ठीक हो जाएगा।

9. संतान प्राप्ति के लिए इनमें से किसी भी मंत्र का नियमित रूप से एक माला प्रतिदिन पाठ करें।

1. ओऽम् नमो भगवते जगत्प्रसूतये नमः।

2. ओऽम क्लीं गोपाल वेषघाटाय वासुदेवाय हूं फट् स्वाहा।

3. ओऽम नमः शक्तिरूपाय मम् गृहे पुत्रं कुरू कुरू स्वाहा।

4. ओऽम् हीं श्रीं क्लीं ग्लौं।

5. देवकी सुत गोविन्द वासुदेवाय जगत्पते। देहिं ये तनयं कृबज त्यामहं शरणंगत।

इनमें से आप जिस मंत्र का भी चयन करें उस पर पूर्ण श्रद्धा व आस्था रखें। विश्वासपूर्वक किये गये कार्यों से सफलता शीघ्र मिलती है। मंत्र पाठ नियमित रूप से करें।

कृष्ण के बाल रूप का चित्र लगाएं। लड्डू गोपाल का चित्र या मूर्ति लगाना लाभदायक होता है। क्रम संख्या 4 व 5 पर दिए गये मंत्र शीघ्र फलदायक हैं। इन्हें संतान गोपाल मंत्र भी कहा जाता है।

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संतान रक्षा हेतु मंत्र-तंत्र-यंत्र एवं उपासना
1. यदि पंचम भाव में सूर्य स्थित हो तो:
कभी झूठ मत बोलो और दूसरों के प्रति दुर्भावना मत रखें।
यदि आप किसी को केाई वचन दें तो उसे हर हाल में पूरा करें।
प्राचीन परंपराओं व रस्म रिवाजों की कभी अवहेलना न करें।
दामाद, नाती (नातियों) तथा साले के प्रति कभी विमुख न हों न ही उनके प्रति दुर्भावना रखें।
पक्षी, मुर्गा और शिशुओं के पालन-पोषण का हमेशा ध्यान रखें।
2. यदि पंचम भाव में चंद्र हो तो:
कभी लोभ की भावना मत रखें तथा संग्रह करने की मनोवृत्ति मत रखें।
धर्म का पालन करें, दूसरों की पीड़ा निवारणार्थ प्रयास करते रहें और अपने कुटुंब के प्रति ध्यान रखें।
चंद्र संबंधी कोई भी अनुष्ठान करने से पूर्व कुछ मीठा रखकर, पानी पीकर घर से बाहर जाएं।
सोमवार को श्वेत वस्त्र में चावल-मिश्री बांध कर बहते जल में प्रवाहित करें।
3. यदि पंचम भाव में मंगल बैठा हो तो:
रात में लोटे में जल को सिरहाने रखकर सोएं।
परायी स्त्री से घनिष्ठ संबंध न रखें तथा अपना चरित्र संयमित रखें।
अपने बड़े-बूढ़ों का सम्मान करें और यथासंभव उनकी सेवा करें तथा सुख सुविधा का ध्यान रखें।
अपने मृत बुजुर्गों इत्यादि का पूर्ण विधि-विधान से श्राद्ध करें। यदि आपका सुहृद संतान मर गया हो तो उसका भी श्राद्ध करें।
नीम का वृक्ष रोपंे तथा मंगलवार को थोड़ा सा दूध दान करें।
4. यदि पंचम भाव में बुध हो तो:
गले में तांबे का पैसा धारण करें।
यदि गो-पालन किया जाए तो संतान, स्त्री और भाग्य का पूर्ण सुख प्राप्त होगा।
5. यदि पंचम भाव में बृहस्पति विराजमान हो तो:
सिर पर चोटी रखें और जनेऊ धारण करें।
आपने यदि धर्म के नाम पर धन संग्रह किया या दान लिया तो संतान को निश्चित कष्ट होगा। धर्म का कार्य यदि आप निःस्वार्थ भाव से करेंगे तो संतान काफी सुखी-संपन्न रहेगी।
केतु के भी उपाय निरंतर करते रहें।
मांस, मदिरा तथा परस्त्री गमन से दूर रहें।
संत, महात्मा तथा संन्यासियों की सेवा करें तथा मंदिर की कम से कम महीने में एकबार सफाई अवश्य करें।
6. यदि पंचम भाव में शुक्र स्थित हो तो:
गोमाता तथा श्रीमाता जी की पूर्ण निष्ठा के साथ सेवा करें।
किसी के लिए हृदय मंे दुर्भावना न रखें तथा शत्रुओं के प्रति भी शत्रुता की भावना न रखें।
चांदी के बर्तन में रात में शुद्ध दूध पिया करें।
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7. यदि पंचम भाव में शनि स्थित हो तो:
(क) पैतृक भवन की अंधेरी कोठरी में सूर्य संबंधी वस्तुएं जैसे गुड़-तांबा, मंगल संबंधी वस्तुएं जैसे सौफ, खांड,शहद तथा लाल मूंगे व हथियार, चंद्र संबंधी वस्तुएं जैसे चावल, चांदी तथा दूब स्थापित करें।

अपने भार के दशांश के तुल्य बादाम बहते हुए पानी में डालें और उनके आधे घर में लाकर रखें लेकिन खाएं नहीं।
यदि संतान का जन्म हो तो मिठाई न बांट कर नमकीन बांटें। यदि मिठाई बांटना जरूरी हो, तो अंशमात्र नमक का भी समावेश कर दें।
काला कुत्ता पालें और उसे नित्य एक चुपड़ी रोटी दें।
बुध संबंधी उपाय करते रहें
8. यदि पंचम भाव में राहु उपस्थित हो तो:
अपनी पत्नी के साथ दुबारा फेरे लेने से राहु की अशुभता समाप्त हो जाती है।
एक छोटा सा चांदी का हाथी निर्मित करा कर घर के पूजा स्थल में रखें।
मांस, मदिरा व परस्त्री गमन से दूर रहें।
जातक की पत्नी अपने सिरहाने पांच मूलियां रखकर सोएं और अगले दिन प्रातः उन्हें मंदिर में दान कर दें।
घर के प्रवेश द्वार की दहलीज के नीचे चांदी की एक छोटी सी चादर/पत्तर दबाएं।
9. यदि केतु पंचम भाव में उपस्थित हो तो:
चंद्र व मंगल की वस्तुएं दूध-खांड इत्यादि का दान करें।
बृहस्पति संबंधी सारे उपाय करें।
घर में यदि कोई शनि संबंधी वस्तु (काली वस्तुएं) हो तो उसे ताले में ही रखें।

यदि किसी दंपति की संतान संबंधी कोई समस्या है जैसे गर्भ न ठहरना, गर्भपात हो जाना, मृत बच्चे का जन्म होना, संतान का बीमार रहना, मंदबुद्धि बच्चे का जन्म आदि तो घरेलू उपाय कर स्वस्थ, बुद्धिमान तथा योग्य संतान प्राप्त कर सकते हैं। यहां प्रस्तुत हैं इन्हीं समस्याओं के निदान के अनेकानेक उपाय...

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संतान प्राप्ति की कामना मनु महाराज द्वारा वर्णित तीन नैसर्गिक इच्छाओं में से एक है। निःसंतान रहना एक भयंकर अभिशाप है। यह पूर्व जन्म में किए गए कर्मों के फल है या फल का भोग है। संतान हो किंतु दुष्ट और कुल -कीर्तिनाशक हो तो यह स्थिति और अधिक कष्टदायक होती है। जिनके संतान नहीं होती है भारत में उनकी तीन श्रेणियां मानी जाती हैं।

1. जन्मवंध्या 2. काक वंध्या 3. मृतवत्सा।

काक वंध्या वह होती है जिसके केवल एक संतान होती है।

2. मृतवत्सा के संतान तो होती है पर जीवित नहीं रहती।

3. जन्मवंध्या के संतान होती ही नहीं। यहां तीनों श्रेणियों की स्त्रियों की इस अभिशाप से मुक्ति के कुछ टोटके दिए जा रहे हैं जिनका निष्ठापूर्वक प्रयोग करने से लाभ मिल सकता है।

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जन्मवंध्या: रासना नामक एक जड़ी को रविवार के दिन जड़ डंठल और पत्ते सहित उखाड़ लाएं। इसे 11 वर्ष से कम आयु अर्थात कुमारी कन्या के हाथ से एक रंग की गाय के दूध् में पिसवा कर रख लें। ऋतु काल में मासिक धर्म के दिनों में इसे चार तोले के हिसाब से एक सप्ताह पीने से संतान उत्पन्न होती है। ध्यान रहे यह प्रयोग तीन चार बार दोहराना पड़ सकता है।

एक रुद्राक्ष और एक तोला सुगंध रासना को कुमारी कन्या के हाथ से एक रंग की गाय के दूध में पिसवा कर पीएं। ‘¬ ददन्महागणपते रक्षा-मृत मत्सुत देहि’ इस मंत्र से औषधि को 21 बार अभिमंत्रित कर ले।
काकवंध्या: काक वंध्या वह कहलाती है जिसके एक ही बार संतान हो। यदि ऐसी स्त्रियां संतान की इच्छा रखती हों तो ये प्रयोग करें।

रवि पुष्य योग में दिन को असगंध की जड़ उखाड़ लाएं और भैंस के दूध के साथ पीस कर दो तोला रोज खाएं।
विष्णुकांता की जड़ रविपुष्य के दिन ला कर पूर्वोक्त प्रकार से भैंस के दूध के साथ पीस पर भैंस के ही दूध के मक्खन के साथ सात दिन तक खाने से संतान प्राप्त होती है। यह प्रयोग ऋतुकाल में ही करें।
मृतवत्सा: मृतवत्सा वह होती है जिसके संतान होती तो अवश्य है परंतु जीवित नहीं रहती। इसमें गाय का घी काम में लिया जाना चाहिए। खास कर उसका जिसका बछड़ा जीवित हो।

मजीठ, मुरहठी, कूट, त्रिफला, मिश्री, खरैंटी, महामेदा, ककोली, क्षीर काकोली, असगंध की जड़, अजमोद, हल्दी, दारु हल्दी, हिंगु टुटकी, नीलकमल, कमोद, दाख, सफेद चंदन और लाल चंदन ये सब वस्तुएं चार-चार तोला लेकर कूट-छानकर एक किलो घी में मिलाकर उपलों पर मंदी आंच पर पकानी चाहिए। जब केवल घी की मात्रा के बराबर रह जाए तो छान कर रख लेना चाहिए। इसका प्रयोग पति-पत्नी दोनों करें तो पुत्र उत्पन्न होगा जो स्वस्थ तथा सुंदर होगा। जब तक इन वस्तुओं का सेवन किया जाए तब तक हल्का भोजन करना चाहिए। भगवान के प्रति पूर्ण आस्था रखते हुए दिन में सोने, तामसिक पदार्थों के सेवन, भय, चिंता, क्रोध आदि तथा तेज सर्दी और गर्मी से बचना चाहिए। कुछ और प्रयोग भी हैं जो इस प्रकार हैं।
ऋतु काल में नए नागकेसर के बारीक चूर्ण को गाय के घी के साथ मिला कर खाने से भी संतान प्राप्त होती है।
जटामांसी (एक जड़ी का नाम) को चावल के पानी के साथ पीने से संतान प्राप्त होती है।
मंगलवार को कुम्हार के घर जाएं और कुम्हार से प्रार्थना पूर्वक मिट्टी के बर्तन काटने वाला डोरा ले आएं। उसे किसी गिलास में जल भर कर उसमें डाल दें। कुछ समय पश्चात डोरे को निकाल लें और वह पानी पति-पत्नी दोनों पी लें। यह क्रिया मंगलवार को ही करें। अगर संभव हो तो पति-पत्नी रमण करें। गर्भ की स्थिति बनते ही डोरे को हनुमान जी के चरणों में रख दें। बार-बार गर्भपात होने पर
मुलहठी, आंवला और सतावर को भली भांति पीस कर कपड़ाछान कर लें और इसका सेवन रविवार से प्रारंभ करें। गाय के दूध के साथ लगभग 6 ग्राम प्रतिदिन लें।
मंगलवार को लाल कपड़े में थोड़ा सा नमक बांध लें। इसके बाद हनुमान के मंदिर जाएं और पोटली को हनुमान जी के पैरों से स्पर्श कराएं। वापस आकर पोटली को गर्भिणी के पेट से बांध दें गर्भपात बंद हो जाएगा। पुत्र प्राप्ति हेतु
विजोरे की जड़ को दूध में पका कर घी में मिला कर पीएं। ऋतुकाल में इस प्रयोग को प्रारंभ कर सम संख्या वाले दिनों में समागम करने से पुत्र प्राप्त होता है।
पुत्राभिलाषियों को अपने घर में स्वर्ण अथवा चांदी से निर्मित सूर्य-यंत्र की स्थापना करनी चाहिए। यंत्र के पूर्वाभिमुख बैठकर दीपक जलाकर यं त्रऔर सूर्य देव को प्रणाम करते हुए सूर्य मंत्र का 108 बार नित्य श्रद्धा से जप करना चाहिए। दीपक में चारों ओर बातियां (बत्तियां) होनी चाहिए। घृत का चतुर्मुखी दीपक जप-काल में प्रज्वलित रहना चाहिए।
षष्ठी देवी का एक वर्ष तक पूजन अर्चन करने से पुत्र-संतान की प्राप्ति होती है। ऊँ ह्रीं षष्ठी देव्यै स्वाहा मंत्र का प्रतिदिन 108 बार जप करते हुए षष्ठी देवी चालीसा, षष्ठी देवी स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। कथा भी पढ़नी सुननी चाहिए।
श्रावण शुक्ल एकादशी का पुत्रदा एकादशी व्रत पुत्र सुख देता है। व्रत संपूर्ण विधि से करें।
स्त्रियां पुत्रदायक मंगल व्रत कर सकती हैं जिसे बैशाख या अगहन मास में प्रारंभ करना चाहिए। व्रत वर्ष भर प्रत्येक मंगल को करें और नित्य मंगल की स्तुति करें।
जिसको पुत्र प्राप्त नहीं हो रहा है वह स्त्री रविवार को प्रातः काल उठकर सिर धोकर खुले बाल फैलाकर उगते सूर्य को अघ्र्य दे और उनसे श्रेष्ठ पुत्र प्राप्ति की प्रार्थना करे। इस प्रकार 16 रविवार तक करे तो सफलता निश्चित प्राप्त होती है।
जिस स्त्री को पुत्र नहीं हो रहा हो वह अपने घर में 21 तोले का प्राण प्रतिष्ठित चैतन्य पारद शिवलिंग स्थापित कराए और प्रत्येक सोमवार को सिर धोकर पीठ पर बाल फैलाकर ‘ऊँ नमः शिवायः’ मंत्र से उस पारद शिवलिंग पर धीरे-धीरे जल चढ़ाए और 7 बार उस जल का चरणामृत ले। इस प्रकार 16 सोमवार करे तो पुत्र प्राप्ति के लिए शंकर से की जाने वाली प्रार्थना अवश्य फलित होती है।
पति को चाहिए कि वह पत्नी को कम से कम 4 ( रत्ती का शुद्ध पुखराज स्वर्ण अंगूठी में गुरु पुष्य नक्षत्र में जड़वाकर तथा गुरु मंत्रों से अभिमंत्रित करवाकर शुभ मुहूर्त में पत्नी को धारण करवाए। इससे पुत्र प्राप्ति की संभावना बढ़ती है।
प्राण प्रतिठित संतानगोपाल यंत्र प्राप्त कर उसे एक थाली में पीले पुष्प की पंखुड़ियां डालकर स्थापित करें। यंत्र का पूजन पुष्प, कुंकुंम अक्षत से करें, दीपक लगाकर (यंत्र के दोनों ओर घी के दीपक लगाएं) निम्न मंत्र का पुत्र जीवा माला से एक माला जप नित्य करें। निरंतर 21 दिन तक करें तो सफलता प्राप्त होती है। ।।‘‘ऊँ हरिवंशाय पुत्रान् देहि देहि नमः।।’’ 21 दिन पश्चात यंत्र और माला बहते जल में प्रवाहित करे दें।
रक्त गुणा की जड़ को शुभ योग में प्राप्त कर तांबे की ताबीज में रखकर भुजा या कमर में धारण करने वाली स्त्री को पुत्र की प्राप्ति होती है।
एक बेदाग नीबू का पूरा रस निचोड़ लें। इसमें थोड़ा सा नमक स्वाद के अनुसार मिला लें। अब इस द्रव को लड्डू गोपाल के आगे थोड़ी देर के लिए रख दें। रात को सोने से पूर्व स्त्री इस द्रव को पी ले और पति-पत्नी अपने धर्म का पालन करें तो अवश्य पुत्र ही होगा। ध्यान रहे यह क्रिया केवल एक बार ही करनी है, बार-बार नहीं।
यदि संतान न हो रही हो तो मंगलवार को मिट्टी के बर्तन में शुद्ध शहद भर कर ढक्कन लगा कर श्मशान में गाड़ दें।
उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में नीम की जड़ ला कर पास रखें, संतान अवश्य होगी।
वास्तुशास्त्र के अनुसार घर में बोरिंग के पानी टैंक या कुएं का उत्तर-पश्चिम कोण में होना भी संतान उत्पत्ति में बाधक माना गया है। उपाय के लिए पांचमुखी हनुमान जी का चित्र ऐसे लगाएं कि वह पानी को देखें।
असगंध का भैंस के दूध के साथ सात दिन तक लें। यह उपाय पुष्य नक्षत्र में रविवार को शुरू करें। इससे पुत्र उत्पन्न होता है।
गोखरू, लाल मखाने, शतावर, कौंच के बीज, नाग बला और खरौंटी समान भाग में पीस कर रख लें। इस चूर्ण को रात्रि में पांच ग्राम दूध के साथ लें।
रविवार पुष्य योग के दिन (पुष्य नक्षत्र) सफेद आक की जड़ गले में बांधने से भी गर्भ की रक्षा होती है। इसके लिए धागा लाल ही प्रयोग करें।
‘‘ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रूं पुत्रं कुरु कुरु स्वाहा‘‘- यह जप यंत्र है। वांछित यंत्र स्वर्ण अथवा चांदी के अतिरिक्त स्वर्ण पालिश वाला यंत्र भी समान रूप से लाभकारी होता है। निःसंतान दंपतियों को सूर्य का स्तवन भी करना चाहिए जैसे सूर्याष्टक, सूर्यमंडलाष्टकम् आदि। इन स्तोत्रों का निरंतर श्रद्धा भक्ति पूर्वक पाठ जातक को तु.रंत सुखानुभूति देता है। स्वरुचि के अनुसार सूर्य देवता की अन्य किसी भी स्तुति का पाठ कर सकते हैं। (पति पत्नी दोनों अथवा कोई भी एक)
किसी योग्य ज्योतिष के परामर्शानुसार अथवा कुलगुरु, पुरोहित से सलाह लेकर संतान गोपाल मंत्र का जप स्वयं करें अथवा योग्य, अनुभवी कर्मकांडी ब्राह्मण से विधि विधान के साथ करावें। मंत्रानुष्ठान एक लाख मंत्र जप शास्त्र सम्मत माना गया है। इसमें निश्चित समय, निश्चित स्थान, निश्चित आसन और निश्चित संख्या में प्रतिदिन जप करने का विधान है।


गृह कलह की कोई न को¬ई वजह जरूर होती है जैसे पति-पत्नी के तनाव का मुख्य कारण उनके घरवालों को लेकर उत्पन्न कलह होती है। कलह के कारण कई बार तो दाम्पत्य जीवन में तनाव इतना बढ़ जाता है कि तलाक तक की नौबत आ जाती है। इससे बचाव का एक सरल सा रास्ता यह है कि जब भी आप अपने लड़के या लड़की के गुणों का मिलान कराएं तो गुणों के साथ-साथ पत्री पर भी ध्यान दें। कई बार कलह बच्चों के जन्म को लेकर भी होता है जिसकी वजह से गृह क्लेश काफी बढ़ जाता है।

दाम्पत्य जीवन में कलह के कुछ मुख्य कारण इस प्रकार हैं।

1- लड़के या लड़की की पत्री में सप्तम भाव में शनि का होना या गोचर करना।

2- किसी पाप ग्रह की सप्तम या अष्टम भाव पर दृष्टि होना या राहु, केतु अथवा सूर्य का वहां बैठना

3- पति-पत्नी की एक सी दशा या शनि की साढ़े साती का चलना भी कलह एवं तलाक का एक कारण होता है।

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4- शुक्र की गुरु में दशा का चलना या गुरु में शुक्र की दशा का चलना भी एक कारण है। कलह को दूर करने के कुछ उपायों का वर्णन यहां किया जा रहा है।

5- अगर कलह का कारण शनि ग्रह से संबंधित है तो शनि ग्रह की शांति कर सकते हैं, शनि यंत्र पर जप कर सकते हैं और शनि की वस्तुओं का दान भी कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त सात मुखी रुद्राक्ष भी धारण कर सकते हैं। यह उपाय शनिवार को सायंकाल के समय करना ठीक होता है ।

6- अगर गृह कलह राहु से संबंधित हो तो राहु यंत्र पर राहु के मंत्र का जप करें एवं 8 मुखी रुद्राक्ष धारण करें। यह सभी प्रकार के कलहों व बाधाओं से मुक्त करता है और राहु के दुष्प्रभाव का निवारण करता है। इसके लिए राहु का दान भी कर सकते हैं।

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7- अगर गृह क्लेश का कारण केतु ग्रह हो तो उसकी वस्तुओं का दान एवं उसके मंत्र का जप करें। केतु यंत्र पर पूजा करें। गणेश मंत्र का जप करें। 9 मुखी रुद्राक्ष भी धारण कर सकते हैं।

अगर गृहस्थ जीवन में कलह किसी पराई स्त्री की वजह से हो तो ये उपाय करें।

Aquamarine Gem Stone धारण करें। नीलम और हीरा भी धारण कर सकते हैं। वशीकरण यंत्र पर जप करके भी कलह को समाप्त कर सकते हैं। गौरी शंकर रुद्राक्ष भी धारण कर सकते हैं और शीघ्र प्रभाव के लिए मातंगी यंत्र भी अपने घर में पूजा के स्थान पर स्थापित कर सकते हैं।

- कई बार देखने में आता है कि न तो ग्रहों की परेशानी है, न ही पत्री में दशा एवं गोचर की स्थिति खराब है। फिर भी गृह कलह है जिसके कारण बात तलाक तक पहुंच जाती है। ऐसे में यह धारणा होती है कि किसी ने कुछ जादू टोना अर्थात तांत्रिक प्रयोग तो नहीं किया। अगर ऐसा लगे तो ये उपाय करें:

- घर में पूजा स्थान में बाधामुक्ति यंत्र स्थापित करें।

- शुक्ल पक्ष में सोमवार को उत्तर दिशा में मुख करके पति और पत्नी गौरीशंकर रुद्राक्ष धारण करें।

- पत्नी Aquamarine धारण करंे और पति नीलम और हीरा धारण करें।

- शयन कक्ष में शुक्र यंत्र की स्थापना करें।

विवाह बाधा के उपाय
- बाधा मुक्ति यंत्र की स्थ¬ापना एवं रोज सुबह पूजा करें।

- शनि ग्रह के कारण विवाह में बाधा आ रही हो तो लड़के या लड़की को सातमुखी रुद्राक्ष धारण करना चाहिए।

- शनि ग्रह की वस्तुएं दान करनी चाहिए।

- शनि यंत्र पर शनिवार से शुरू करके रोज शनि के मंत्र का जप करना चाहिए।

सूर्य के कारण विवाह में बाधा आती हो तो:
- सूर्य यंत्र को अपने घर में स्थापित करके सूर्य मंत्र का जप करें। यह रविवार से शुरू करके रोज करें।

- सूर्य की वस्तुओं का दान करें। तांबे के एक लोटे में गेहूं भरकर रविवार की सुबह 6 से 8 बजे के बीच दान करें।

- रविवार को 1 मुखी रुद्राक्ष धारण करें।

राहु ग्रह के कारण विवाह बाधाः
अगर विवाह में बाधा राहु ग्रह के कारण आ रही हो तो ये उपाय करेंः

- आठमुखी रुद्राक्ष धारण करें।

- राहु यंत्र को अपने पूजा स्थान पर स्थापित करें।

- रविवार को जौ लेकर रविवार के दिन दान करें।

- किसी गरीब को पानमसाला दान करें।

- गुरुद्वारे में या किसी भी धर्मस्थल पर जूते चप्पल की सेवा करें।

अशुभ ग्रहों का उपाय कर लेना अनिवार्य होता है। खास कर पुरुषों को तो केतु के उपाय करने ही चाहिए, क्योंकि विवाह के बाद पुरुष के ग्रहों का संपूर्ण प्रभाव स्त्री पर पड़ता है।

लड़की की शादी में रुकावट आने पर
- गुरुवार को विष्णु-लक्ष्मी जी के मंदिर में जा कर विष्णु जी को कलगी (जो सेहरे के ऊपर लगी होती है) चढ़ाएं। साथ में बेसन के पांच लड्डू चढ़ाएं। शादी जल्दी हो जाएगी।

- किसी भी कारण से, योग्य वर नहीं मिल पा रहा हो, तो कन्या किसी भी गुरुवार को प्रातः नहा-धो कर पीले रंग के वस्त्र पहने। फिर बेसन के लड्डू स्वयं बनाए। लड्डुओं का आकार कुछ भी हो, परंतु उनकी गिनती 108 होनी चाहिए। फिर पीले रंग के प्लास्टिक की टोकरी में, पीले रंग का कपड़ा बिछा कर उन 108 लड्डुओं को उसमें रख दे तथा अपनी श्रद्धानुसार कुछ दक्षिणा रख दे। पास के किसी शिव मंदिर में जा कर, विवाह हेतु गुरु ग्रह की शांति और अनुकूलता के लिए संकल्प करके, सारा सामान किसी ब्राह्मण को दे दे। शिव-पार्वती से प्रार्थना कर अपने घर आ जाए।

सावधानी: बेसन का चूरा, जिससे लड्डू बनाए गए हों, पूरा काम में आ जाए, घर में नहीं रहे और न ही कोई लड्डू घर में काम में लिया जाए। सभी काम अमृत, शुभ के चैघड़िये में, भद्रारहित होने पर करें।

यदि कन्या का विवाह न हो रहा हो और माता-पिता बहुत परेशान हांे, सारे प्रयास विफल हो रहे हांे तो उसे किसी शुभ मुहूर्त में निम्न मंत्रों में से किसी एक का जप करना चाहिए।

कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि।
नंदगोपसुतं देवं पतिं मे कुरु ते नमः।।

ऊँ देवेंद्राणि नमस्तुभ्य देवेंद्रप्रिय भामिनी
विवाह भाग्यमारोग्यं शीघ्रलाभं च देहि मे।।

लड़के की शादी के लिए
गुरुवार को पीले रंग की चुन्नी, पीला गोटा लगा कर, विष्णु-लक्ष्मी जी को चढ़ाएं। साथ में बेसन के पांच लड्डू चढ़ाएं तो शादी में आने वाली रुकावट दूर हो जाएगी।

ग्रहों के उपाय निम्नलिखित हैं
सूर्य के लिए गेहूं और तांबे का बर्तन दान करें।
चंद्र के लिए चावल, दूध एवं चांदी की वस्तु का दान करें।
मंगल के लिए साबुत मसूर या मसूर की दाल दान करें।
बुध के लिए साबुत मूंग का दान करें।
गुरु के लिए चने की दाल एवं सोने की वस्तु दान करें।
शुक्र के लिए दही, घी, कपूर और मोती में से किसी एक वस्तु का दान करें।
शनि के लिए काले साबुत उड़द एवं लोहे की वस्तु का दान करें।
राहु के लिए सरसों एवं नीलम का दान करें।
केतु के लिए तिल का दान करें।
किसी भी स्त्री या पुरुष के विवाह में बाधा आ रही हो, या वैवाहिक जीवन में तनाव हो, तो गणेश जी के मंदिर में हार-फूल चढ़ाए और हल्दी का तिलक लगाए।
ऊँ गणेशाय नमः का मंत्र बोलते हुए गणेश जी पर 108 फूल एक-एक करके चढ़ाए तथा आरती करे। ऐसा 40 दिन तक नियमित करे। गुरुवार का उपवास करे। गुरुवार व्रत कथा गुरुवार को करे। प्रति गुरुवार को हल्दी की गांठ बिस्तर के नीचे ले कर सोए। लड़का या लड़की देखते समय हल्दी का टीका खुद लगाए। गणेश जी को गुड़ का भोग लगाए उसके बाद ही सामने जाए। मनोकामनाएं शीघ्र पूर्ण होंगी।
मंगल दोष या किसी अन्य कारण से विवाह में विलंब होने पर:
यदि किसी व्यक्ति के विवाह में अत्यधिक विलंब हो रहा हो तथा प्रयत्न करने पर भी बात नहीं बन पा रही हो, तो निम्न प्रयोग करे। सबसे पहले किसी ऐसे पेड़ का पता करे, जिस पर पर्याप्त मात्रा में चींटियों (मकड़ों) का राज्य हो। फिर मंगलवार को एक थाली में आटा, बूरा (देशी खांड) और देशी घी मिला कर मिश्रण तैयार करे तथा एक गोले को नुकीले सिरे से इस प्रकार काटे कि एक गोल ढक्कन जैसा हिस्सा बाहर आ जाए। आटे-बूरे-घी के मिश्रण को छेद द्वारा गोले में भर ले। जब गोला ऊपर तक भर जाए, तो उस पर ढक्कन लगा दे तथा गोले को पोलिथिन के थैले में रख ले। यदि कुछ मिश्रण बच गया हो, तो उसे भी गोले के साथ थैले में डाल ले। रात को सोते समय इस थैले को सिर की तरफ रख कर सो जाए तथा बुधवार की सुबह उठ कर इसे लेकर चींटियों वाले पेड़ के पास जाए। गोले को निकाल कर पेड़ की किसी शाखा, या खोल में रख दे तथा मिश्रण को गोले के ऊपर डाल दे। थैले को कहीं भी फेंक दे। वापस बिना मुड़े अपने घर आ जाए। विवाह संबंधी स्थिति में सुधार होगा। आवश्यक हो, तो इस प्रयोग को 2-3 बार किया जा सकता है।

सावधानी: बुधवार को उठने के बाद प्रयोग कर के वापस घर आने तक मौन रहना जरूरी है।

कुंडली में विवाह प्रतिबंधक योग, विष कन्या योग आदि हों, तो प्रयोग के साथ वाणेशी मंत्र का जप करें, या कराएं। किसी भी ज्योतिषी से विवाह प्रति¬बंधक व विष कन्या योगों की जानकारी ली जा सकती है।

ससुराल में सुखी रहने के लिएः
साबुत हल्दी की 7 गांठें, पीतल । का एक टुकड़ा, थोड़ा सा गुड़ अगर कन्या अपने हाथ से ससुराल की तरफ फेंक दे, तो वह ससुराल में सुरक्षित और सुखी रहेगी।

सास-बहू के बीच क्लेश दूर करने का सरल उपाय:
यदि परिवार में सास-बहू के मध्य हमेशा झगड़ा होता रहता हो जिसके कारण परिवार में कलह की स्थिति बनी रहती हो तो निम्न मंत्र का 21 दिनों तक प्रति दिन 11 माला जप करने से कलह से मुक्ति मिलती है।

मंत्र: ऊँ शांति

वैवाहिक सुख के लिए: कन्या का जब विवाह हो चुका हो और वह विदा हो रही हो, तो एक लोटे में हल्दी और एक पीला सिक्का डाल कर, लड़की के सिर के ऊपर से 7 बार घुमा कर, उसके आगे फेंक दें। वैवाहिक जीवन सुखी रहेगा।

वर-वधू में प्यार के लिए:
साबुत काले माह में हरी मेहंदी मिला कर, जिस दिशा में वर-वधू का घर हो, उस तरफ फेंकें, तो वर-वधू में प्यार बढ़ेगा और क्लेश समाप्त होगा। यह क्रिया शादी के समय भी कर सकते हैं।

पति की अप्रसन्नता को दूर करने का उपाय:
यदि पति हमेशा अप्रसन्न रहता हो, पत्नी की बातों पर ध्यान न देता हो, हमेशा खोया-खोया सा रहता हो जिसके कारण वैवाहिक जीवन में कलह उत्पन्न हो रही हो तथा सारे प्रयत्न निष्फल हो रहे हांे तो पत्नी पति की अनुकूलता के लिए श्रद्धा विश्वास पूर्वक भगवान शंकर एवं माता पार्वती का ध्यान करके सोमवार से निम्न मंत्र का एक माला जप करे।

मंत्र: ऊँ क्लीं त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीय मामृतात् क्ली ऊँ

यदि पति-पत्नी के बीच छोटी-छोटी बातों को लेकर हमेशा झगड़ा होता रहता हो तथा इस कारण से पारिवारिक कलह बनी रहती हो तो निम्न उपाय करने से लाभ होगा।

शुद्ध स्फटिक से बने शिवलिंग की प्राण प्रतिष्ठा करवाकर अपने घर में स्थापित करें। 41 दिन तक नित्य शिवलिंग पर गंगा जल एवं बेल पत्र चढ़ाएं। उसके पश्चात् निम्न मंत्र का नित्य 5 माला जप करें।

ऊँ नमः शिवशक्तिस्वरूपाय मम गृहे शांति कुरु कुरु स्वाहा।

पति-पत्नी के बीच लड़ाई- झगड़ा हो तो रात को सोते समय पति अपने सिरहाने सिंदूर तथा पत्नी कपूर रखे। सुबह उठ कर पत्नी कपूर को जला दे तथा पति सिंदूर को घर में कहीं भी गिरा दे, तो घर में लड़ाई-झगड़े खत्म हो जाएंगे तथा सुख-शांति बनी रहेगी।

परिवार में सुख के लिए:
परिवार में सुख-शांति तथा समृद्धि के लिए प्रति दिन प्रथम रोटी के चार बराबर भाग करें। एक गाय को, दूसरा काले कुत्ते को, तीसरा कौए को दें तथा चैथा भाग चैराहे पर रखें।

हर प्रकार की सुख-शांति के लिए:
अशोक वृक्ष के सात पत्ते मंदिर में रख कर पूजा करें। जब वे मुरझाने लगें, तो नए पत्ते रख दें और पुराने को पीपल के नीचे रख आएं। इससे घर में सुख-शांति बनी रहेगी।

गृह शांति के लिए:
एक पतंग पर अपने कष्ट तथा परेशानियां लिखें। उसे हवा में उड़ा कर छोड़ दें। ऐसा 7 दिन लगातार करें। सभी कष्ट तथा परेशानियां दूर हो जाएंगी तथा घर में सुख-शांति आएगी।

घर में अशांति रहने पर:
यदि आपके लाख उपाय करने पर भी अकारण ही अशांति बनी रहती हो, तो गाय के गोबर का एक छोटा दीपक बनाएं। उसमें तेल और रूई की बत्ती डाल कर थोड़ा गुड़ डाल दें तथा उस दीपक को जला कर दरवाजे के बीच रख दें। परेशानियां कम होने लगेंगी। इसे आवश्यकतानुसार 2-3 बार, थोड़े समय के अंतराल से, कर लेना चाहिए। इसके लिए शनिवार विशेष उपयुक्त दिन है तथा तिल का तेल श्रेष्ठ है।

घरेलू झगड़ा होने पर:
घर में प्रायः क्लेश रहता हो, या छोटी-छोटी बातों पर झगड़ा होना हो तो घर में गेहूं केवल सोमवार या शनिवार को ही पिसवाएं। पिसवाने से पहले उसमें 100 ग्राम काले चने डाल दें। इस प्रकार का आटा खाने से धीरे-धीरे लड़ाई-झगड़े तथा घर में क्लेश खत्म हो जाएंगे।

मानसिक शांति एवं कार्य की सफलता हेतु:
कुंडली में चंद्रमा पाप पीड़ित या अशुभ होने पर पारिवा¬रिक अशांति, धन की कमी तथा कार्य संचालन में परेशानी देता है। इससे बचाव के लिए रविवार की रात को सोते समय, चांदी या स्टील के गिलास में थोड़ा कच्चा दूध डाल कर उसे सिरहाने रख कर सो जाएं। सोमवार की सुबह इस दूध को कीकर (बबूल) के पेड़ पर चढ़ा आएं।

सावधानी: गिलास को किसी बर्तन से न ढकें।

बाहरी बाधा के कारण परेशानी रहने पर: यदि बाहरी बाधा के कारण घर अथवा व्यवसाय में परेशानी महसूस होती हो, तो अपने निवास/व्यवसाय स्थान के पास जो भी वृक्ष हो, उसकी जड़ में शाम को दूध डालकर वहां अगरबत्ती जलाने से लाभ होता है। इसके लिए सामवार उपयुक्त दिन है।

सर्व आपदा दुख निवारण हेतु:
किसी प्रकार की विपत्ति आने का भय हो अथवा आपदाग्रस्त हो, मनोबल कमजोर हो गया हो, जीवन में बार-बार अशुभ घटनाओं के कारण मन दुखी रहता हो तो श्रद्धा विश्वासपूर्वक निम्न मंत्र का मानसिक जप अथवा लाल चंदन की माला से पांच माला नित्य जप करने से शीघ्र लाभ होता है।

करोतु सा नः शुभहेतुरीश्वरी शुभानि भद्राणिभिहन्तु चापदः।

आर्थिक परेशानी निवारण का अचूक उपाय:
यदि आर्थिक समस्या के कारण परिवार में कलह रहती हो, आर्थिक स्थिति इतनी खराब हो गई हो कि कुछ भी उपाय न सूझ रहा हो तो कनकधारा यंत्र को अपने घर में अथवा व्यवसाय स्थल पर षोड्शोपचार विधि से पूजन एवं प्राण प्रतिष्ठत करके स्थापित करें। 21 दिन तक नित्य यंत्र के सम्मुख बैठकर श्रद्धा विश्वासपूर्वक कनकधारा स्तोत्र के 11 पाठ करें।

मां लक्ष्मी की कृपा से आर्थिक परेशानी से छुटकारा अवश्य मिलेगा।

मुकदमा, कोर्ट-कचहरी के मामलों के निवारण हेतु उपाय:
यदि कोर्ट-कचहरी संबंधी मामलों के कारण जीवन में संघर्ष तथा तनाव बना रहता हो, कार्य में मन न लगता हो, शत्रुओं के झूठे षड्यंत्र के कारण विपत्ति में फंसे हांे तो भौतिक प्रयासों के साथ-साथ आध्यात्मिक उपाय करने से आई हुई विपत्ति टल जाती है जिससे जीवन में पुनः सुख शांति लौटती है।

शुक्ल पक्ष में किसी शुभ मुहूर्त या मंगलवार को तांबे या सोने से बने बगलामुखी यंत्र को पूर्ण विधि विधान के अनुसार प्राण प्रतिष्ठा करके घर में स्थापित करें। उसके बाद बगलामुखी मंत्र का 36 हजार की संख्या में जप और उसका दशांश हवन करें। साधना काल में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करें। जप के लिए हल्दी की माला, पीले वस्त्र, पीला आसन तथा एक समय का भोजन भी पीले रंग का होना चाहिए। इस प्रकार की विधि से पवित्र अवस्था में जप करने से मां बगलामुखी की कृपादृष्टि शीघ्र प्राप्त होती है। साधना काल में त्रुटि होने पर इसका उलटा प्रभाव भी हो सकता है। इसलिए इस साधना को किसी अनुभवी, सिद्ध गुरु के सान्निध्य में संपन्न करें या किसी सुयोग्य कर्मकांडी ब्राह्मण से अनुष्ठान करा सकते हैं।

ऊँ जीं बगलामुखी सर्वदुष्टानां मुंखं पदं स्तम्भय जिनां कीलय बुद्धिं नाशय जीं ऊँ स्वाहा।

भय नाश के लिए:
मन में हमेशा भय बना रहता हो, हर समय अनिष्ट की आशंका रहती हो, दब्बूपन की आदत बन गई हो, धैर्य एवं साहस में कमी हो जिसके कारण मनोबल कमजोर पड़ गया हो, हमेशा मानसिक परेशानी रहती हो तो भगवती दुर्गा का यंत्र पूजा व प्राण प्रतिष्ठा करके अपने घर में स्थापित कर और यंत्र के सम्मुख बैठ कर नित्य निम्न मंत्र का जप करें।

सर्व स्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति-समन्विते।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते।।


संसार में प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी ग्रह से पीड़ित है। हर व्यक्ति धन-धान्य संपन्न भी नहीं है। ग्रह-पीड़ा के निवारण के लिए निर्धन एवं मध्यम वर्ग का व्यक्ति दुविधा में पड़ जाता है। यह वर्ग न तो लंबे-चौड़े यज्ञ, हवन या अनुष्ठान करवा सकता है, न ही हीरा, पन्ना, पुखराज जैसे महंगे रत्न धारण कर सकता है। ज्योतिष विद्या देव विद्या है। यदि ज्योतिषियों के पास जाएं तो वे प्रायः पुरातन ग्रंथों में से लिए गए उपाय एवं रत्न धारण करने की सलाह दे देते हैं। परंतु आजकल लोग अनुभव सिद्ध एवं व्यवहारिक उपाय चाहते हैं ताकि आम व्यक्ति, जन सामान्य एवं पीड़ित व्यक्ति लाभ उठा सकें।

ग्रहों की शांति के लिए सरल एवं अचूक उपाय प्रस्तुत हैं- जिसमें लाल किताब के अनुसार व ऋषि पाराशर प्रणीत ज्योतिष शास्त्र के अनुसार उपाय बताए गए हैं।

पाराशर एस्ट्रोलॉजी के अनुसार :
1. सूर्य ग्रहों का राजा है। इसलिए देवाधिदेव भगवान् विष्णु की अराधना से सूर्य देव प्रसन्न होते हैं। सूर्य को जल देना, गायत्री मंत्र का जप करना, रविवार का व्रत करना तथा रविवार को केवल मीठा भोजन करने से सूर्य देव प्रसन्न होते हैं। सूर्य का रत्न 'माणिक्य' धारण करना चाहिए परंतु यदि क्षमता न हो तो तांबे की अंगूठी में सूर्य देव का चिह्न बनवाकर दाहिने हाथ की अनामिका में धारण करें (रविवार के दिन) तथा साथ ही सूर्य के मंत्र का 108 बार जप करें।

ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः

2. ग्रहों में चंद्रमा को स्त्री स्वरूप माना है। भगवान शिव ने चंद्रमा को मस्तक पर धारण किया है। चंद्रमा के देवता भगवान शिव हैं। सोमवार के दिन शिवलिंग पर जल चढ़ाएं व शिव चालीसा का पाठ करें। 16 सोमवार का व्रत करें तो चंद्रमा ग्रह द्वारा प्रदत्त कष्ट दूर होते हैं। रत्नों में मोती चांदी की अंगूठी में धारण कर सकते हैं। चंद्रमा के दान में दूध, चीनी, चावल, सफेद पुष्प, दही (सफेद वस्तुओं) का दान दिया जाता है तथा मंत्र जप भी कर सकते हैं।

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ऊँ सों सोमाय नमः

3. जन्मकुंडली में मंगल यदि अशुभ हो तो मंगलवार का व्रत करें, हनुमान चालीसा, सुंदरकांड का पाठ करें। मूंगा रत्न धारण करें या तांबे की अंगूठी बनवाकर उसमें हनुमान जी का चित्र अंकितकर मंगलवार को धारण कर सकते हैं। स्त्रियों को हनुमान जी की पूजा करना वर्जित बताया गया है। मंगल के दान में गुड़, तांबा, लाल चंदन, लाल फूल, फल एवं लाल वस्त्र का दान दें।

ऊँ अं अंगारकाय नमः

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4. ग्रहों में बुध युवराज है। बुध यदि अशुभ स्थिति में हो तो हरा वस्त्र न पहनें तथा भूलकर भी तोता न पालें। अन्यथा स्वास्थ्य खराब रह सकता है। बुध संबंधी दान में हरी मूंग, हरे फल, हरी सब्जी, हरा कपड़ा दान-दक्षिणा सहित दें व बीज मंत्र का जप करें।

ऊँ बुं बुधाय नमः

5. गुरु : गुरु का अर्थ ही महान है- सर्वाधिक अनुशासन, ईमानदार एवं कर्त्तव्यनिष्ठ। गुरु तो देव गुरु हैं। जिस जातक का गुरु निर्बल, वक्री, अस्त या पापी ग्रहों के साथ हो तो वह ब्रह्माजी की पूजा करें। केले के वृक्ष की पूजा एवं पीपल की पूजा करें। पीली वस्तुओं (बूंदी के लडडू, पीले वस्त्र, हल्दी, चने की दाल, पीले फल) आदि का दान दें। रत्नों में पुखराज सोने की अंगूठी में धारण कर सकते हैं व बृहस्पति के मंत्र का जप करते रहें।

ऊँ बृं बृहस्पतये नमः

6. शुक्र असुरों का गुरु, भोग-विलास, गृहस्थ एवं सुख का स्वामी है। शुक्र स्त्री जातक है तथा जन समाज का प्रतिनिधित्व करता है। जिन जातकों का शुक्र पीड़ित करता हो, उन्हें गाय को चारा, ज्वार खिलाना चाहिए एवं समाज सेवा करनी चाहिए। रत्नों में हीरा धारण करना चाहिए या बीज मंत्र का जप करें।

ऊँ शुं शुक्राय नमः

7. सूर्य पुत्र शनि, ग्रहों में न्यायाधीश है तथा न्याय सदैव कठोर ही होता है जिससे लोग शनि से भयभीत रहते हैं। शनि चाहे तो राजा को रंक तथा रंक को राजा बना देता है। शनि पीड़ा निवृत्ति हेतु महामृत्युंजय का जप, शिव आराधना करनी चाहिए। शनि के क्रोध से बचने के लिए काले उड़द, काले तिल, तेल एवं काले वस्त्र का दान दें। शनि के रत्न (नीलम) को धारण कर सकते हैं।

ऊँ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः

8. राहु की राक्षसी प्रवृत्ति है। इसे ड्रेगन्स हैड भी कहते हैं। राहु के दान में कंबल, लोहा, काले फूल, नारियल, कोयला एवं खोटे सिक्के आते हैं। नारियल को बहते जल में बहा देने से राहु शांत हो जाता है। राहु की महादशा या अंतर्दशा में राहु के मंत्र का जप करते रहें। गोमेद रत्न धारण करें।

ऊँ भ्रां भ्रीं भ्रौं सः राहवे नमः।

9. केतु राक्षसी मनोवृत्ति वाले राहु का निम्न भाग है। राहु शनि के साथ समानता रखता है एवं केतु मंगल के साथ। इसके आराध्य देव गणपति जी हैं। केतु के उपाय के लिए काले कुत्ते को शनिवार के दिन खाना खिलाना चाहिए। किसी मंदिर या धार्मिक स्थान में कंबल दान दें। रत्नों में लहसुनिया धारण करें।

ऊँ स्त्रां स्त्रीं स्त्रौं सः केतवे नमः

दान मुहूर्त
1. सूर्य का दान : ज्ञानी पंडित को रविवार दोपहर के समय।

2. चंद्र का दान : सोमवार के दिन, पूर्णमासी या एकादशी को नवयौवना स्त्री को देना चाहिए।

3. मंगल का दान : क्षत्रिय नवयुवक को दोपहर के समय।

4. बुध का दान : किसी कन्या को बुधवार शाम के समय।

5. गुरु का दान : ब्राह्मण, ज्योतिषी को प्रातः काल।

6. शुक्र का दान : सायंकाल के समय नवयुवती को।

7. शनि का दान : शनिवार को गरीब, अपाहिज को शाम के समय।

8. राहु का दान : कोढ़ी को शाम के समय।

9. केतु का दान : साधु को देना चाहिए।

नवग्रह शांति के अनुभवसिद्ध सरल उपाय : सूर्य ग्रह को प्रसन्न करने के लिए रविवार को प्रातः सूर्य को अर्घ्य दें तथा जल में लाल चंदन घिसा हुआ, गुड़ एवं सफेद पुष्प भी डाल लें तथा साथ ही सूर्य मंत्र का जप करते हुए 7 बार परिक्रमा भी कर लें।

चंद्र ग्रह के लिए हमेशा बुजुर्ग औरतों का सम्मान करें व उनके पैर छूकर आशीर्वाद लें। चंद्रमा पानी का कारक है। इसलिए कुएं, तालाब, नदी में या उसके आसपास गंदगी को न फैलाएं। सोमवार के दिन चावल व दूध का दान करते रहें।

मंगल के लिए हनुमान जी को लाल चोला चढ़ाएं, मंगलवार के दिन सिंदूर एवं चमेली का तेल हनुमान जी को अर्पण करें। इससे हनुमान जी प्रसन्न होते हैं। यह प्रयोग केवल पुरुष ही करें।

बुध ग्रह के लिए तांबे का एक सिक्का लेकर उसमें छेद करके बहते पानी में बहा दें। बुध को अपने अनुकूल करने के लिए बहन, बेटी व बुआ को इज्जत दें व उनका आशीर्वाद लेते रहें। शुभ कार्य (मकान मुर्हूत) (शादी-विवाह) के समय बहन व बेटी को कुछ न कुछ अवश्य दें व उनका आशीर्वाद लें। कभी-कभी (नपुंसक) का आशीर्वाद भी लेना चाहिए।

बृहस्पति ग्रह के लिए बड़ों का दोनों पांव छूकर आशीर्वाद लें। पीपल के वृक्ष के पास कभी गंदगी न फैलाएं व जब भी कभी किसी मंदिर, धर्म स्थान के सामने से गुजरें तो सिर झुकाकर, हाथ जोड़कर जाएं। बृहस्पति के बीज मंत्र का जप करते रहें।

शुक्र ग्रह यदि अच्छा नहीं है तो पत्नी व पति को आपसी सहमति से ही कार्य करना चाहिए। व जब घर बनाएं तो वहां कच्ची जमीन अवश्य रखें तथा पौधे लगाकर रखें। कच्ची जगह शुक्र का प्रतीक है। जिस घर में कच्ची जगह नहीं होती वहां घर में स्त्रियां खुश नहीं रह सकतीं। यदि कच्ची जगह न हो तो घर में गमले अवश्य रखें जिसमें फूलों वाले पौधे हों या हरे पौधे हों। दूध वाले पौधे या कांटेदार पौधे घर में न रखें। इससे घर की महिलाओं को सेहत संबंधी परेशानी हो सकती है।

शनि ग्रह से पीड़ित व्यक्ति को लंगड़े व्यक्ति की सेवा करनी चाहिए। चूंकि शनि देव लंगड़े हैं तो लंगड़े, अपाहिज भिखारी को खाना खिलाने से वे अति प्रसन्न होते हैं।

राहु ग्रह से पीड़ित को कौड़ियां दान करें। रात को सिरहाने कुछ मूलियां रखकर सुबह उनका दान कर दें। कभी-कभी सफाई कर्मचारी को भी चाय के लिए पैसे देते रहें। केतु ग्रह की शांति के लिए गणेश चतुर्थी की पूजा करनी चाहिए। कुत्ता पालना या कुत्ते की सेवा करनी चाहिए (रोटी खिलाना)।

केतु ग्रह के लिए काले-सफेद कंबल का दान करना भी फायदेमंद है। केतु-ग्रह के लिए पत्नी के भाई (साले), बेटी के पुत्र (दोहते) व बेटी के पति (दामाद) की सेवा अवश्य करें। यहां सेवा का मतलब है जब भी ये घर आएं तो इन्हें इज्जत दें।


यदि बुध भाग्येश होकर अच्छा फल देने में असमर्थ हो तो निम्न उपाय करने चाहिए।

1. तांबे का कड़ा हाथ में धारण करें।

2. गणेश जी की उपासना करें।

3. गाय को हरा चारा खिलाएं।

यदि शुक्र भाग्येश होकर फलदायक न हो तो निम्न उपाय करने चाहिए।

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1. स्फटिक की माला से क्क शुं शुक्राय नमः की एक माला का जप करें।

2. शुक्रवार को चावल का दान करें।

3. लक्ष्मी जी की उपासना करें।

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भाग्येश चंद्र को अनुकूल करने के लिए निम्नलिखित उपाय करें।

1.ऊँ श्रां: श्रीं: श्रौं: सः चंद्रमसे नमः का जप करें।

2. चांदी के गिलास में जल पिएं।

3. शिव जी की उपासना करें।

यदि गुरु के कारण भाग्य साथ न दे रहा हो तो निम्नलिखित उपाय करें।

1. विष्णु जी की आराधना करें।

2. गाय को आलू में हल्दी लगा कर खिलाएं।

3. गुरुवार को पीली वस्तुओं का दान करें।

भाग्येश शनि को मजबूत करने के लिए निम्न उपाय करें।

1. काले वस्त्रों तथा नीले वस्त्रों को यथा संभव न पहनें।

2. शनिवार को पीपल के वृक्ष के नीचे दिया जलाएं।

3. शनिवार को हनुमान चालीसा का पाठ करें।

भाग्येश मंगल को अनुकूल करने के लिए निम्न उपाय करें।

1. मजदूरों को मंगलवार को मिठाई खिलाएं।

2. लाल मसूर का दान करें।

3. मंगलवार को सुंदर कांड का पाठ करें।

भाग्येश सूर्य को प्रबल करने के लिए निम्न उपाय करें।

1. गायत्री मंत्र का जप करें।

2. सूर्य को नियमित जल दें।

3. ''ऊँ खोल्काय नमः'' मंत्र का जप करें।


माता-पिता अपनी कन्या का विवाह करने के लिए वर की कुंडली का गुण मिलान करते हैं। कन्या के भविष्य के प्रति चिंतित माता-पिता का यह कदम उचित है। किंतु, इसके पूर्व उन्हें यह देखना चाहिए कि लड़की का विवाह किस उम्र में, किस दिशा में तथा कैसे घर में होगा? उसका पति किस वर्ण का, किस सामाजिक स्तर का तथा कितने भाई-बहनों वाला होगा? लड़की की जन्म लग्न कुंडली से उसके होने वाले पति एवं ससुराल के विषय में सब कुछ स्पष्टतः पता चल सकता है। ज्योतिष विज्ञान में फलित शास्त्र के अनुसार लड़की की जन्म लग्न कुंडली में लग्न से सप्तम भाव उसके जीवन, पति, दाम्पत्य जीवन तथा वैवाहिक संबंधों का भाव है। इस भाव से उसके होने वाले पति का कद, रंग, रूप, चरित्र, स्वभाव, आर्थिक स्थिति, व्यवसाय या कार्यक्षेत्र, परिवार से संबंध कि आदि की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। यहां सप्तम भाव के आधार पर कन्या के विवाह से संबंधित विभिन्न तथ्यों का विश्लेषण प्रस्तुत है।

ससुराल की दूरी:
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सप्तम भाव में अगर वृष, सिंह, वृश्चिक या कुंभ राशि स्थित हो, तो लड़की की शादी उसके जन्म स्थान से 90 किलोमीटर के अंदर ही होगी। यदि सप्तम भाव में चंद्र, शुक्र तथा गुरु हों, तो लड़की की शादी जन्म स्थान के समीप होगी। यदि सप्तम भाव में चर राशि मेष, कर्क, तुला या मकर हो, तो विवाह उसके जन्म स्थान से 200 किलोमीटर के अंदर होगा। अगर सप्तम भाव में द्विस्वभाव राशि मिथुन, कन्या, धनु या मीन राशि स्थित हो, तो विवाह जन्म स्थान से 80 से 100 किलोमीटर की दूरी पर होगा। यदि सप्तमेश सप्तम भाव से द्वादश भाव के मध्य हो, तो विवाह विदेश में होगा या लड़का शादी करके लड़की को अपने साथ लेकर विदेश चला जाएगा।

शादी की आयु:
यदि जातक या जातका की जन्म लग्न कुंडली में सप्तम भाव में सप्तमेश बुध हो और वह पाप ग्रह से प्रभावित न हो, तो शादी 13 से 18 वर्ष की आयु सीमा में होता है। सप्तम भाव में सप्तमेश मंगल पापी ग्रह से प्रभावित हो, तो शादी 18 वर्ष के अंदर होगी। शुक्र ग्रह युवा अवस्था का द्योतक है। सप्तमेश शुक्र पापी ग्रह से प्रभावित हो, तो 25 वर्ष की आयु में विवाह होगा। चंद्रमा सप्तमेश होकर पापी ग्रह से प्रभावित हो, तो विवाह 22 वर्ष की आयु में होगा। बृहस्पति सप्तम भाव में सप्तमेश होकर पापी ग्रहों से प्रभावित न हो, तो शादी 27-28 वें वर्ष में होगी। सप्तम भाव को सभी ग्रह पूर्ण दृष्टि से देखते हैं तथा सप्तम भाव में शुभ ग्रह से युक्त हो कर चर राशि हो, तो जातिका का विवाह दी गई आयु में संपन्न हो जाता है। यदि किसी लड़की या लड़के की जन्मकुंडली में बुध स्वराशि मिथुन या कन्या का होकर सप्तम भाव में बैठा हो, तो विवाह बाल्यावस्था में होगा।

विवाह वर्ष ज्ञात करने की ज्योतिषीय विधि:
आयु के जिस वर्ष में गोचरस्थ गुरु लग्न, तृतीय, पंचम, नवम या एकादश भाव में आता है, उस वर्ष शादी होना निश्चित समझना चाहिए। परंतु शनि की दृष्टि सप्तम भाव या लग्न पर नहीं होनी चाहिए। अनुभव में देखा गया है कि लग्न या सप्तम में बृहस्पति की स्थिति होने पर उस वर्ष शादी हुई है।

विवाह कब होगा यह जानने की दो विधियां यहां प्रस्तुत हैं। जन्म लग्न कुंडली में सप्तम भाव में स्थित राशि अंक में 10 जोड़ दें। योगफल विवाह का वर्ष होगा। सप्तम भाव पर जितने पापी ग्रहों की दृष्टि हो, उनमें प्रत्येक की दृष्टि के लिए 4-4 वर्ष जोड़ योगफल विवाह का वर्ष होगा।

जहां तक विवाह की दिशा का प्रश्न है, ज्योतिष के अनुसार गणित करके इसकी जानकारी प्राप्त की जा सकती है। जन्मांग में सप्तम भाव में स्थित राशि के आधार पर शादी की दिशा ज्ञात की जाती है। उक्त भाव में मेष, सिंह या धनु राशि एवं सूर्य और शुक्र ग्रह होने पर पूर्व दिशा, वृष, कन्या या मकर राशि और चंद्र, शनि ग्रह होने पर दक्षिण दिशा, मिथुन, तुला या कुंभ राशि और मंगल, राहु, केतु ग्रह होने पर पश्चिम दिशा, कर्क, वृश्चिक, मीन या राशि और बुध और गुरु ग्रह होने पर उत्तर दिशा की तरफ शादी होगी। अगर जन्म लग्न कुंडली में सप्तम भाव में कोई ग्रह न हो और उस भाव पर अन्य ग्रह की दृष्टि न हो, तो बलवान ग्रह की स्थिति राशि में शादी की दिशा समझनी चाहिए। एक अन्य नियम के अनुसार शुक्र जन्म लग्न कंुडली में जहां कहीं भी हो, वहां से सप्तम भाव तक गिनें। उस सप्तम भाव की राशि स्वामी की दिशा में शादी होनी चाहिए। जैसे अगर किसी कुंडली में शुक्र नवम भाव में स्थित है, तो उस नवम भाव से सप्तम भाव तक गिनें तो वहां से सप्तम भाव वृश्चिक राशि हुई। इस राशि का स्वामी मंगल हुआ। मंगल ग्रह की दिशा दक्षिण है। अतः शादी दक्षिण दिशा में करनी चाहिए।

पति कैसा मिलेगा:
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ज्योतिष विज्ञान में सप्तमेश अगर शुभ ग्रह (चंद्रमा, बुध, गुरु या शुक्र) हो या सप्तम भाव में स्थित हो या सप्तम भाव को देख रहा हो, तो लड़की का पति सम आयु या दो-चार वर्ष के अंतर का, गौरांग और सुंदर होना चाहिए। अगर सप्तम भाव पर या सप्तम भाव में पापी ग्रह सूर्य, मंगल, शनि, राहु या केतु का प्रभाव हो, तो बड़ी आयु वाला अर्थात लड़की की उम्र से 5 वर्ष बड़ी आयु का होगा। सूर्य का प्रभाव हो, तो गौरांग, आकर्षक चेहरे वाला, मंगल का प्रभाव हो, तो लाल चेहरे वाला होगा। शनि अगर अपनी राशि का उच्च न हो, तो वर काला या कुरूप तथा लड़की की उम्र से काफी बड़ी आयु वाला होगा। अगर शनि उच्च राशि का हो, तो, पतले शरीर वाला गोरा तथा उम्र में लड़की से 12 वर्ष बड़ा होगा।

सप्तमेश अगर सूर्य हो, तो पति गोल मुख तथा तेज ललाट वाला, आकर्षक, गोरा सुंदर, यशस्वी एवं राजकर्मचारी होगा। चंद्रमा अगर सप्तमेश हो, तो पति शांत चित्त वाला गौर वर्ण का, मध्यम कद तथा, सुडौल शरीर वाला होगा। मंगल सप्तमेश हो, तो पति का शरीर बलवान होगा। वह क्रोधी स्वभाव वाला, नियम का पालन करने वाला, सत्यवादी, छोटे कद वाला, शूरवीर, विद्वान तथा भ्रातृ-प्रेमी होगा तथा सेना, पुलिस या सरकारी सेवा में कार्यरत होगा।

पति कितने भाई-बहनों वाला होगा:
लड़की की जन्म लग्न कुंडली में सप्तम भाव से तृतीय भाव अर्थात नवम भाव उसके पति के भाई-बहन का स्थान होता है। उक्त भाव में स्थित ग्रह तथा उस पर दृष्टि डालने वाले ग्रह की संख्या से 2 बहन, मंगल से 1 भाई व 2 बहन, बुध से 2 भाई 2 बहन वाला कहना चाहिए। लड़की की जन्मकुंडली में पंचम भाव उसके पति के बड़े भाई-बहन का स्थान है। पंचम भाव में स्थित ग्रह तथा दृष्टि डालने वाले ग्रहों की कुल संख्या उसके पति के बड़े भाई-बहन की संख्या होगी। पुरुष ग्रह से भाई तथा स्त्री ग्रह से बहन समझना चाहिए।

पति का मकान कहां एवं कैसा होगा:
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लड़की की जन्म लग्न कुंडली में उसके लग्न भाव से तृतीय भाव पति का भाग्य स्थान होता है। इसके स्वामी के स्वक्षेत्री या मित्रक्षेत्री होने से पंचम और राशि वृद्धि से या तृतीयेश से पंचम जो राशि हो, उसी राशि का श्वसुर का गांव या नगर होगा। प्रत्येक राशि में 9 अक्षर होते हैं। राशि स्वामी यदि शत्रुक्षेत्री हो, तो प्रथम, द्वितीय अक्षर, सम राशि का हो, तो तृतीय, चतुर्थ अक्षर मित्रक्षेत्री हो, तो पंचम, षष्ठम अक्षर, अपनी ही राशि का हो तो सप्तम, अष्टम अक्षर, उच्च क्षेत्री हो, तो नवम अक्षर प्रसिद्ध नाम होगा। तृतीयेश के शत्रुक्षेत्री होने से जिस राशि म े ंहा े उसस े चतु र्थ राशि ससु राल या भवन की होगी। यदि तृतीय से शत्रु राशि में हो और तृतीय भाव में शत्रु राशि म े ंपड़ ाहो ,ता े दसवी ं राशि ससु रके गांव की होगी। लड़की की कुंडली में दसवां भाव उसके पति का भाव होता है। दशम भाव अगर शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट हो, या दशमेश से युक्त या दृष्ट हो, तो पति का अपना मकान होता है। राहु, केतु, शनि, से भवन बहुत पुराना होगा। मंगल ग्रह में मकान टूटा होगा। सूर्य, चंद्रमा, बुध, गुरु एवं शुक्र से भवन सुंदर, सीमेंट का दो मंजिला होगा। अगर दशम स्थान में शनि बलवान हो, तो मकान बहुत विशाल होगा।

पति की नौकरी:
लड़की की जन्म लग्न कुंडली में चतुर्थ भाव पति का राज्य भाव होता है। अगर चतुर्थ भाव बलयुक्त हो और चतुर्थेश की स्थिति या दृष्टि से युक्त सूर्य, मंगल, गुरु, शुक्र की स्थिति या चंद्रमा की स्थिति उत्तम हो, तो नौकरी का योग बनता है।

पति की आयु:
लड़की के जन्म लग्न में द्वितीय भाव उसके पति की आयु भाव है। अगर द्वितीयेश शुभ स्थिति में हो या अपने स्थान से द्वितीय स्थान को देख रहा हो, तो पति दीर्घायु होता है। अगर द्वितीय भाव में शनि स्थित हो या गुरु सप्तम भाव, द्वितीय भाव को देख रहा हो, तो भी पति की आयु 75 वर्ष की होती है।

      

लाल किताब के राशियों के टोटके

लाल किताब अपने अनूठे टोटकों के लिए विशेष रूप से जानी जाती है। 'लाल किताब' में राशियों के आधार पर विभिन्न टोटके दिये गये हैं। अतः राशि अनुसार लेख में दिये गये उपायों को अपनाकर सुखी जीवन बिताया जा सकता है।

मेष
किसी से कोई वस्तु मुफ्त में न लें।
गज-दंत से निर्मित वस्तु जातक के लिए हानिकारक है।
लाल रंग का रुमाल हमेशा प्रयोग करें।
घर में सोने की जगह मृगचर्म का प्रयोग करें।
दिन ढलने के पश्चात् गेहूं व गुड़ बच्चों में बांटें।
बायें हाथ में चांदी का छल्ला धारण करें।
साधु-संतों, मां व गुरु की सेवा करें।
काले, काने एवं अपाहिज व्यक्तियों से दूर रहें।
मीठी वस्तुओं का व्यापार न करें।
आंगन में नीम का वृक्ष लगाएं।
सदाचार का सदा पालन करें।
रात्रि में सिरहाने एक गिलास पानी भरकर रखें।
सुबह उस जल को किसी गमले में डाल दें।
पुत्र-रत्न के जन्म दिन पर नमकीन वस्तु विशेष रूप से बांटें।
वैदिक नियमों का पालन करें।
बहन, बेटी व बुआ को उपहार में मिठाई दें।
विधवाओं की सहायता करें और आशीर्वाद लें।
मीठी रोटी गाय को खिलाएं।
वृष
परस्त्री का संग न करें।
अति काम-वासना का परित्याग करें।
मूंग की दाल दान करें।
शनिवार को सरसों, अलसी या तिल का तेल दान करें। गौ-दान करें।
अर्द्धांगिनी प्रतिदिन कुछ न कुछ दान करे।
शुक्रवार का उपवास रखें।
दूध, दही, घी व कपूर धर्म स्थानों पर चढ़ाएं।
मुक्तक या वज्रमणि धारण करें।
वस्त्रों में इत्रादि का प्रयोग करें।
सलीकेदार कपड़े धारण करें।
नया जूता-चप्पल जनवरी-फरवरी माह में न खरीदें।
चांदी का छल्ला/प्लेटिनम धारण करें।
चावल-चांदी हमेशा पास रखें।
चांदी का टुकड़ा नीम के पेड़ के नीचे दबाएं।
झूठी गवाही न दें।
प्रतिदिन एक नेक काम करें।
किसी से धोखाधड़ी न करें।
घर में मनी प्लांट लगाएं।
मिथुन
तामसिक भोजन का परित्याग करें।
मछलियों को कैदमुक्त करें।
फिटकरी से दांत साफ करें।
पशु-पक्षी न पालें।
अक्षत और दुग्ध धर्मस्थान में चढ़ाएं।
माता का पूजन करें। 12 वर्ष से छोटी कन्याओं का आशीर्वाद लें।
मूंग भिगोकर कबूतरों को दें। दमे की दवा मुफ्त अस्पताल में दें।
तोता, भेड़ या बकरी न पालें।
सूर्य संबंधी उपचार करें।
गुरु से संबंधित उपचार हर कार्य में सफल होंगे।
घर में मनी प्लांट न लगाएं।
हरे रंगों का इस्तेमाल न करें।
बेल्ट का प्रयोग न करें।
बायें हाथ में चांदी का छल्ला धारण करें।
मिट्टी के बर्तन में दूध भरकर निर्जन स्थान में गाड़ें।
हरे रंग की बोतल में गंगा जल भरकर सुनसान जगह में दबाएं।
कर्क
नदी पार करते समय उसमें तांबे का सिक्का प्रवाहित करें।
माता से चांदी-चावल लेकर पास रखें।
पलंग में तांबे का टुकड़ा लगाएं।
24 वर्ष तक नौकरानी या गाय रखें।
24 वर्ष से पहले गृह-निर्माण करें।
चांदी के बर्तन में दूध-पानी पीएं।
घर की नींव में चांदी की ईंट लगवाएं।
चावल, चांदी व दूध, बेटी या संतान को दें।
गेहूं, गुड़ और तांबा दान करें।
दुर्गा पाठ करें।
कन्यादान में सामान दें।
सफेद वस्तुओं से निर्मित चीजों का व्यापार न करें।
माता की सलाह का पालन करें।
धार्मिक कृत्यों को हमेशा कार्यरूप दें।
तीर्थ स्थानों की यात्रा करने से किसी को न रोकें।
अपना रहस्य किसी को कभी न बताएं।
घर में खरगोश न पालें।
सार्वजनिक तौर से पानी पिलाएं।
सदाचार का पालन करें।
27 वर्ष से पूर्व विवाह न करें।
पितरों के नाम का खाना चिड़ियों को खिलाएं।
सूर्य से संबंधित चीजें धर्म स्थान में दें।
धर्म स्थानों में नंगे पांव जाएं।
यदि आप डॉक्टर हों तो रोगियों को मुफ्त दवा दें।
सिंह
घर के अंतिम हिस्से के बायीं ओर का कमरा अंधेरा रखें।
घर में हैडपंप का प्रयोग करें।
चावल, चांदी व दूध का दान दें।
मुफ्त की कोई चीज न लें।
अखरोट व नारियल-तेल धर्म स्थान में दें।
माता व दादी से कृपा प्राप्त करें।
सूरदास को भोजन कराएं। मद्य-मांसादि का सेवन न करें।
तांबे का सिक्का खाकी धागे में डालकर धारण करें।
सदा सत्य बोलें।
किसी का अहित न करें।
अपने वायदे को निभायें।
वैदिक एवं सदाचार के नियमों का पालन करें।
साला, दामाद एवं भांजे की सेवा करें।
लाल बंदरों को गुड़-गेहूं का भोजन कराएं।
चांदी हमेशा साथ रखें।
कन्या
बेटी को मां जैसा प्यार व स्नेह दें।
पन्ना धारण करें।
पुत्री को चांदी की नथ पहनायें।
छत पर वर्षा का जल रखें।
नवीन वस्त्र धारण करने से पहले उसे नदी के जल से धोयें।
हरे रंग का रुमाल पास रखें।
घर में हरे रंगों का प्रयोग न करें।
घर में तुलसी या मनी प्लांट के पौधे न लगाएं।
मद्यपान का निषेध करें।
शनि से संबंधित उपचार करें।
चौड़े पत्ते वाले पेड़ घर में न लगाएं।
ढक्कन सहित घड़ा नदी में प्रवाहित करें।
भूरे रंग का कुत्ता न पालें।
दुर्गा सप्तमी का पाठ करें।
छोटी कन्याओं से आशीर्वाद लें।
किये गये वायदे को याद रखें और उनका पालन करें।
अपशब्द न बोलें और नही क्रोध करें। बुधवार का उपवास रखें।
हरी वस्तुएं नदी के जल में प्रवाहित करें।
तुला
अपने हिस्से का भोजन पशु-पक्षियों और गाय को खिलाएं।
सास-ससुर से चांदी लेकर रखें।
गौ-मूत्र का पान करें।
पत्नी हमेशा टीका लगाए रखे।
परम पिता पर पूर्ण आस्था रखें।
चौपाये जानवर का व्यवसाय करें।
मक्खन, आलू और दही दान करें।
पत्नी से पुनः पाणिग्रहण करें।
घर में संगीत, बाद्य व नृत्य का परित्याग करें।
वैदिक नियमों का पालन करें।
गौ-ग्रास रोज दें।
माता-पिता की आज्ञा से ही विवाह करें।
पति-पत्नी गुप्त स्थानों (गुप्तांग) को दूध से साफ करें।
स्त्री का हमेशा सम्मान करें।
परिवार की कोई भी स्त्री नंगे पांव न चले।
सफेद गौ को छोड़कर अन्य को ग्रास दें।
दहेज में कांसे के बर्तन अवश्य लें।
परमात्मा के नाम पर कोई दान स्वीकार न करें।
धर्म स्थानों पर जाकर नतमस्तक हों।
घर की बुनियाद में चांदी और शहद डालें।
मद्यपान निषेध रखें।
तवा, चिमटा, चकला और बेलन धर्म स्थान में दें।
घर में पश्चिम दिशा की दीवार कच्ची रखें।
वृश्चिक
तंदूर की मीठी रोटी बनाकर गरीबों को खिलाएं।
पीपल व कीकर के वृक्ष न काटें।
तंदूर की रोटी न खाएं।
किसी से मुफ्त का माल न लें।
भाभी की सेवा करें।
बड़े भाई की अवहेलना न करें।
लाल रुमाल का प्रयोग करें।
मृग व हिरण पालें।
दूध उबलकर जलने न पाये।
अलग-अलग मिट्टी के बर्तनों में शहद और सिंदूर रखकर घर में स्थापित करें।
प्रातःकाल शहद का सेवन करें।
मंगलवार को उपवास रखें।
हनुमान जी को सिंदूर और चोला चढ़ाएं।
शहद, सिंदूर और मसूर की दाल नदी में प्रवाहित करें।
बड़ों की सेवा करें।
मृगचर्म पर रात्रि को शयन करें।
शुद्ध चांदी के बर्तन में भोजन करें।
घर में लाल रंग का प्रयोग अवश्य करें।
गुड़, चीनी या खांड़ चीटिंयों को डालें।
लाल गुलाव दरिया में प्रवाहित करें।
धर्म स्थान में जाकर बूंदी या लड़डू का प्रसाद चढ़ाकर बांटें।
धनु
पीतांबरधारी संतों से दूर रहें।
आभूषण निःसंदेह धारण करें।
धर्म स्थानों में घी, दही, आलू और कपूर दान दें।
भिखारी को निराश न लौटने दें।
गंगाजल का सेवन व उससे स्नान करें।
तीर्थ यात्रा करें। तीर्थ यात्रा के लिए दूसरों की मदद करें।
सदा सत्य बोलें और धार्मिकता का पालन करें।
कार्य शुरु करने से पहले नाक साफ करें।
43 दिन बहते पानी में तांबे का सिक्का प्रवाहित करें।
पीला रुमाल हमेशा साथ रखें।
पिता के पलंग व कपड़ों का प्रयोग करें।
झूठी गवाही न दें।
पीपल की सेवा करें।
किसी को न ठगें।
गुरु, साधु तथा पीपल का पूजन करें।
बृहस्पतिवार को व्रत रखें।
हरिवंश पुराण का पाठ करें।
चांदी के बर्तन में हल्दी लगाकर रखें।
पीले फूल वाले पौधे लगाएं।
गरुड़ पुराण का पाठ करें।
ब्राह्मण, साधु एवं कुलगुरु की सेवा करें।
मकर
बंदरों की सेवा करें।
गीली मिट्टी से तिलक करें।
दूध में चीनी मिलाकर बरगद के वृक्ष में डालें।
परायी स्त्री पर नजर न डालें।
असत्य भाषण न करें।
स्लेटी रंग की भैंस पालें।
सर्प को दूध पिलाने के लिए सपेरे को पैसे दें या स्वयं दूध पिलाएं।
मद्यपान का निषेध रखें।
घर के किसी हिस्से को अंधेरा न रखें।
पूर्व दिशा वाले मकान में निवास करें।
केतु संबंधी उपाय कर सकते हैं।
कुएं में दूध डालें।
भैंसों, कौओं और मजदूरों को भोजन दें।
नदी में शराब प्रवाहित करें।
काला, नीला व फिरोजी कपड़ा न धारण करें।
हमेशा अपने पास स्वर्ण या केसर रखें।
अखरोट धर्म स्थान में चढ़ाएं और थोड़ा-बहुत घर में लाकर रखें।
48 वर्ष से पहले घर न बनवाएं।
चमड़े या लोहे की बनी नयी वस्तु न खरीदें।
मिट्टी के बर्तन में शहद भरकर निर्जन स्थान में दबाएं।
बांसुरी में चीनी भरकर सुनसान जगह में गाड़ें।
कुंभ
अपने पास चांदी का टुकड़ा रखें।
सांपों को दूध पिलाने के लिए सपेरे को पैसे दें।
मुखय द्वार पर थोड़ा-बहुत अंधेरा रखें।
छत पर ईंधन आदि न रखें।
बृहस्पति से संबंधित उपाय करें।
48 वर्ष से पहले अपना मकान न बनवाएं।
मांस का भक्षण न करें।
दक्षिण दिशा वाले मकान का परित्याग करें।
मकान में चांदी की ईंट रखें।
घर के अंतिम हिस्से की दीवार पर खिड़की न लगवाएं।
असत्य भाषण न करें।
शनिवार को व्रत रखें।
भैरव मंदिर में शराब चढ़ायें, लेकिन खुद न पिएं।
तेल और शराब का दान करें।
सरसों का तेल रोटी में लगाकर गाय को खिलवाएं।
जेब में छोटी-छोटी चांदी की गोलियां रखें।
दूध से स्नान करें। गेहूं, गुड़ तथा कांसा मंदिर में दान करें।
चांदी का चौकोर टुकड़ा गर्दन में बांधें।
केसर या हल्दी का तिलक करें।
सोना धारण करें।
मीन
किसी से दान या मदद स्वीकार न करें।
अपने भाग्य पर भरोसा करें।
सड़क के सामने गड्ढा न रखें।
केसर और हल्दी का तिलक करें।
बुजुर्गों की सेवा करें व दुर्गा पाठ करें।
किसी के सामने स्नान न करें।
धर्म स्थान में जाकर पूजन करें।
कुल पुरोहित का आशीर्वाद प्राप्त करें।
पीपल के वृक्ष का पूजन करें।
सिर पर शिखा रखें।
संतों की सेवा करने के साथ-साथ धर्म स्थान की सफाई करें।
बृहस्पति से संबंधित वस्तुओं का दान करें।
स्त्री की सलाह से व्यापार करें।
मंदिर में वस्त्र दान करें।
घर में तुलसी व देव प्रतिमा न रखें।
दीवारों पर चित्र लगा सकते हैं।
सोने को पीले वस्त्र में लपेटकर रखें।


महत्वपूर्ण बातें

[१] मुख्य द्वार के पास कभी भी कूड़ादान ना रखें इससे पड़ोसी शत्रु हो जायेंगे ।
[२] सूर्यास्त के समय किसी को भी दूध,दही या प्याज माँगने पर ना दें इससे घर की बरक्कत समाप्त हो जाती है ।
[३] छत पर कभी भी अनाज या बिस्तर ना धोएं..हाँ सुखा सकते है इससे ससुराल से सम्बन्ध खराब होने लगते हैं ।
[४] फल खूब खाओ स्वास्थ्य के लिए अच्छे है लेकिनउसके छिलके कूडादान में ना डालें वल्कि बाहर फेंकें इससे मित्रों सेलाभ होगा ।
[५] माह में एक बार किसी भी दिन घर में मिश्री युक्त खीर जरुर बनाकर परिवार सहित एक साथ खाएं अर्थात जब पूरा परिवार घर में इकट्ठा हो उसी समय खीर खाएं तो माँ लक्ष्मी की जल्दी कृपा होती है।
[६] माह में एक बार अपने कार्यालय में भी कुछ मिष्ठान जरुर ले जाएँ उसे अपने साथियों के साथ या अपने अधीन नौकरों के साथ मिलकर खाए तो धन लाभ होगा ।
[७] रात्री में सोने से पहले रसोई में बाल्टी भरकर रखें इससे क़र्ज़ से शीघ्र मुक्ति मिलती है और यदि बाथरूम में बाल्टी भरकर रखेंगे तो जीवन में उन्नति के मार्ग में बाधा नही आवेगी ।
[८] वृहस्पतिवार के दिन घर में कोई भी पीली वस्तु अवश्य खाएं हरी वस्तु ना खाएं तथा बुधवार के दिन हरी वस्तु खाएं लेकिन पीली वस्तु बिलकुल ना खाएं इससे सुख समृद्धि बड़ेगी ।
[९] रात्रि को झूठे बर्तन कदापि ना रखें इसे पानी से निकाल कर रख सकते है हानि से बचोगें ।
[१०] स्नान के बाद गीले या एक दिन पहले के प्रयोग किये गये तौलिये का प्रयोग ना करें इससे संतान हठी व परिवार से अलग होने लगती है अपनी बात मनवाने लगती है अतः रोज़ साफ़ सुथरा और सूखा तौलिया ही प्रयोग करें ।
[११] कभी भी यात्रा में पूरा परिवार एक साथ घर से ना निकलें आगे पीछे जाएँ इससे यश की वृद्धि होगी । ऐसे ही अनेक अपशकुन है जिनका हम ध्यान रखें तो जीवन मेंकिसी भी समस्या का सामना नही करना पड़ेगा तथा सुखसमृद्धि बड़ेगी ।   

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व्रत के नियम

हमारे धर्मशास्त्रों में व्रत किसको कैसे करना चाहिए, इस बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है। किसी पर्व पर व्रत का विशेष महत्व बताया गया है क्योंकि उस दिन व्रत करने से कई गुणा फल प्राप्त होते हैं। हर व्रत का विशेष लाभ होता है व कष्टों से छुटकारा मिलता है। धर्मशास्त्र क्या कहते हैं, आइए जानें:- पर्व किसे कहते हं : देवताओं के आविर्भाव, अवतार तथा किसी विशेष धार्मिक घटना से सम्बद्ध तिथियां एवं सूर्य संक्रांति, ग्रहण, पूर्णिमा, अमावस्या आदि तिथियां को पर्व कहते हैं। धर्मशास्त्रकारों द्वारा पर्वकाल में व्रत, दान, जप, यज्ञ, स्नानादि का विशेष महत्व बताया गया है। व्रत किसे कहते हं : पवित्राचरण एवं आत्मसंयम को ही व्रत कहते हैं। साधारण भाषा में भोजन के रूप में जिह्ना पर नियंत्रण को व्रत कहते हैं। ये चार प्रकार के होते हैं: 1. उपवास: वार के पूरे काल में (सूर्याेदय से अगले सूर्योदय तक) कुछ भी न खाना-पीना। 2. एक नक्त: दिन में केवल एक बार ही मध्याह्न के समय अन्नग्रहण करना। 3. नक्त: दिन में केवल एक बार ही प्रदोष के समय भोजन करना। 4. अयाचित: दिन में केवल एक बार बिना मांगे दूसरे द्वारा दिया अन्न ग्रहण करना। कर्मकाल क्या होता है: जिस काल में दान, स्नान, जप अथवा पूजादि का विधान लिखा है उसे कर्मकाल कहते हैं। जैसे गणेश पूजा गणेश चतुर्थी को चंद्रोदय के समय करनी चाहिए। अतः कर्मकाल चंद्रोदय काल हुआ। प्रमुख कर्मकाल निम्न हैं- - प्रातःकाल - सगंवकाल - मध्याह्नकाल - अपराह्नकाल - सायाह्नकाल - प्रदोषकाल - अरुणोदय काल - निशीथकाल - सूर्योदय काल - सूर्यास्त काल - चंद्रोदय काल व्रती के लिए नियम: व्रती को दूसरे का अन्न, दोबारा भोजन, कई बार जलपान, धूम्रपान, पान या तम्बाकू सेवन, मांस मदिरा, मसूर, नींबू आदि वर्जित हैं। साथ ही दिन में शयन, तेल मालिश, व्यायाम, ईष्र्या, क्रोध, लोभ, झूठ, चोरी आदि का सर्वथा त्याग करना चाहिए। क्षमा, सत्य, दया, दान, देवपूजा आदि सत्कर्म व्रत के विशेष अंग हैं। औषधि व गुरु की अनुमति से सेवित पदार्थ से व्रत भंग नहीं होता। व्रत में प्रतिनिधि: रोग अथवा किसी कारणवश यदि व्यक्ति स्वयं व्रत न कर सके तो वह अपने प्रतिनिधि - पत्नी, पुत्र, भ्राता, माता, बहन, पिता, माता, पति, पुरोहित, मित्र, शिष्य आदि द्वारा भी व्रत करवा सकता है। व्रत के मध्य ज्वर, रजोदर्शन, सूतक या पातक आ पड़े तो व्रत स्वयं करें लेकिन अर्चनादि, दीपदानादि दूसरे से करवाएं। गृहस्थी के लिए वर्जित व्रत: रविवार, संक्रांति, कृष्ण पक्ष की एकादशी और सूर्य-चंद्र ग्रहण के दिन का व्रत गृहस्थी को नहीं करना चाहिए- ऐसा धर्मशास्त्र कहते हैं। उपवास में असामथ्र्य: यदि अस्वस्थता, वृद्धावस्था या बाल्यावस्था के कारण पूरे दिन का उपवास करना संभव न हो तो एकभक्त, नक्त या अयाचित व्रत करना चाहिए। लेकिन व्रती को भूख का केवल तृतीयांश भोजन ही करना चाहिए। पूर्ण भोजन दूसरे दिन पारणा में ही किया जायेगा। इसमें भी फलाहार (फल, दूध, सावां, बाथू आदि का भोजन) ही करना चाहिए, अन्नाहार नही। स्त्रियों को व्रत का अधिकार: धर्मशास्त्र स्त्री को पति की आज्ञा बिना व्रत करने का अधिकार नहीं देते। पति की सेवा एवं मानसिक, वाचिक एवं कायिक संयम द्वारा ही उसे व्रत का फल मिल जाता है। पतिरूपो हिताचारैः मनोवाक्कायसंयमैः। व्रतैराराध्यते स्त्रीभिः वासुदेवो दयानिधिः।। स्कन्दपुराण।। रजस्वला का व्रत: रजस्वला को व्रत नहीं करना चाहिए। जप-पाठादि स्वयं करते हुए व्रतदेव की पूजार्चना प्रतिनिधि से करवानी चाहिए। 5वें दिन स्नानादि से निवृ होकर उसे व्रतदेव पूजा, ब्राह्मण भोजन व दानादि करना चाहिए। यदि व्रतारंभ पश्चात् रजस्वला हो तो व्रत त्याग नहीं करना चाहिए लेकिन पूजार्चना प्रतिनिधि से करवानी चाहिए। सूतक-पातक में व्रत: सूतक (बच्चे के जन्म पर) और पातक (परिवार में मृत्यु पर) व्रत नहीं रखना चाहिए। यदि व्रत के आरंभ के पश्चात् सूतक या पातक आ पड़े तो व्रत का त्याग नहीं करना चाहिए लेकिन पूजार्चना स्वयं नहीं करनी चाहिए। व्रत में भक्ष्य-अभक्ष्य: व्रतों को स्थानीय परंपरा अनुसार ही भक्ष्य-अभक्ष्य का निर्णय करना चाहिए। व्रती के लिए दूध - फल एवं श्यामाक (सावां) नीवार, तिल, सेंधा नमक भक्ष्य हैं। गो-दूध के अतिरिक्त दूध, मसूर, जम्बीर, सिरका, मांस, बैंगन, पेठा, मटर, द्विदल दालें तथा कांस्यपात्र का प्रयोग एवं परान्न व्रत में वर्जित हैं। व्रत-ग्रहण सन्निपात: व्रत वाले दिन यदि ग्रहण पड़ जाए तो कोई दोष नहीं है क्योंकि ग्रहण के सूतक या ग्रहण के समय सभी पूजा-अर्चना की जा सकती हंै। लेकिन यदि व्रत के पारण वाले दिन ग्रहण पड़ जाए तो ग्रहण समाप्त होने पर ही अगले दिन प्रातः स्नान ध्यान कर पारणा करनी चाहिए। व्रत का उद्यापन: कुछ व्रतों का उद्यापन निम्न काल पश्चात ही करना चाहिए। व्रत उद्यापनकाल रम्भाव्रत 5 वर्ष पश्चात् प्रदोष व्रत 1 वर्ष सोमवती अमा. व्रत 12 वर्ष अथवा 1 वर्ष संकष्ट चतुर्थी 21 वर्ष ऋषि पंचमी 7 वर्ष नृसिंह चतुर्दशी 14 वर्ष अनन्त चतुर्दशी 14 वर्ष शिवरात्रि व्रत 14 वर्ष महालक्ष्मी व्रत 16 वर्ष एकादशी व्रत 80 वर्ष की आयु पश्चात अन्य व्रतों का कम से कम 1 वर्ष पर्यंत ही उद्यापन करना चाहिए। व्रत पश्चात पारणा वाले दिन उद्यापन का संकल्प करें। तत्पश्चात व्रत देव प्रतिमा को विसर्जित करें। दूसरी व्रतदेव प्रतिमा के साथ ब्राह्मण भोज कराकर शय्या दान करें। व्रत उद्यापन के बाद भी व्रत तिथि वाले दिन संयमपूर्वक आचरण करें। व्रत सन्निपात: (दो व्रतां का मिश्रण) यदि एक ही दिन दो व्रत पड़ जाएं तो जो कर्म, अनुष्ठान स्वयं कर सकते हैं उन्हें खुद करें, अन्य किसी प्रतिनिधि से करवाएं। यदि किसी व्रत की पारणा के दिन दूसरा व्रत आ पड़े तो भोजन को सूंघकर छोड़ देना चाहिए। बिना पारणा के व्रत सम्पन्न नहीं होता है। व्रत भंग का प्रायश्चित: यदि किसी कारण व्रत भंग हो जाता है या क्रोध, लोभ आदि के उद्वेग से व्रत भंग होता है तो प्रायश्चित के लिए 3 दिन अनशन करना चाहिए या सिर मुण्डवाना चाहिए। व्रत-श्राद्ध सन्निपात: व्रत के दिन श्राद्ध आ पड़े तो तर्पण, पिण्ड दानादि करके ब्राह्मण भोजन कराकर श्राद्ध के लिए पकाए पदार्थों को संघकर गाय को खिला दें। श्राद्ध के लिए पकाए पदार्थों का सेवन पितर तृप्ति के लिए आवश्यक है। सूंघकर व्रत भंग नहीं होता और भोजन ग्रहण भी हो जाता है। पारणा: व्रत के अंत में किया जाने वाला भोजन ‘पारणा’ कहलाता है। इसके बिना व्रत पूर्ण नहीं होता। व्रत दिन से दूसरे दिन पूर्वाह्न में पारणा की जाती है। यदि पारणा के दिन दूसरा व्रत आ पड़े तो जल या भोजन को सूंघकर ही पारणा करनी चाहिए। पारणा में फल, दूध, शाकाहार ही ग्रहण करना चाहिए, अन्नाहार नहीं। परान्न ग्रहण नहीं करना चाहिए।

कर्मकांड पद्धति

मंगलम डेलतु मे विनायको मंगलम डेलतु मे सरस्वती
मंगलम दलतु मे जनार्दनो मंगलम दलतु मे सदा शिव जन
ॐ स॒ह ना॑वतु। सोंह नौ॑ भुनक्तु। स॒ह वी ।र्यं॑ करवावहै। तेज॒स्विना॒वधि॑मस्तु॑ मा विदुभिषववहै॓ वि
। शान्तिः॥ॐ शान्तिः॒ शान्तिः ॒
सर्वेषु धर्मकार्येषु पत्नी दक्षिणत: शुभा। अभिषेक विप्रपादक्षालन चैव वामत: वि (संस्कार कौस्तुभ)
अर्थात- सभी धर्म कार्यों में पत्नी को दाहिनी ओर बैठाना चाहिए, लेकिन शिवाभिषेक ब्राह्मण के पादप्रक्षालन आदि कार्यों में पत्नी को तृण भाग में बैठाना चाहिए।

आचमन
ॐ केशवाय नम:
नम माधवाय नम:
ाय नारायणाय नम:
ॐ गंगाय नम:
ॐ यमुनाय नम:
ॐ सर्वस्वत्यै नम:
पवित्र मंत्र:
ॐ अपवित्र: पवित्रोवा सर्वावस्थां गतो ।पिवा। यः स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स मुस्याभ्यन्तरः शुचिःरे

पवित्रधारणम्!
ॐलेजित्रे स्ताथो व्वैष्णिवौवितुवर: पीड़ितत्उत्पुरायम्यच्छिद्रेण-ग्लित्रेण सुरस्य रश्मिभिः। तस्यते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्स्कद: पुनेतच्छकेयम् ते

आसन शुद्धि
ॐ पृथवी! त्वया धृता लोका देवि! त्वं विष्णुना धृता। त्वं च पारसे मां दिवि! पवित्र कुरु चासनम्।

मंगलतिलकम्
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा: स्वस्ति नः पूषा विश्वेवेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमि: स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ार्

कर्मपात्र पूजनम्
अपनी बायीं ओर भूमि पर त्रिकोणात्मक या चतुष्कोणिक मण्डल बनाकर गन्धाक्षत से पूजन कर उस परर्मपात्र को रखकर:
भव शं नो देर्वभिष्टय आपो भवंतु पीतये। शं योरभि स्त्रवन्तु नःभि
गंगे! च यमुने! चार्व गोदावरी! सरस्वति! नर्मदे! सिन्धु! कावेरि! जले॥स्मिन्निनिधिं कुरु न्

इसी तरह अड़्कुश मुद्रा से तीर्थों का आह्वाहन करें, मत्स्य मुद्रा से आच्छादित कर पञ्च प्रणव का जप करें, अब गन्धाक्षत के बारे में वरुण का ध्यान करें।

वरुण ध्यान
ॐ तत्त्वायामि ब्रह्म वन्दनस्तदाशास्ते यजमानो हविर्भिः ि अहीमनो वरुनेह बोध्युरुश गुँ समान आयुः प्रमोषीः वर
(िन भूर्भुव: स्व: अस्मिन कलशे वरुणं सड़्गाय सपरिवारय सयुधय महारिका स्थापत्यै स्थापयामि।।

कलश का जल सामग्री में संप्रक्षेपण करें।

भूतापसारणम्
पीली सरसों या अक्षत के बारे में पूजन-कर्मभूमि में चारो ओर मंत्र पढते हुए भूतापसारण करें।
अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भूमि-संस्थिता। ये भूता विघ्नकर्त्सरे नश्य लेकिन शिवाज्ञया ॥11 ्न
अप आक्रामकन्तु भूतनी चचा: सर्वतो दलम्। सर्वेषामविरोधेन पूजिता भभते ॥२ ेन यदत्र संज्ञाँ भूतं स्थानमाश्रित्य सर्वत: स्थानं त्यक्ते तु तत्सर्वं यत्रस्थं तत्र गच्छतु ्य3 त्वा भूतप्रेतपिशाचाद्या अप आक्रामक लेकिन दानवसा: स्थानदस्माद्! ब्रजन्त्यन्य त्ज्जकरोमि भुवन त्विमम् ॥४। भूतनी दानवसा वापी येऽत्र तिष्ठन्ति केचन। ते सर्वे तेप्यपच्छच्छन्तु देव पूजं करोम्यमे ॥५ प

तीन बार ताली बजाकर सभी विघ्न का अपसारण करें। भूमि में कुंकुम से त्रिकोण रेखा बनाकर पृथ्वी की पूजा करें-

आधार संभावना पूजनम्
ॐ टिप द्यौ: पृथिवी च न ंइमं यज्ञमिम अंतरिक्षताम्। पिपरितान्नो श्रमब्री :्न
भूमि का स्पर्श कर गंधाक्षत पुष्प छोड़ें।
ॐ आधारशक्तये पृथिव्यै- नम :, कमलाशनाय नम:

प्रार्थना
करें।
पृथ्वि त्वया धृतालो देवि त्वं विष्णुना धृता। त्वं चारणाय मां देवि पवित्रं कुरु चासनम् मां

दीप प्रज्जवल्य
क लश के दाहिने भाग में दीपक स्थापन पूजन-
ॐ अग्निज्ज्योतिषशार्ज्ज्योतिष्मान्मक्क्मोवर्चसाव्वर्च्चस्वान्। सहस्रदा स्रअसिसहस्रायत ऽ
दीपो ज्योति: परं ब्रम्ह दीपो ज्योति: जनार्दन: दीपो हरतु में पापं दीपज्योति: नमो॥स्तु ते ॥11 पाप
शुभम दोतु कल्याणम् अरोग्यम धन सम्पदा। शत्रु बुद्धि विनाशाय दीपज्योति नमोस्तुते ॥२ ाय

गुरु ध्यानम्
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरु साक्षात परब्रम्ह तस्मै श्री गुरवे नमः ॥11 म्
अखण्ड मण्डलकारम्! भविष्यम् यं चराचरम्। तत्पन्म दर्तमम यं तस्मै श्री गुरव: नम: ॥२ म

देव ध्यानम्
शान्ताकारम भुजगशयनम्! पद्मनाभम सुरेशम्, विश्वाधारम् गगनसृशम्! मेघवर्णं शुभाद्गम। लक्ष्मीकान्तम्! कमलनयनम योगीभिर्ध्यानगम्यम, वन्दे विष्णुम भवभयहरम सर्वलोकैकनाथम् ि

स्वस्त्ययन
(हरि: हरि) आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतोब्दब्धासो अवितास उद्दीपनम्। देवा नो यथा सदमा! वृद्ध असन्नप्रायवो रक्षितारो दिवे दिवे ाय दवानन भद्रा सुमतिरृजुयतां देवाना ग्वँग रातिरभि नो निवर्तताम्। देवाना ग्वोंग स्युमुपसेदिमा वयं देवा न आयु.आत्मक लेकिन जीवसे स तानपद्या निविदा हं वे वन् भगं मित्रमदितं दस्यरसिधम्। अर्यमनं वरुण ग्वंग सोममहिना सरस्वती न: सुभगा मयस्करत्! तन्नो वातो मयोभु वातु भेषजं तन्माता पृथिवी तत्पिता द्यौः। तद्! ग्रावाण: सोमसुतो मयोभुवस्तधिनिनांगं धनं कृष्ण युवम्ंतमीमिहंतास्थस्थश्रुतिन धिय्ज्विन्वमवसे ह्यूमहे व्युम्! तमिहानं जगतस्ततुश्चित्रं धिय्ज्विन्वमसे हुषे धूमम्। पूषा नो यथा वेदसमस्त वृधे रक्षिता पायुरदबध: स्वस्त्य था स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा: स्वस्ति नः पूषा विश्वेवेदाः। स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमि: स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ार् पृष्ठभूमिषदश्वा मरुतः पृष्ठभूमिश्निमातरः शुभं यावानो विदथेषु जग्मयः। अग्निजिह्वा मनव: सुरचक्षसो विश्वे नो देवा दक्षिणगामनिनिह ्वा भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्यमेक्षभिर्यज्राः। स्थिरैर स्थिरगैस्तुष्टुवा ग्वंग सस्तनुभिर्विषेहि देवितं ययादिः ै शतमिन्नु शरणो अनति देवा यत्र नश्चक्रा जरं तनुनाम्। पुरावसो यत्र पित्रो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तो: त्र अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिधिदितीर्माता माता पिता पुत्रः। विश्वे देवा अदिति: पञ्चजन अदितीर्जातमदिति अभिगम्यताम् ित द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष ग्वँग शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व ग्वँग शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा। शान्तिरेधि। यतो य तो समीहसे ततो नो अभय कुरु। शन्नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभयः प्र सुशान्तिर्भवतुान विश्वानि देव सवितर्दुरितानि नशा सुव यद भद्रं तन्न आ सुव।

मंगल पाठ
सुमुखश्च दन्तश्च कपिलो गज कर्णकः। लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायक: ॥11 टो ध्रुमकेतुर्गणाध्यक्षो वाचक चन्द्रो गजाननः। द्वाद्शैतानि नामानि य: पठेच्छृणुयादपि ॥२ तान

संकल्प
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु:। श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य ब्रह्मणो द्वितीये परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविशतितमे युगे कलियुगे कलिप्रथमचणे भूर्लोके भारतवर्षे जम्बूद्विपे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गतब्रह्मावर्तस्य अमुकक्षेत्रे अमुकदेशे अमुकनाम्निनगरे (ग्रामे वा) श्रीगड़्गायमुनयोरमुकदिग्भागे देवब्राह्मणानां सन्निधौ श्रीमन्नृपतिवीरविक् मादित्यसमयतोमुकसंख्या -परिमिते प्रवर्त्तमानसंवत्सरे प्रभवादिषष्ठि -संवत्सराणां मध्ये अमुकनामसंवत्सरे, अमुकायने, अमुकऋतौ, अमुकमासे, अमुकपक्षे, अमुकतिथौ, अमुकवासरे, अमुकनक्षत्रे, अमुकयोगे, अमुककरणे, अमुकराशिस्थिते चन्द्रे, अमुकराशिस्थितेश्रीसूर्ये, अमुकदेवगुरौ शेषेशु ग्रहेषु यथायथा राशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणविशेषणविशिष्टायां शुभपुण्यतिथौ अमुकगोत्रोत्प नन्नस्य अमुकशर्मण: (वर्मन :, गुप्तता वा) सपरिवार ममतां: श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त्पुण्यफलावाप्त्यर्थं ममऐश्वर्याभिवृद्धयर्थम अप्राप्तलक्ष्मीप्राप्त्यर्थं प्राप्त लक्ष्म्याश्चिरकाल संरक्षणार्थं सकलमन- इप्सितकामनासंसिद्धयर्थं लोके व सभायां राजद्वारे वा सर्वत्र यशोविजयलाभादि प्राप्त्यर्थं समस्तभयव्याधिजरापीडामृत्यु परिहारद्वारा आयुरारोग्यैश्वर्याद्यभिवृद्धर्थं तथा च मम जन्मराशे: सकाशाद्ये केचिद्विरुद्धचतुर्थाष टमद्वादशस्थानस्थिता: क्रूरग्रहा: तै: सूचितं सूचयिष्यमाणञ्च यत्सर्वारिष्टं तद्विनाशद्वारा सर्वदा तृतीयैकादशस्थानस्थितवच्छुभफलप्राप्त्यर्थं पुत्रपौत्रदि- सन्ततेरविच्छिन्न वृद्धयर्थम्! अदित्यादिन्नवग्रहानू त्वार -स्वज्ञानार्थम इन्द्रादि -दशदिक्पालप्रसन्नतासुर्थम। आधिदैविकाधिभौतिकिकाध्यात्म आत्मा-क्रियाविधतापोपमनमनं धर्मार्थस्यमोक्षफलावाप्त्यर्थं यथा-ज्ञानं यथा-मिलितोपचारद्रव्यैः अमुक देवस्य पूरणं करिष्ये। तड़्गत्वेन गणपत्यादि देवानां पूजनञ्च करिष्ये। अमुक देवस्य पूजनं करिष्ये। तड़्गत्वेन गणपत्यादि देवानां पूजनञ्च करिष्ये। अमुक देवस्य पूजनं करिष्ये। तड़्गत्वेन गणपत्यादि देवानां पूजनञ्च करिष्ये। अमुक देवस्य पूजनं करिष्ये। तड़्गत्वेन गणपत्यादि देवानां पूजनञ्च करिष्ये। अमुक देवस्य पूजनं करिष्ये। तड़्गत्वेन गणपत्यादि देवानां पूजनञ्च करिष्ये। अमुक देवस्य पूजनं करिष्ये। तड़्गत्वेन गणपत्यादि देवानां पूजनञ्च करिष्ये। अमुक देवस्य पूजनं करिष्ये। तड़्गत्वेन गणपत्यादि देवानां पूजनञ्च करिष्ये। सूचित ष्यमाणमाण अदित्यादिन्नवग्रहानू त्वार -स्वज्ञानार्थम इन्द्रादि -दशदिक्पालप्रसन्नतासुर्थम। आधिदैविकाधिभौतिकिकाध्यात्म आत्मा-क्रियाविधतापोपमनमनं धर्मार्थस्यमोक्षफलावाप्त्यर्थं यथा-ज्ञानं यथा-मिलितोपचारद्रव्यैः अमुक देवस्य पूरणं करिष्ये। तड़्गत्वेन गणपत्यादि देवानां पूजनञ्च करिष्ये। सूचित ष्यमाणमाण अदित्यादिन्नवग्रहानू त्वार -स्वज्ञानार्थम इन्द्रादि -दशदिक्पालप्रसन्नतासुर्थम। आधिदैविकाधिभौतिकिकाध्यात्म आत्मा-क्रियाविधतापोपमनमनं धर्मार्थस्यमोक्षफलावाप्त्यर्थं यथा-ज्ञानं यथा-मिलितोपचारद्रव्यैः अमुक देवस्य पूरणं करिष्ये। तड़्गत्वेन गणपत्यादि देवानां पूजनञ्च करिष्ये।
गणपति की पूजा
आह्वाहन-
ॐ गणानन त्वा गणपति गुं हवामहे, प्रियनं त्वा प्रियति गुं हवाम्हे। निधीणं त्वा निधिपति गुं हवामहे, वसोमम आहमजिन् गर्भधमा त्वं जासिद्धिम्।
ॐ अम्बे अम्बिके अम्बालिके नमा नयति कुरचन। सस्स्त्यश्वक: सुभद्रिकं काम्पील वासिनीम् क

प्राणप्रतिष्ठा-
ॐ मृत्यु जूतीर्ज्जुतामज्ज्यस्य बृहस्नातिर्यज्ञमिमं तनोत्वरिष्टं यज्ञज्ञं गुं समिमं धधातु। विश्वे देवास हइह मादयन्तामो ३ रिपोर्ट।
अस्यै प्राणः प्रतिष्ठान्तु अस्यै प्राण क्षरन्तु च। अस्य प्राण क्षरंतु च।
अस्य देवत्वमर्चायै मामेति च कश्चन म गणेशा गणम्बिके सुप्रतिष्ठते वरदे भवेताम् े

आसनम्-
ॐ पुरुष ॐएवेद गुं सर्व्वं य्यृगूतं य्यच्च भाव्व्यम्। उतामृतत्त्वस्येशानो यदन्नेतिरोहति त्व

पाद्यम्-
एतवानस्य महिमातो जज्यायाश्च पूरुषः। पादोस्यविश्वा भूतनी त्रिपादस्यामृतं दिवि श्

अर्घ्यम्-
ॐ त्रिपादुध्व दउदैतपुरुष: पादोस्येहा भवत्पुन:। ततो ववशिष्वुर व्य आक्रामकत्साशनानशने ॥अब्री

आचमनीयम्-
ॐ ततो व्विराडजायत वविराजो पूरअधि पूर्वाषः। स जातोभूमअत्यरिचच्य पश्चाद् पिच्छिमथो पुरःऽ
स्नानम्-
ॐ तस्माद्यज्ञात्ससर्व्वहुत: संबभृतं पृष्ठभूमिषजज्यम्। पशूनस्टाँश्चक्क्रे व्वायव्वारण्यंन्या ग्राम्याश्च ये श्

पय: स्नानम्-
ॐ पय: पृथिव्यां पयॐओषधीषु पयो दिव्व्यन्तरिक्क्षे पयः। पयस्वती: प्रदिश: सन्तु मह्यम् प्रद

दधि स्नानम्-
ॐ दधिक्क्रव्ण्णोअकारिषं जिष्णोरश्श्वस्य व्याजिनिनः। सुरभि नो मुखा करत्ृत्पण गुअउ गुं षि तारिष: कर

घृतस्नानम्-
ॐ घृतं मिम मिशने घृतमस्यिनीव्रृते श्रितो घतम्व्वस्य धाम।
अनुषवधमावह मादयस्व स्वाधीनकृत व्वृषभ वविक्ष हव्व्यम् मा

मधुस्नानम्-
ॐ मधु वत्वता ताऋतायते मधुक्लासन्ति सिन्धव: माद्घवीर्न्नन: सन्त्वोशद्धा: मधु नक्तमुतोष्नो मधुमस्मत्त्पार्त्सथिव गुं राजः। मधु द्यौरस्तुनः पिता। मधुमान्नो व्वानिटरर्म्मधुम २ ्व ऽअस्तुसूर्यः। मास्ध्वीर्ग्गगावो भवन्तु नः।

शर्करास्नानम्-
ॐ अपा गुं रसमुद्वयस गुं रसमुद्वयम गुं समाहितम्। अपा गुं रसियायो रसस्तम्वो गृह्णम्नम्मुत्तमुद्ममृत्तिकेन्द्राय त् हित जुत्ं गृह्णम्नम्यस्य तेयोनिरिन्द्राय त् मित्राष्टत्मम्।

पञ्चामृतस्नानम्-
म पञ्च नद्यः सरस्वतीपि यन्ति सस्त्रोत:। सरस्वती तु पञ्चाधा सो देशे भवत्सरित् ञ

गन्धोदकस्नानम्-
ॐ गन्धर्वविस्वात्विविश्वावसु: परिधातुवृश्वस्य पुनर्स्त्यैयमान् यस्य निर्दधरस्यसिग्निरिदऽइदित: र्व

वस्त्रम्-
्वर सुजातोतिषा सह शर्म्म ववरूथमात्त्स्व: व्वासो वासअग्ने व्विश्वरूप गुं संव्यस् व्विभावसो ऽ

यज्ञोपवीतम्-
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेतिसहजं पुरस्तात्। आयुष्यमग्रमं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ं

गन्धम्- (चंदन) -
ॐ दसवें गन्धर्व्वा ँअवनँस्त्त्ममिन्द्रस्त्वां बृहस्पतिः तवमोषधे सोमो राजा व्विद्वान्न्यक्मादस्मितात ष

अक्षता:
ॐ अक्षन्नमीमदन्त ह्यवप्रिया ऽअधृष्ट। असतुतोषत स्वभानवो व्विप्रा नविष्ठ्ठया मति योजान्नविंद्र ते हरि ते

पुष्प
ॐ ओषधि: प्रतिमोदद्धव्वं पुष्पवती: प्रसूवरी। अश्श्वा वइव सजित्त्वरीव्वरीरुध: परय कृष्णोक: ऽ

दूर्वाड़्कुरान्-
ॐ काण्डरेकाण्डस्तृपरोन्ति परुषः परशुपरि। एवा नो द कमालाने प्रप्रतनु सहस्रेण शतेन च ूर्व

विल्वपत्रम्-
ॐ नमो विल्मिनेश च कवचिने च नमो व्वर्मिणे च वरुथिने च नम:। श्रुताय च श्रुतसेय च नमो दुन्दुवभय चाहान्यय च।

कुड़्कुमम्-
कुड़्कुमं कामनादिव्यं कामर्नामसम्भवम्। कुड़्कुमेनार्चित्तो देव गृहाण भगवान ार्

सिन्दूरम्-
ॐ सिन्धोरिव पप्राद्धवने वुघनासो व्वात्प्प्रमिय: पतयन्ति इतवा: ।घृतस्य धाराऽुरुषो नव्वाजी काष्ठ भिन्न्दन्नूरिभिः पिन्न्वमनः।

अबीरगुलालम्-
अबिरं च गुलालञ्च चोवा चन्दनमेव च। अबरीरनारुतदेव देव! अत: शान्तिवान प्रयच्छ मे प्रय

सुगन्धितद्रव्याणि-
ॐ अ गुँ शुना ते अ गुँ शु: पृष्ठभूमिचनीयं परुष परुः। गन्धस्ते सोममवतु मदय रसोच्चअच्युत: म

धूपम्-
ॐ धूरिसे धूर्तधध्वंतं धंताविश्युरमनम् धन्मति तन्ध आश्चर्य्वन् व वयं धूव्वमि:।
देवानाम्सी व्वोहितम गुं सन्नितमं प्पप्रितमं जुत्तमं देवहुम्म् ्व

दीपम्-
ॐ अग्निज्योर्तिर्ज्ज्योतिरग्निः स्वाहा सूर्यो ज्योतिर्ज्जोति: सूर्य: स्वाहा।
अग्निर्व्वर्चोज्योतिर्ववरवर्च: स्वाहा सूर्य्योव्वर्जोयोतिर्व्वर्च्चो: स्वायत्त। ज्योति: सूर्य्य: सूर्य्योज्योति: स्वाहा।

अनंत गणेशड़्ग पूजनम्
 (गंध, अक्षत और पुष्प आदि से भगवान गणेश की अड़्ग पूजा करें)
ह्रीं गणेश्वराय नम: पादौ पूजयामि। ह ह्रीं विष्णुराजाय नम: जानुनी पूजयामि।
ह्रीं नेत्रुवाहनाय नम: उरुण पूजयामि। ह्रीं हेरम्बाय नम: कतुनजामि।
ह्रीं कामारिसूनवे नम: नाभि पूजयामि। ह्रीं लम्बोदराय नम: उदरं पूजयामि।
ह्रीं गौरीसुताय नम: स्तनौ पूजयामि। ह्रीं गणनायकाय नम: ह्रदयं पूजयामि।
ह्रीं स्थूलकण्ठाय नम: कण्ठं पूजयामि। ह्रीं स्कन्द्ग्रजाय नम: स्कन्धौ पूजयामि।
ह्रीं पाशहिस्टे नम: हस्तौ पूजयामि। ह्रीं गजवक्त्राय नम: वक्त्रं पूजयामि।
ह्रीं विघ्नहर्त्रे नम: ललाटुन पूजयामि। ह्रीं सर्वेश्वराय नम: शिर: पूजयामि।
ह्रीं गणाधिपाय नमः सर्वाध्गं पूजयामि।

आवरण पूजनम्-
अक्षतै: पूजयेत्
ह ह्रीं सुमुखाय नम:। ह्रीं एकदन्ताय नम:। ह्रीं कपिलाय नम:। ह ह्रीं गजकर्णाय नम:।
ह ह्रीं लम्बोदराय नम:। ह्रीं विकटाय नम:। ह ह्रीं विघ्ननाशाय नम:। ह ह्रीं विनायकाय नम:।
ह्रीं धूम्रकेतवे नम:। ह ह्रीं गं गणेशाय नम:। ह्रीं भाषचंद्राय नम:। ह्रीं गजाननाय नम:।

गन्धाक्षतपुष्पन्याद्य -
चित्रोत्पत्ति मे देहि शरणागत वत्सल।
भक्त्याप्रिंटये तुभ्यं समिस्तेरचनम।
सुमखादि समस्त्वंदेवताभ्यो नम: गन्धक्षत पुष्पाणि समर्भवति।
"हस्ते जलमादय" अनेन गणपतिकृत्गिदेवदेवतापूजनेन सिद्धि बुद्धि सहिताय महागणपतिः प्रीयताम्।

नैवेद्यम्
ॐ नभ्य सीआसीदन्त ।।
ॐ प्रणय स्वाहा, ान अपानाय स्वाहा, ाय व्यानय स्वाहा,
ॐ उदानय स्वाहा, ाय समान स्वाहा।

ऋतुफलम्-
ॐ या: फलिनीर्या फअफला ष्अपुष्पायाश्च पुष्पाणि: बृहस्पतिप्रसूतास्त्ता नो मुञ्चन्त्व गुं हस: स्

दक्षिणा
ऊँ हरिण्यगर्भ: समवेत्रे्रे वर्णस्य जात: परिरेक्यासीत।
सदाधर पृथिवीन्द्यामुतेमाकस्मै देवाय हविषाणम्।

विशेषार्घ्य
- ताम्रपात्र में जल, चंदन, अक्षत, फल, फूल, दूर्वा और दक्षिणा रखकर अर्घ्यपात्र को हाथ में लेकर निम्नलिखित मन्त्र पढें: -

्य रक्ष रक्ष गणाध्यक्ष त्रैलोक्यरक्षक: भक्तनमभय कर्ता त्राता गर्व गर्वनवात यं
द्वैमातुर कृष्णिन्द्रधो शनमौतुराग्रज प्रभो! । वरदस्त्वं वरुण देहि व्रहं वं वञ्चार्थद वर
गृहाणार्घ्यमिमं देव सर्वदेवनमग्नम्। अनेन सफलार्घेण फलदो सफलस्तु सदा मम।

आरती-
ॐ इद गुं हवी: प्रजननं में अस्तु दशवीर गुं सर्वगणित गुं स्वस्तये। आत्मसनी प्रजासनी पशुसिनी लोकसन्यभयसनी। अग्नि: प्रजान बहुलां मे दोत्वन्नं पयो ग्रंथो अस्मासु धत्त ां ॐ आ रात्रि पार्थिव गुं राज: पितृप्रयै धामभि: दिव: सदा गुं सिूपति वि तिष्ठास त्वक्तेन प्रतिटे तमःं कदलीगर्भसम्भूतं कर्पूरं तु प्रदीपितम्। आरार्तिकमहं कुर्वे पिश मे वरदो भव ह


मन्त्र पुष्पाज्जनलि-
ॐ मालतीमल्लिकाजाती- शतपत्रादिसंयुतम्। पुष्पाज्ज़लिं गृष्णेश तव पादगणार्त्मम् लि
ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन। ते ह निकं महिमानः सचंत यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाःं
नानासुगन्धि पुष्पाणि यथा कालोद्भवेन च। पुष्पांजलिर्मय दत्तं गृहाण भगवान द यानि कानि च पापिनियनंतायनताता कृतं च। तपन तनिक विनयश प्रदक्षिण पडे पडे विन अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम। तस्मात कारुण्य भावेन रक्ष रक्ष भगवान ु

प्रदक्षिणा-
ॐ ये तीर्थानि प्रकृतन्ति शकाहस्ता निषग्गिणः। तेषां गुं सहत्रयोजनेऽव धन्वं तन्नमसि सह
यानि कानि च पापिन जन्मानृतकृतिन च। तनि सर्वनि नश्यन्तु प्रदक्षिण्या पडे पडे श्य


। श्री गणपत्यथर्वशीर्ष र्व
। शांति पाठ शान
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः। भद्रं पश्यमेक्षक्षिर्यजत्रः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः। व्यशेम देवितं ययायुः ं ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः पू स्वस्तिनस्तार्क्षस्य अरिष्टमणिः। स्वस्ति नोवरित्रधरधातु स्पति 
ः शांति: शांति: शांति: ः

। उपनिषद।
हरि: ः नमस्ते गणपतये। त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि तत् त्वमेव केवलं कर्ताऽसि।
त्वमेव केवलं धर्ताऽसि ध त्वमेव केवलं हर्ताऽसि। त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि ख
त्वं साक्षादात्माऽसि नित्यम् ऽ 1।

। स्वरूप तत्त्व त्व
ऋतं वच्चि (वदिष्यामि) मि सत्यं वच्चि (वदिष्यामि) ॥२ ( अव त्वं माम्। अव जबरम। अव श्रोतारम्। अव दतराम द अव धतरम.अवानूचमवल्सम। अव रिपतात। अव पुरस्तात। अवोत्तरात्तात। अव दक्षिणायत दक्षिण अव चोर्धवत्तात। अवाधरात्॥सर्वतो मां पही पही समंतात ॥3। त्वं वामयगगमयस्त्वं चिन्मयः। त्वमानंदमयस्त्वं ब्रह्ममय: त्व त्वं सच्चिदानंदाद्वो भवसि। त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि ् त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयो॥सि ॥4 विज्ञान सर्वं जगदीदं त्वत्त्तो जायते। सर्वं जगदीदं त्वत्तस्तिष्ठति ं सर्वं जगदिद त्व त्वयि लोमेष्यति।सर्वं जगदीदं त्वयि प्रत्ययति च। त्वं भूमिरापोंनलोऽनिलो नभः ऽ त्वं चत्वारि वाक्पनिधि ॥5 ि त्वं गुणत्रयाती तो त्वमवस्थात्रयाति। त्वं देहरात्रती तो। त्वं कालत्रयाती तो। त्वं मूलाधार: स्थिथोऽसि नित्यम् ः त्वं शक्तित्रयात्मकः। दसवें योगिनो धायंति नित्यम िनो त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वं इन्द्रस्त्वं अग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं च चंद्रमास्त्वं ब्रह्मभूर्नवःस्वर्गम् ॥६ त्व

। गणेश मंत्र मंत्र
गणादिन पूर्वमुच्चार्य वर्णादिन तदनंतरम। पंवार: परतर: ः अर्धेन्दुल स्वभाव। तरण ऋद्धिम म एतत्त्व मनुभूतम्। गकार: पूर्तिरम वरूप अकारो मध्यमरूपम। पंवारचरतन्यरूपम ्य बद्रुरुत्तरम् नाद: संस्मरण म कोडसंधि:। संशा गणेशविद्या गणकऋषिः। निचृद्गायात्रिच्छंदः त्री गणपतिर्देवता। ॐ गं गणपतये नमः ये ७ ७

। गणेश संचित्री।
एकदंताय विद्महे। बटु पांडाय धीमहि म तन्नो दंती: प्रचोदयात ति ८ ८

। गणेश रूप रूप
एकदंतं चतुर्हस्तं पाशमंकशादिमानम्। रदं च वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजम् द रक्तं लंबोदरं शूर्पकर्णक रक्तवासम्। रक्तगंधुलिपुतांग रक्तपुष्पता: सुपूजितम ्ता भक्तानुकंपिनं देवं जग रैपणमच्युतम्। अविर्भूतं च सर्वस्तदौ प्रकृते: पुरुष प्रतिपदम् सृ & धायतिनो नित्यं स योगी योगिनां वर: न 9।

। अष्ट नाम गणपति।
नमो वरतपतये। नमो गणपतये। नमः प्रमथपतये। नमस्तेस्तु वेंडिंगोदरायैकदंताय राय विघ्ननाशिने शिवसुताय। श्रीवरमूर्तये नमो नमः ये १०।

। फलश्रुति।
एतदथर्वशीर्षं योऽधीते। स ब्रह्मभूयय कल्पते य स सर्व तो सुखमेधते।। सभी विघ्नैर्नबाध्यते ध स पंचमहापाप्रप्रीम्यते। सायमंलिकानो दिवसकृतं पापं नाशयति दिवस प्रातरुशलानो रात्रिकृतं पापं नाशयति। तम्परा इत प्रयुंजानो अपापो भवति रा सर्वत्रैनलानोत्रापविघ्नो भवति ।धर्मार्थस्यमोक्षं च विन्दति ऽ इदमथर्वशीर्षमिश्रायै न देयम। यो अगर मोहाद्दास्यति स पापीयान भवति दा सहत्रवर्तनात यं यं काममधीते तं तम्नेन सदायेत त ११। अनेन गणपतिमभिषिंचति स वाग्मी भवति भि चतुर्थ्यमनधनजति स विद्यावन भवति। स यशोवन भवति .इत्यथर्वणवाक्यम भव ब्रह्माद्याचरणं विद्या न नभेति चंचनेति वि १२। यो दूर्वांकुर तर्जति स वैश्रवणोपमो भवति। यो लाज माँजति स यशोवन भवति ति स मधावन भवति। यो मोदकसह्रेण यजति ह स वाञ्चमफलमप्नोति। यः संवयमिभिर्गिर्यजति ि स सर्वं लभते स सर्वं लभते ते १३। अष्टौ ब्राह्मणान सम्यग्ग्राहयित्वा सूर्यवर्चस्वी भवति ।सूर्यगृहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ वा जप्ते। सिद्धान्तो भवति हामहाविघ्नात्प्रिम्यते। महादोष कष्टप्रदायीते ्य महापापत प्राइम्यते। स सर्वविदेसति स सर्वविद्भवति ति य व वेद इत्युपनिषत ्यु १४।

। शान्ति मंत्र मंत्र
ॐ सहववतु। धीरुभुनक्तु ु सह वीर्यं करवावहै ।तेजस्विनाधीतमस्तु मा विद्विषावहै वा ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः। भद्रं पश्यमेक्षक्षिर्यजत्रः। स्थिरारंगैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः। व्यशेम देवितं ययायुः ं ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः तिस्वस्तिनस्तार्क्षो अरिष्टमेनिः। स्वस्ति नोवरित्रधरधातु स्पति ः शांति: शांति: शांति: ः
। इति श्रीगणपत्यथर्वशिष्यं समाप्तम्

सम्पूर्ण कलश स्थापन विधी-2

सर्व प्रथम कलश में रोली से स्वास्तिक (सातिया) बनाकर एवं उसके गले में धागा बाँध कर पूजन स्थान की वाँई ओर अबीर गुलाल से अष्टदल कमल बनाकर उसके मध्य में सप्तधान्य, गेहूँ अथवा चावल रखकर कलश स्थापित करें और पूजन करें।
कलश पूजनम्
कुंकुम से भूमि पर अष्टदल बनाएं, भूमि का स्पर्श करें।
ॐ मही द्यौ: पृथिवी च न ऽइमं यज्ञं मिमिक्षताम । पिपृतान्नो भरीमभि: ॥
कलशे जलपूरणम् :-
ॐ वरुणस्योत्तम्भनमसि वरुणस्य स्कम्भसर्जनी स्त्थो वरुण्स्य ऽऋतसदन्न्यसि वरुणस्य ऽऋतसदनमसि वरुणस्य ऽऋतसदनमासीद ॥

गन्धप्रक्षेप :-
ॐ त्वां गन्धर्वा ऽअखनँस्त्वामिन्न्द्रस्त्वाँ बृहस्पति: । त्वामोषधे सोमो राजा विद्वान्न्यक्ष्मादमुच्च्यत ॥
धान्यप्रक्षेप :-​
ॐ धान्यमसि धिनुहि देवान्प्राणायत्त्वो दानायत्वा व्यानायत्वा । दीर्घानु प्रसतिमायुषेधान्देवोवः सविताहिरण्यपाणिः प्रति गृभ्णात्वच्छिद्रेण पाणिना चक्षुषे त्वा महीनां पयोऽसि ॥
सर्वौषधीप्रक्षेप :-
ॐ या ओषधी: पूर्वा जाता देवेब्भ्यस्त्रियुगं पुरा । मनैनु बब्भ्रूणामह गूं शतं धामानि सप्त च ॥
दूर्वाप्रक्षेप :-
ॐ काण्डात काण्डात्प्ररोहन्ती, परुषः परुषस्परि। एवा नो दूवेर प्र तनु, सहस्त्रेण शतेन च॥
पञ्चपल्लवप्रक्षेप :-
ॐ अश्श्वत्थे वो निषदनं पर्ण्णे वो वसतिष्कृता। गोभज ऽइत्किलासथयत्सनवथ पूरुषम्॥
सप्तमृदाप्रक्षेप :-
ॐ स्योना पृथिवि नो भवानृक्षरा निवेशनी । यच्छा नः शर्म सप्रथाः ॥ अश्वस्थानाद गजस्थानाद वल्मिकात्संगमात्हृदात् । राजग्दाराच्च गोगोष्ठान मृदमानीय निक्षिपेत् ॥
कुशप्रक्षेप :-
ॐ पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ सवितुर्वः प्रसव उत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः। तस्त ते पवित्र पते पवित्रपूतस्य यत्कामः पुने तच्छकेयम्॥
फलप्रक्षेप :-
ॐ या: फलिनीर्या अफला अपुष्पा याश्च पुष्पिणी:। बृहस्पति प्रसूतास्ता नो मुञ्चन्त्व गूं हस:॥
पञ्चरत्नप्रक्षेप :-
ॐ परि वाजपति: कविरग्निर्हव्यान्यक्रमीत । दधद्रत् ॐ नानि दाशुषे ॥
हिरण्यप्रक्षेप :-
ॐ हिरण्यगर्ब्भ: समवर्त्तताग्ग्रे भूतस्य जात: पतिरेक ऽआसीत । स दाधार पृथ्वीं ध्यामुतेमां कस्मै देवायहविषा विधेम ॥
रक्तसूत्रेण वस्त्रेण वा कलशं वेष्टयेत् :-
ॐ सुजातो ज्योतिषा सह शर्मवरूथमासदत्स्वः । वासोग्ने विश्वरूपर्ठ संव्ययस्व विभावसो ॥
कलशस्योपरि पूर्णपात्रं न्यसेत् :-
ॐ पूर्णादर्वि परापत सुपूर्णा पुनरापत । वस्न्नेव विकीर्णावहा इषमूर्ज शतक्रतो ॥ पिधानं सर्ववस्तुनां सर्वकार्यार्थसाधनम्,। संपूर्ण: कलशो येन पात्रं तत्कलशोपरि॥
कलश पर पूर्णपात्र रखें ।
पूर्णपात्रोपरि श्रीफलं नारिकेलं वा न्यसेत् :-
ॐ श्रीश्चते लक्ष्मीश्च पत्न्यावहोरात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि रूपमश्विनौ व्यात्तम । इष्णन्निषाणामुम्मऽइषाण, सर्वलोकम्मऽइषाण ।
पूर्णपात्र पर नारियल रखें।
वरुणमावाहयेत् :-
ॐ तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः । अहेडमानो वरुणेह बोध्युरुश गुं समा न आयुः प्र मोषीः॥
भगवन्वरुणागच्छ त्वमस्मिन कलशे प्रभो । कुर्वेऽत्रैव प्रतिष्टां ते जलानां शुद्धिहेतवे ॥
अस्मिन् कलशे वरुणं सांगाय सपरिवारं सायुधं सशक्तिकमावायामि स्थापयामि । ॐ अपांपतये वरुणाय नम​: । इति पञ्चोपचारैर्वरुणं सम्पूज्य ।
कलशस्थितदेवानां नदीनाम् तीर्थानाम् च आवाहनम् :-
कलाकला हि देवानां दानवानां कलाकला: । संगृह्य निर्मितो यस्मात् क्लशस्तेन कथ्यते ॥ कलश्स्य मुखे विष्णु: कण्ठे रुद्र समाश्रित​:। मूलेत्वस्य स्थितो ब्रह्मा म्ध्ये मातृगणा: स्मृता: ॥ कुक्षौ तु सागर​: सप्त सप्त्द्वीपा च मेदिनी । अर्जुनी गोमती चैव चन्द्रभागा सरस्वती ॥ कवेरी कृष्ण्वेणा च गंगा चैव महानदी । तापी गोदावरी चैव माहेन्द्री नर्मदा तथा ॥ नदाश्च विविधा जाता नद्य​: सर्वास्तथापरा: । पृथिव्यां यानि तीर्थानि कलशस्थानि तानि वै ॥ सर्वे समुद्रा: सरितस्तीर्थानि ज्लदा नदा: । आयान्तु मम शान्त्यर्थं दुरितक्षयकारका: ॥ ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेद​: सामवेदो ह्यथर्वण​: । अंगैश्च सहिता: सर्वे कलशं तु समाश्रिता: ॥ अत्र गायत्री सावित्री शान्ति पुष्टिकरी तथा । आयान्तु मम शान्त्यर्थम दुरितक्षयकारकाः ॥
इन मन्त्रों का उच्चारण कर अक्षत छोड़ते जायें ।
अक्षतान् गृहीत्वा प्राणप्रतिष्ठां कुर्यात् :-
ॐ मनो जूतिर्ज्जुषतामाज्ज्यस्य बृहस्ष्पतिर्य्यज्ञामिमं तनोत्वरिष्टं य्यज्ञ गुं समिमं दधातु। विश्वे देवास ऽइह मादयन्तामो३ प्रतिष्ठ । कलशे वरुणाद्यावाहितदेवता: सुप्रतिष्ठिता: वरदा: भवन्तु । ॐ वरुणाद्यावाहित देवताभ्यो नम​:
कलश पर चावल छोड़कर स्पर्श करें ।
कलशस्य चतुर्दिक्षु चतुर्वेदान्पूजयेत् :-
पूर्वे- ऋग्वेदाय नम​: । दक्षिणे- यजुर्वेदाय नम​: । पश्चिमे- सामवेदाय नम​: । उत्तरे- अथर्वेदाय नम​: । कलशमध्ये अपाम्पतये वरुणाय नम​: ।
कलश के चारों तरफ तथा मध्य में चावल छोड़े ।
षोडशोपचारै: पूजनम् कुर्यात् :-
असनार्थेऽक्षतान समर्पयामि । पादयो: समर्पयामि । हस्तयो: अर्घ्यं समर्पयामि । आचमनं समर्पयामि । पञ्चामृतस्नानं समर्पयामि । शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि । स्नानांगाचमनं समर्पयामि । वस्त्रं समर्पयामि । आचमनं समर्पयामि । यज्ञोपवीतं समर्पयामि । आचमनं समर्पयामि । उपवस्त्रं समर्पयामि । गन्धं समर्पयामि । अक्षतान समर्पयामि । पुष्पमाला समर्पयामि । नानापरिमलद्रव्याणि समर्पयामि । धूपमाघ्रापयामि । दीपं दर्शयामि । हस्तप्रक्षालनम । नैवेद्यं समर्पयामि । आचमनीयं समर्पयामि । मद्ये पानीय उत्तरापोशनं च समर्पयामि । ताम्बूलं समर्प्यामि । पूगीफलं समर्पयामि । कृताया: पूजाया: साद्गुण्यार्थे द्रव्यद्रक्षिणां समर्पयामि । मन्त्रपुष्पाञ्जलिं समर्पयामि । अनय पूज्या वरुणाद्यावाहितदेवता: प्रीयन्तां न मा ।
कलश प्रार्थना :-
देवदानव संवादे मथ्यमाने महोदधौ । उत्पन्नौऽसि तदा कुंभ विधृतो विष्णुना स्वयम ॥१॥ त्वत्तोये सर्वतीर्थानि देवा: सर्वे त्वयि स्थिता: । त्वयि तिष्ठन्ति भूतानि त्वयि प्राणा: प्रतिष्ठता: ॥२॥ शिवः स्वयं त्वमेवासि, विष्णुस्त्वं च प्रजापतिः । आदित्या वसवो रुद्रा, विश्वेदेवाः सपैतृकाः ॥३॥ त्वयि तिष्ठन्ति सर्वेऽपि, यतः कामफलप्रदाः । त्वत्प्रसादादिमं यज्ञं, कर्तुमीहे जलोद्भव । सान्निध्यं कुरु मे देव! प्रसन्न भव सर्वदा ॥४॥ नमो नमस्ते स्फटिक प्रभाय सुश्वेतहाराय सुमंगलाय । सुपाशहस्ताय झषासनाय जलाधनाथाय नमो नमस्ते ॥ ॐ अपां पतये वरुणाय नमः । ॐ वरुणाद्यावाहित देवताभ्यो नमः। ​ अनया पूजया कलशे वरुणाद्यावाहितदेवता: प्रीयन्ताम्..
॥इति॥

सम्पूर्ण पुण्यवचन विधी -3
यह आवश्यक नहीं की वरुण कलश से ही पुण्यवचन किया गया, अलग से एक मिट्टी, तांबा, स्टॉकडी के कलश में जल भरकर व वरुण कलश के साथ ही पूजा करके पुण्यवचन किया जा सकता है। पुणवचनके दिन आरम्भें वरुण-कलशके पास जलसे भर एक कलश भी रख दें। वरुण-कलशके पूजनके साथ-साथ इसका भी पूजन करें। पहले वरुण प्रार्थना करें।

वरुण-प्रार्थना-
ॐ पाशपाणे नमस्तुभ्यं पद्मिनीनिनायक। पुण्यवचनं या तत् तावत त्वं सुस्थिरो भव ं
यजमान अपनी दाहिनी ओर पुण्यवचन-क्रमके लिये वरण किए हुए संयोजन ब्राह्मणोंको, जिनके मुख उत्तर की ओर हो, बैठा ले। इसके बाद यजमानने टेककर कमलाकर अपने अँगुलियों को फैलाकर उसमे कलश रखें और उसे अपने सिरसे लगाकर तीन बार प्रणाम करे। आचार्य मंत्र बोले यजमान आशीर्वाद मांगे-
यजमान- ा दीर्घा नागा नद्यो गिरयस्त्रिनि विष्णुपदनि च। तेनायु: प्रमाणेन पुण्यं पुण्यं दीर्घमायुरश्च ेन
ब्राह्मण- कालमायुरस्तु।
यजमान- ा काल नागा ।।
ब्राह्मण- कालमायुरस्तु।
यजमान- ा काल नागा ।।
ब्राह्मण- कालमायुरस्तु।
यजमान- ां अपण मध्ये स्थिता देवा: सर्वमप्सु रिपोर्टिंगतम्। ब्राह्मणं करे न्यस्ता: शिवा आपो भवन्तु न: ं
ॐ शिवा आप: सन्तुष्ट। यह कहकर यजमान ब्राह्मणों के हाथ जल जल दे।
ब्राह्मण- सन्तु शिवा आप:।
यजमान- (पुष्प) लक्ष्मीर्वसति पुष्पेषु लक्ष्मीर्वसति पुस्करे। सा मे वसतु व्ह्य नित्यं सौमनस्यं सदास्तु मे व् सौमनस्यमस्तु।
ब्राह्मण- सौअस्तु सौमनस्यम् ’
यजमान- (अक्षत) अक्षतं चास्तु मे पुण्यं दीर्घमायुर्यशोबलम्। भंगच्छ्रेयस्करं लोके तत्तदस्त सदा मम ं अक्षतं चारिष्टं स्रष्टा।
ब्राह्मण- अस्वत्क्षक्षामृतं च '।
ऐसा बोलकर ब्राह्मण अक्षतको स्वीकार किया गया। इसी प्रकार आगे यजमान ब्राह्मणोंके हाथोंमें चन्दन, अक्षत, पुष्प आदि देता जाता है, और ब्राह्मण आपको स्वीकार करते हैं यजमानकी मङ्गल कामना करें।
यजमान- (चन्दन) गन्धाः पांतु।
ब्राह्मण- सौमङ्गल्यं स्रस्तु।
यजमान- (अक्षत) अक्षता: पांतु।
ब्राह्मण- आयुष्यमस्तु।
यजमान- (पुष्प) पुष्पाणि पंतु।
ब्राह्मण- सौश्रियम।
यजमान- (सुपारी-पान) उत्तराम्बुलि पंतु।
ब्राह्मण- ऐश्वर्यामस्तु।
यजमान- (दक्षिणा) दक्षिणाः पांतु।
ब्राह्मण- बहुदेय ऋतु।
यजमान- (जल) पुनर्त्रऽऽप: पांतु।
ब्राह्मण- सुचित्तमस्तु।
यजमान- (हाथ जोड़कर) दिर्घमायुः शान्तिः पुष्टिस्ततुः श्रीर्यशो विद्या विन्यो वित्तं बहुपुत्रं बहुधनं चायुष्यं स्वस्त।
ब्राह्मण- थातथास्तुऽ ाय दीर्घमायुः शान्तिः पुष्टुश्चैव।
ऐसा कहकर ब्राह्मण यजमानके सिरपर कलशका जल छिड़ककर निम्नलिखित वचन बोलकर आशीर्वाद दें-
यजमान- (अक्षत संबंधी) यंशिष्ठ सर्ववेद-यज्ञ-क्रिया-कर्मारम्भाः शुभाः शोभनाः प्रवर्तन्ते तमहमोङकारामादिन कृत्, ऋग-यजुः - डाउनलोड-ऽथर्वास्जीविर्वचनं बहुऋषिमतं समनुत्तनं बलिष्ठुभक्तिः।
ब्राह्मण- वाच्यताम्।
ऐसा कहकर निम्नलिखित मन्त्रोंका पाठ करे -
दोतु स्वस्ति ते ब्रह्मा स्वस्ति चािजपि द्विजातयः। सरीसृपाश्च ये श्रेष्ठास्तेभ्यस्ते स्वस्ति सर्वदा श्च ययातिर्नुशश्चैव धुन्धुमारो भगीरथः। तुभ्यं राजर्षयः सर्वे स्वस्ति कुर्वन्तु ते सदा राज स्वस्ति तेतुस्तु द्विपादेभ्यश्चतुष्पादेभ्य एव च। स्वस्त्यस्मितपादकेभ्यश्च सर्वेभ्यः स्वस्ति ते सदा पाद स्वाहा स्वधा शची चैव स्वस्ति कुर्वष ते सदा। दोतु स्वस्ति वेदादिर्नित्यं तव महामेक ति लक्ष्मीररुन्धती चैव कुरुतां स्वस्ति तेघघ। असितो देवलश्चैव विश्वामित्रस्तथागगिराः श्च वसिष्ठ: कश्यपश्चैव स्वस्ति कुर्वन्तु ते सदा। धता विधाता लोकेशो दलचर सदिगीश्वरा: ता स्वस्ति तेद्य्या प्रयच्छन्तु कार्तिकेयश्च ञ्ञ्मुखः। विवस्वान् भगवान् स्वस्ति कतोतु तव सर्वदा ् इंदगजाश्चैव चत्वार: विनिश्च गगनं ग्रहा: अधीद् धरणीं चाऽसौ नागो धारयते हि यः ी शेष पन्नगश्रेष्ठ: स्वस्ति तुभ्यं प्रयच्छतु।
ॐ द्रविणोदाः पिपिशति जुहोत प्रचंडित। नृतत्त्रुभिरिष्यत भ सविता त्वा सवाना गुं सुवतामग्निर्गत्पतिति गुं सोमो वनस्पतीनाम। बृहस्पतिर्वाच इन्द्रो ज्यैष्ठय रुद्रः पशुभ्यो मित्रः सत्यो वरुणो धर्मपद नाम इन् न तद्रक्षा गुं सि न वचत्तन्ति देवानामजः प्रथमज गुं ह्यतत। यो बिभर्ति दाक्षायण गुं हिरण्य गुं स देवेषु कृमिर्ते लम्मायुः स मनसुख कृमिते दीर्घमायुः। उच्चा ते जान्मन्धसो दिविसृग्यम्यदे। उग्र गुंममहिश्रव: ह उपास्मै गायता नरः अभिमानयेन्दवे। अभि देववन २ इयक्षते।
यजमान- व्रतजपनियमतप: स्वाध्यायक्रतुश्मदमदयान्नविशिष्टानांश्वरवचनं ब्राह्मणां मनः समाधिताम्।
ब्राह्मण- समाहितमानसः स्मः।
यजमान- प्रसीदन्तु भवन् तो।
ब्राह्मण- प्रसन्नाः स्मः।
इसके बाद यजमान पहले से रखे गये दो सकोरोंमेसे पहले सकोरेमेंट आमके पल्लव या दूबसे थोड़ा जल कलश सेलेट्स और ब्राह्मण बोलते जाते हैं -
पहले पात्र (फकोर) में- ्ति शान्तिरुस्त। ॐ पुष्टिरस्तु। ॐ तुष्टिरस्तु। ॐ वृद्धिरस्थ। ॐ अविघ्नमस्त। ॐ आयुधाम ॐ आरोग्यमस्तु ोग शिवमस्तु। ॐ शिवन करमस्त ॐ कर्म समृद्धिरस्तु। ॐ धर्म समीरस्थान ॐ वेद समृद्धिरस्तु ॐ शास्त्रमृद्धिरस्तु। धनधान्य समृद्धिरस्तु। ॐ सोनपौत्रसमृद्धिरस्तु। ॐ कल्पनासंपाद।
दूसरे पात्र (सकोरे) में- ( अरिष्टनिरसनमस्तु। ॐ यत्पापं रोगोऽशुभमकल्याणं दूर दूरे प्रतिहमास्तु।
फिर से पहले पात्र में -ॐ यच्छ्रेयस्तदस्तु। ॐ उत्तरे कर्मनि विघ्नमस्तु। ॐ उत्तरोत्तर महरभिवृद्धिरिस्त। ॐ उत्तरोत्तराः क्रियाः शुभाः शोभनाः संपद्यन्ताम्। ॐ तिथि करण मुहुर्त नक्षत्र संप्रदाय। ॐ तिथि करण मुहुर्त नक्षत्र ग्रह लग्नादि देवताः प्रीयन्ताम्। ॐ तिथिकरणेमुहुर्तनक्षत्रे सग्रहे सलग्ने साधिदैवते प्रीयते।। ॐ दुर्गा पांचाल्यो प्रीयताम। ॐ अग्निपुरोगा विश्वेदेवाः प्रीयन्ताम्। ॐ इंद्रपुरोग मरुद्गनाः प्रीयन्ताम्। ॐ वसिष्ठ प्रोगा ऋषिगणः प्रीयतेताम्। ॐ माहेश्वरी प्रोगा उमा मातरः प्रीयतेताम्। ॐ अरुंधति पुरोगा एकपेदन्यः प्रयुन्ताम्। ॐ ब्रह्म पुरोगा डेवलपर वेदा: प्रीयंताम। ॐ विष्णु पुरोगा डेवलपर देवाः प्रयुन्ताम्। ॐ ऋषयशचंदास्यचार्य वेदा देवा यज्ञश्च प्रीयताम। ब्रह्म च ब्राह्मणश्च प्रीयन्ताम्। ॐ श्रीसरस्वत्यौ प्रीयतेम। ॐ श्रद्धामेधे प्रीयतेम। ॐ भगवती कात्यायनी प्रीयताम। ॐ भगवती माहेश्वरी प्रीयताम। ॐ भगवती पुष्टिकरी प्रीयताम। ॐ भगवती तुष्टिकरी प्रीयताम। भगवती व ऋद्धिनिकरी प्रीयताम। भगवती वृद्धिकरी प्रीयेताम। ॐ भगवंतौ विघ्नविनायकौ प्रीयतेताम्। सर्वः कुलदेवताः प्रीयन्ताम्। सर्व ग्रामदेवताः प्रीयन्ताम्। ॐ सर्वदेवदेवताः प्रीयन्ताम्।
अन्य पात्र में- श्‍पेरिच ब्रह्मवर्दिषः। ॐपेजचच पैटर्निनिन:। ॐपेरिच कर्मणो विघ्नकर्तारः। ॐ शत्रव: पराभवं या लेकिन। ॐ शाम्यंतु वराणी। ॐ शाम्यंतु पापिन। ॐ शाम्यंतवीतय ॐ शाम्यन्तूपद्रवा: ूप
पहले पात्र में- ानि शुभ मुहूर्त ॐ शिवा आप:। ॐ शिवा ऋतव:। ॐ शिवा ओशधयः। ॐ शिवा वनस्पतयः। ॐ शिवा नीतियः। ॐ शिवा अग्नयः। ॐ शिवा आहुतयः। ॐ अहोरात्रे शिवे तत्त्वम्।
ॐ निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम् मे ॐ शुक्रांगारक बुध बृहस्पति शनैश्चर राहु केतु सोम सहितादित्य पुरोगा डेवलपर ग्रहा: प्रीयन्ताम। ॐ भगवान नारायणः प्रीयताम्। ॐ भगवान पर्जन्यः प्रीयताम्। ॐ भगवान स्वामी महासेन: प्रीयताम्। ॐ पुरो्यनुवाक्यय यत्पुरण्यं तस्तु। ॐ याज्य यत्पुण्यं तस्तु। ॐ वशट्कारेण यत्पुरण्यं तस्तु। ॐ प्रात: सूर्योदय यत्पुण्यं तस्तु।
इसके बाद यजमान कलश को कलश के स्थान पर रखने से पहले पात्र में गिराये गये जल से मार्जन करे। परिवार के लोग भी मार्जन करें। इसके बाद इस जल को घर में चारों ओर छिड़क दे। द्वितीय पात्र में जो जल गिराया गया है, उसको घरसे बाहर एकान्त स्थानों पर गिरा दे।
अब यजमान हाथ जोड़कर ब्राह्मणोंसे प्रार्थना करे -
यजमान- त एतत्कल्याणितं पुण्यं पुण्यं वसुधान्ये।
ब्राह्मण- देखनीयता।
इसके बाद यजमान फिरसे हाथ जोड़कर प्रार्थना करे -
यजमान- ाह ब्राह्मण पुण्यमहरिचो शस्त्रुत्सकर्कम्।
( पहली बार) वेदवृक्षोद्भवं नित्यं तत्पुराणं ब्रुवन्तु नः द भो ब्राह्मणः। मम सकुटुम्बासि सपरिवारस्य गृहे करिह्यमानस्य अमुक्रीमणः पुण्यं भवन्तो ब्रूघाति।
ब्राह्मण- ्या पुण्यम।
यजमान- भो ब्राह्मणः। मम ... करिह्यमानस्य अमुकिर्मनः
( दूसरी बार) पुण्यं भवन्तो ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- ्या पुण्यम।
यजमान- भो ब्राह्मणः। मम ... करिह्यमानस्य अमुकिर्मनः
( तीसरी बार) पुण्यं भवन्तो ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- ्या पुण्यम।
ॐ पुनिः मा देवजनाः पुन्य मनसा धियः। पुन: विशावा भूतनी जातवेद: पुन्निह मा वा
यजमान- पृथिव्यामुद्धृक्षितं तु यत्कल्याणं पुरा कृतम्।
( पहली बार) ऋषिभिः सिद्धगन्धर्वैस्तकल्याणं ब्रुवन्तु नः षि भो ब्राह्मणः। मम सकुटुम्बासि सपरिवारस्य गृहे करिह्यमानस्य अमुक्रीमणः कल्यं भवन्तो ब्रुव।
ब्राह्मण- म कालम।
यजमान- भो ब्राह्मणः। मम सकुटुम्बासिस सपरिवारिस गृहे
( दूसरी बार) करिष्यमानस अमुकिंद्रन: कल्याणं भवन्तो ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- म कालम।
यजमान- भो ब्राह्मणः। मम सकुटुम्बासिस सपरिवारिस गृहे
( तृतीय बार) करिष्यमानस्य अमुक्रीमणः कलं भवन्तो ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- म कालम।
ॐ तदनन्तर वाचं कल्यान्नमावनि जनेभ्यः। ब्रह्मराजन्यभ्युद्राय चराय च स्वाय चारणाय च। प्रियो देवानां दक्षिणायै दातुरिह भूयासमय मे कामः प्रतिभाव्यतामुप मादो नातु।
यजमान- स्य सागरस्य तु या ऋद्धिर्महल्याद्यभिः कृताः।
( पहली बार) सम्पूर्णा सुप्रभावा च तामृद्धिं प्रबुवन्तु नः ूर्ण भो ब्राह्मणः। मम सकुटुम्बस सपरिवारवासी गृहे करिह्यमानस्य अमुक्रीमनः ऋद्धिं भवन्तो भवति।
ब्राह्मण- द्ध ऋद्धिशीलताम।
यजमान- भो ब्राह्मणः। मम सकुटुम्बासिस सपरिवारिस गृहे
( दूसरा समय ) करिष्यमानस्य अमुक्रीमनः ऋद्धिं भवन्तो ब्रुव।
ब्राह्मण- द्ध ऋद्धिशीलताम।
यजमान- भो ब्राह्मणः। मम सकुटुम्बासिस सपरिवारिस गृहे
( तृतीय बार) करिष्यमानस्य अमुक्रीमनः ऋद्धिं भवन्तो ब्रुव।
ब्राह्मण- द्ध ऋद्धिशीलताम।
ॐ सत्रस्य ऋद्धिरस्यगन्म ज्योतिर्मृता अभुम्। दिव्य पृथिव्या अध्याऽरुहामाविदम् देवान्त्स्वर्ज्योतिः ऽ
यजमान- स् स्वस्तिस्थ या शाविनाशाचक पुण्यकल्याणवृद्धिदा।
( पहली बार) विनायकप्रिया नित्यं तां च स्वस्तिन ब्रुवन्तु नः यक भो ब्राह्मणः। मम सकुटुम्बासि सपरिवारस्य गृहे करिह्यमानय अमुक्रीमने स्वस्ति भवन्तो ब्रूव।
ब्राह्मण- ष्म आयुष्ठते स्वस्ति।
यजमान- भो ब्राह्मणः! मम सकुटुम्बासिस सपरिवारिस गृहे
( दूसरी बार) करिष्यमानय अमुक्रीमने स्वस्ति भवन्तो ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- ष्म आयुष्ठते स्वस्ति।
यजमान- भो ब्राह्मणः। मम सकुटुम्बासिस सपरिवारिस गृहे
( तृतीय बार) करिष्यमानय अमुक्रीमने स्वस्ति भवन्तो ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- ष्म आयुष्ठते स्वस्ति।
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा: स्वस्ति नः पूषा विश्‍ववेदाः। स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।
यजमान- म समुद्रमठना मैदानता जगदानन्दकारिका।
( पहली बार) हरिप्रिया च माङ्गल्या तां श्रियं च ब्रुवन्तु नः िप भो ब्राह्मणः। ममस्कुटुम्बिस सपरिवारवासी गृहे करिह्यमानस्य अमुक्रीमनः श्रीरुस्त इति भवन्तो ब्रुव।
ब्राह्मण- स्तु अस्तु श्रीः।
यजमान- भो ब्राह्मणः। मम सकुटुम्बासिस सपरिवारिस गृहे
( दूसरे समय ) करिष्यमानस अमुकिर्मन: श्रीरुति इति भवन्तो ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- स्तु अस्तु श्रीः।
यजमान- भो ब्राह्मणः। मम सकुटुम्बासिस सपरिवारिस गृहे
( तृतीय बार) करिष्यमानस अमुकिर्मन: श्रीरुति इति भवन्तो ब्रुवन्तु।
ब्राह्मण- स्तु अस्तु श्रीः। ॐ श्रीरीच ते लक्ष्मीर्यच पत्तीभूतहोरात्रे पार्श्वे नक्षत्रानि रूपमूर्तिविनौ व्यामतम्। इस्न्निषनानामुं म इशाण सर्वलोकं म इषान ान
यजमान- क मृकण्डुनोरायुर्यध ध्रुवलोमिषोस्तथा। आयुषा तेन संयुक्ता जीवेम शरण: शम सं
ब्राह्मण- त शतं जीवंतु भवन्तः। ॐ शतमिन्नु सजो अन्ति देवा यत्र नश्यच्छ जरं तनु नाम। पुरावसो यत्र पित्रो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तो: त्र
यजमान- ग शिवगौरीविवाहे या श्रीरामे नृपत्जे। धनदस्य गृहे या श्रीरस्माकं सः शनिमनी या
ब्राह्मण- स्तु अस्तु श्रीः।
ॐ मनसः काममाकांतिं वाचः सत्यमशीये। पशूना रूपमन्नस रसो यशः श्रीः श्रयतां मय स्वाहा म
यजमान- प्रजापतिर्लोकपालो धता ब्रह्मा च देवराट। भगवञ्चचरतो नित्यं नो वै रक्षतु सर्वतः श्‍
ब्राह्मण- प्र भगवान् प्रजापतिः प्रीयताम्।
ॐ प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्नवा रूपाणि परि ता बभूव। यत्कमास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वय ​​स्याम पतयो रयणम जु
यजमान - आयुष्मते स्वस्तिमते यजमानय दाशुषे। श्रिये दत्ताशिष: सन्तु ऋत्विग्गरीवृद्ध पापगै: ष देवेन्द्रस्य यथा स्वस्ति यथा स्वस्तिगुरोर्गृहे। एकलिष्ठः यथा स्वस्ति और स्वस्ति सद मम ः
ब्राह्मण- ष्म आयुष्ठते स्वस्ति।
ॐ प्रति पृष्ठपपद्महि स्वस्तिगामनेहम्।
येन विश्‍वा: परिधि द्विषो वृणक्ति विन्दते वसु परि
ॐ पुण्यवचनमृद्धिरस्तु वा
यजमान- अस्मिन पुण्य चावचने न्यूनातिरिक्तो यो विधिरुपविष्टब्राह्मणानां शरणं
श्रीमहागणपतिप्रसादो परिपूर्णोऽस्तु।
दक्षिणाका संकल्प - कृतस्य पुण्स्वच्छिमनः समृद्ध्यर्थं पुण् चावचकेभ्यो ब्राह्मणेभ्य इमां दक्षिणं विभजं विभूति अहं दास्ये।
ब्राह्मण- ति स्वस्ति।

अभिषेक
पुणवाचनोपरान्त कलशके जलको पहले पात्र गिरा ले। अविधुर ब्राह्मण उत्तर या पश्चिम मुख वाले दूब और पल्लव के द्वारा इस जल से यजमान का अभिषेक करें। अभिषेक के समय यजमान अपनी पत्नीको बायीं ओर कर ले। परिवार भी वहाँ बैठते हैं। अभिषेक के मन्त्र निम्नलिखित हैं-
ॐ पय: पृथिव्यां पय ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः। पयस्वती: प्रदिश: सन्तु मह्यम् प्रद
म पञ्च नद्यः सरस्वतीपि यन्ति सस्त्रोत:। सरस्वती तु पञ्चाधा सो देशे भवत्सरित् ञ
ॐ वरुणिसोत्तम्भनमसि वरुणस्य स्कम्भसर्जनी स्थो वरुणस्य ऋतत्स्नमा सीद स्य
ॐ पुनि म् देवजनः पुन्य मनसा धियः। पुन: विश्वा भूतनी जातवेद: पुनीही मा।
ॐ देवस्य त्वा सवितु: प्रसवेिनोश्विनोर्बहुभ्यं कृष्णो भवभय। सर्वस्वत्यै वाचो यन्तुर्यन्त्रये धामि बृहस्पतेष्ट्वा साम्राज्येनाभिषिञ्चाम्यसौ।

ॐ देवस्य त्वा सवितु: प्रसवेिनोश्विनोर्बहुभ्यं कृष्णो भक्षम्। अश्विनोर्भैषज्येन तेजसे ब्रह्मवर्चसैबली ऋषिचमि सर्वस्वत्यै भैषज्येन वीरयंगनाद्याबली ऋषिचचमीन्द्रस्येन्द्रयेण बानय श्रियै यशसेऽभि षिञ्चामि। ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव। यृगद्रं तन्न आ सुव न्न ब्रह धामच्छदग्निरिन्द्रो ब्रह्मा देवो बृहस्पतिः। चेतसो विश्वे देवा यज्ञं उपन्तु नः शुभे े
द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष ग्वंग शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरो षधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व ग्वंग शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधी शान यतो य तो समीहसे ततो नो अभय कुरु। शन्नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभयः प्र सुशान्तिर्भवतु।
दक्षिणादान - ...ate ... कृतैतपुराण नववचनमरण: साड़्गतासिद्ध्यर्थं तत्सम्पूर्णफलप्रतिथं च पुण् चावचकेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो यस्यापि मनसोद्भवं दक्षिणं विभजं दातुमहुमत्सृजे।
। इति।
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सम्पूर्ण षोडशमातृका-पूजन विधी -4
या श्री: स्वयं सु इंस्टनां भवनेष्व लक्ष्मी:, पापात्मना कृतधियाँ हृदयेषु बुद्धिः।
श्रद्धा सतां कुलजन प्रिवेसीस लाज, तां त्वां नता: स्मृतल देविविशं च।
षोडशमातृका-चक्र
आवाहन और स्थापन
ॐ गणपतये नम:, गणपतिमावाहयामि, स्थापयामि।
ॐ गौर्यै नमः, गौरीमावाहयामि, स्थापयामि।
ॐ पद्मायै नम:, पद्मामावाहयामि, स्थापयामि।
ॐ शच्यै नम:, शचिमावाहयामि, स्थापयामि।
ॐ मेधायै नम:, मेधामावाहयामि, स्थापयामि।
ॐ सावित्र्यै नमः, सावित्रीमायाम्यै, स्थापयामि।
ॐ विजयायै नमः, विजयामायाम्यै, स्थापयामि।
ॐ जयायै नमः, जयामावाहयामि, स्थापयामि।
ॐ देवसेनायै नमः, देवसेमावाहयामि, स्थापयामि।
ॐ स्वधायै नम:, स्वधामावाहयामि, स्थापयामि।
ॐ स्वाहायै नमः, स्वाहामायायामि, स्थापयामि।
ॐ मातृभ्यो नम:, मातॄः आवाहयामि, स्थापयामि।
ॐ लोकमातृभ्यो नमः, लोकमाता आ: आवाहयामि, स्थापयामि।
याम धृत्यै नम:, धृतिमावाहयामि, स्थापयामि।
याम पुष्ट्यै नम:, पुष्टिमावाहयामि, स्थापयामि।
ॐ तुष्ट्यै नम :, तुष्टिमायाम्यै, स्थापयामि।
ॐ आत्मन: कुलदेवतायै नम:, आत्मन: कुलदेवतामावाहयामि, स्थापयामि।
प्रतिष्ठा: -
ॐ मनो जुतिग्रुषता माज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं तनोत्वरिष्टं यज्ञं समिमं धधातु। विश्वे देवास इह मादयन्तामो ३ रिटर्न ह
प्रार्थना: -
गौरी पद्मा शची मेधा सावित्री विजया जया देवसेना स्वधा स्वाहा मातरो लोकमातर: हा धृतिः पुष्टिस्तथा तुष्टिरामनः कुलदेवता। गणेशेनाधिका हयता वृद्धौ पूज्यास्तु षोडश िका
.इति।
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वैदिक शिव-पूजा


ध्यान- ध्यायेनित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं, रत्नाकलोज्ज्वलांगं परशुमृगवराभीति हस्तं प्रसन्नं।

पद्मासीनं समन्तात स्तुतममरगणै र्व्याघ्रकृत्तिं वसानं, विश्वाद्यं विश्वबीजं निखिलभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम्॥


सद्योजात-स्थापन

पश्चिमं पूर्णचन्द्राभं जगत सृष्टिकरोज्ज्वलम, सद्योजातं यजेत सौम्य मन्दस्मित मनोहरम॥


वामदेव स्थापन

उत्तरं विद्रुमप्रख्य विश्वस्थितिकरं विभुम, सविलासं त्रिनयनं वामदेवं प्रपूजयेत॥


अघोर स्थापन

दक्षिणं नील नीमूतप्रभं संहारकारकम, वक्रभू कुटिलं घोरमघोराख्यं तमर्चयेत॥


तत्पुरुष स्थापन

यजेत पूर्वमुखं सौम्यं बालर्क सदृशप्रभम, तिरोधानकृत्यपर रुद्रं तत्पुरुंषभिधम॥


ईशान स्थापन

ईशानं स्फ़टिक प्रख्य सर्वभूतानुकंपितम, अतीव सौभ्यमोंकार रूपं ऊर्ध्वमुखं यजेत॥
ॐ उमामहेश्वराभ्यां नम: श्यानं समर्पयामि॥


आसन

ॐ या ते॑ रुद्र शि॒वा त्॒नूरघो॒राऽपा॑पकाशिनी । तया॑ नस्त॒न्वा शन्त॑मया॒ गिरि॑श्न्ता॒भि चा॑कशीहि ॥
विश्वात्मने नमस्तुभ्यं चिदम्भरनिवासिने॥ रत्नसिंहासनं चारो ददामि करुणानिधे॥
ॐ उमामहेश्वराभ्यां नम: आसनार्थ पुष्पं समर्पयामि॥
फ़ूल चढायें।


पाद्य

ॐ यामिषुं॑ गिरिशन्त॒ हस्ते॑ बि॒भर्ष्यस्त॑वे । शि॒वां गि॑रित्र॒ तां कु॑रु॒ मा हि॑ गुं सी॒: पुरु॑षं॒ जग॑त्॥
ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: पादयो: पाद्यं समर्पयामि॥ 
चरणों में जल अर्पित करें।


अर्घ्य

ॐ शि॒वेन॒ वच॑सा त्वा॒ गिरि॒शाच्छा॑ वदामसि । यथा॑ न॒: सर्व॒मिज्जग॑दय॒क्ष्म गुं सुमना॒ अस॑त्॑॥
अनर्घफ़लदात्रे च शास्त्रे वैवस्वतस्य च । तुमयर्मध्य प्रदास्यामि द्वादशान्त निवासिने ॥
ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: हस्तयोर्घ्य समर्पयामि ॥
अर्घ्य पात्रं में गन्धाक्षत पुष्प के साथ जल लेकर चढावें ॥


आचमन

ॐ अध्य॑वोचदधिव॒क्ता प्र॑थ॒॒मो दैव्यो॑ भि॒षक । अही॑श्च सर्वा॑ञ्ज॒म्भय॒न्त्सर्वा॑श्च यातुधा॒न्यो॒ऽध॒राची॒: परा॑ सुव॑ ॥
ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: आचमनीयम जलं समर्पयामि ॥
छ: बार आचमन करावें


स्नान

ॐ अ॒सौ यस्ता॒म्रो अ॑रु॒ण उ॒त ब॒भ्रु: सु॑म॒ड़्गल॑:। ये चै॑न गुं रु॒द्रा अ॒भितो॑ दि॒क्षु श्रि॒ता: स॑हस्र॒शोऽवै॑षा
गुं हेड॑ ईमहे ॥
गंगाक्लिन्नजटाभारं सोमसोमाधशेखर ॥ नद्या मया समानेतै स्नानं कुरु महेश्वर:।
ऊँ उमामहेश्वराभ्याम नम: स्नानीयं जलं समर्पयामि। स्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि॥
घन्टावादन करें और स्नान करवायें॥


पय स्नान (दूध से स्नान)

ॐ पय: पृथिव्यां पय ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धा:। पयस्वती: प्रदिश: सन्तु मह्यम्॥
ऊँ उमामहेश्वराभ्याम नम: पय: स्नानं समर्पयामि। पय स्नानान्ते आचम्नीयम समर्पयामि॥


दधि स्नान

ॐ दधिक्राव्णो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिन: । सुरभि नो मुखा करत्प्र ण आयू गुं षि तारिषत ॥
ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: दधि स्नानं समर्पयामि। दधि स्नानान्ते आचमनीयं समर्पयामि॥


घृतस्नान

ॐ घृतं मिमक्षे घृतमस्य योनिर्घृते श्रितो घृतम्वस्य धाम। अनुष्वधमा वह मादयस्व स्वाहाकृतं वृषभ वक्षि हव्यम्॥
ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: घृतस्नानम समर्पयामि। घृतस्नानान्ते शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।
शुद्धोदक स्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।
पहले घी से फ़िर जल से स्नान करवायें।


मधुस्नान

ॐ मधुव्वाता ऋतायते मधुक्षरन्ति सिन्धव:। माधवीर्न: सन्त्वोषधी:।
मधुनक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिव गुं रज:। मधुद्यौरस्तु न: पिता।
मधुमान्नो। वननस्पतिर्मधमाँ२ अस्तु सूर्य:। माध्वीरर्गावो भवन्तु न:।
ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: मधुस्नानं समर्पयामि। मधुस्नानान्ते शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।
शुद्धोदक स्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।
पहले शहद से फ़िर जल से स्नान करवायें।


शर्करास्नान

ॐ अपा गुं रसमुद्धयस गुं सूर्ये सन्त गुं समाहितम।अपा गुं रसस्य यो रसस्तं वो गृह्णाम्युत्तममुपयामगृहीतो ऽसीन्द्राय त्वा जुष्टं गृह्णाम्येष ते योनिरिन्द्राय त्वा जुष्टतमम्।
ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: शर्करास्नानं समर्पयामि। शर्करास्नानान्ते शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।
शुद्धोदक स्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।
पहले चीनी फ़िर जल से स्नान करवायें।


पंचामृत स्नान

ॐ पञ्च नद्य: सरस्वतीमपि यन्ति सस्रोतस:। सरस्वती तु पञ्चधा सो देशेभवत्सरित॥
ॐ उमामहेश्वराभ्याम पंचामृतस्नानं समर्पयामि। पंचामृतस्नानन्ते शुद्धोदक स्नानम समर्पयामि।
शुद्धोदक स्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।
पहले पंचामृत से स्नान करवाये फ़िर जल से स्नान करवायें।


गन्धोदक स्नान

ॐ गन्धद्वारा दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम। ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वेयेश्रियम।
मलयाचल सम्भूतं चन्दगारूरंभवम। चन्द्रनं देवदेवेश स्नानार्थ प्रतिगृह्यताम।
ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: गन्धोदकस्नानं समर्पयामि। गन्धोदक स्नानान्ते शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।
पहले गुलाबजल से फ़िर जल से स्नान करवायें।

शुद्धोदक स्नान
ॐ शुद्धवाल: सर्वशुद्धवालो मणिवालस्त आश्विना:। श्वेत: श्येताक्षौरुणस्ते रुद्राय पशुपतये कर्णा यामा अवलिप्ता रौद्रा नभोरूपा: पार्जन्या॥
ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।
शुद्धोदक स्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।
घंटावादन करके जल से स्नान करवायें फ़िर आचमन करवायें।


॥ रुद्रसूक्त॥

शुद्ध जल, गंगा जल अथवा दुग्धादि से निम्न मन्त्रों का पाठ करते अभिषेक करें।
॥हरिः ॐ॥ नमस्ते रुद्द्र मन्न्यव ऽउतो त ऽइषवे नमः। बाहुब्भ्यामुत ते नमः॥१॥ या ते रुद्द्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी। तया नस्तन्न्वा शन्तमया गिरिशन्ताभि चाकशीहि॥२॥ यामिषुङ्गिरिशन्तहस्ते बिभर्ष्ष्यस्तवे। शिवाङ्गिरित्रताङ्कुरु मा हि ಆ सीः पुरुषञ्जगत॥३॥ शिवेन व्वचसा त्त्वा गिरिशाच्छा व्वदामसि। यथा नः सर्व्वमिज्जगदयक्ष्म ಆ सुमना असत ॥४॥
अध्यवोचदधिवक्क्ता प्प्रथमोदैव्व्योभिषक्। अहीँश्च्च सर्व्वाञ्जभयन्त्सर्व्वाश्च्च यातुधान्न्योऽधराचीः परा सुव॥५॥ असौयस्ताम्म्रोऽअरुणऽउतबब्भ्रुः सुमङ्गलः। येचैन ಆ रुद्द्राऽअभितोदिक्षुश्रिताः सहस्रशोऽवैषाಆ हेडऽईमहे॥६॥ असौ योऽवसर्प्पति नीलग्ग्रीवो व्विलोहितः। उतैनङ्गोपा अदृश्श्रन्नदृश्श्रन्नुदहार्य्यः स दृष्टो मृडयाति नः॥७॥ नमोऽस्तु नीलग्ग्रीवाय सहस्राक्षाय मीढुषे। अथो ये अस्य सत्त्वानोऽहं तेभ्योऽकरं नम:॥८॥ प्प्रमुञ्च धन्न्वनस्त्वमुभयोरार्त्क्ज्याम्। याश्च ते हस्त इषवः परा ता भगवो व्वप॥९॥ व्विज्ज्यन्धनुः कपर्द्दिनो व्विशल्ल्यो बाणवाँ२ उत। अनेशन्नस्य या इषव आभुरस्य निषङ्गधिः॥१०॥ या ते हेतिर्म्मीढुष्ट्टम हस्ते बभूव ते धनुः। तयाऽस्मान्विश्वतस्त्वमयक्ष्मया परि भुज॥११॥ परि ते धन्न्वनो हेतिरस्म्मान्न्व्वृणक्तु व्विश्श्वतः। अथो य इषुधिस्तवारे अस्म्मन्निधेहि तम॥१२॥ अवतत्त्य धनुष्ट्व ಆ सहस्राक्ष शतेषुधे। निशीर्य्य शल्ल्यानाम्मुखा शिवो नः सुमना भव॥१३॥ नमस्त आयुधायानातताय धृष्ष्णवे। उभाब्भ्यामुत ते नमो बाहुब्भ्यान्तव धन्न्वने॥१४॥ मा नो महान्तमुत मा नो अर्भकं मा न उक्षन्तमुत मा न उक्षितम्। मा नो व्वधीः पितरम्मोतमातरम्मा नः प्प्रियास्तन्न्वो रुद्द्र रीरिषः॥१५॥ मा नस्तोके तनये मा न आयुषि मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः। मा नो व्वीरान्न्रुद्द्र भामिनो व्वधीर्हविष्म्मन्तः सदमित्त्वा हवामहे॥१६॥
अभिषेकके अनन्तर शुद्धोदक-स्नान कराये। तत्पश्चात "ॐ द्यौ: शान्ति" इत्यादि शान्तिक मन्त्रोंका पाठ करते हुए शान्त्यभिषेक करना चाहिये । तदनन्तर भगवान को आचमन कराकर उत्तराड़्ग पूजा करें।


वस्त्र

ॐ असौ योऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहित:। उतैनं गोपा अदृश्रन्नदृश्रन्नुदहार्य: स दृष्टो मृडयाति न:॥
दिगम्बर नमस्तुभ्यम गजाजिनधरा यच। व्याघ्रचर्मोतरीयाय वस्त्रयुग्मं दादाम्यहम॥
ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: वस्त्रोपवस्त्रं समर्पयामि। आचमनीयं जलं समर्पयामि।


यज्ञोपवीत

ॐ नमोऽस्तु नीलग्रीवाय सहस्त्राक्षाय मीढुषे। अथो ये अस्य सत्वानोऽहं तेभ्योऽकरं नम:॥
ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: यज्ञोपवीतं समर्पयामि। आचमनं जलं समर्पयामि।
ॐ भूर्भूव: स्व: श्रीनर्मदेश्वरसाम्बसदाशिवाय नम:, यज्ञोपवीतं समर्पयामि, यज्ञोपवीतान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि ।


उपवस्त्र

ॐ सुजातो ज्योतिषा सह शर्म वरूथमाऽसदत्स्व:। वासो अग्ने विश्वरूप सं व्ययस्व विभावसो॥
ॐ भूर्भूव: स्व: श्रीनर्मदेश्वरसाम्बसदाशिवाय नम:, उपवस्त्रं समर्पयामि, उपवस्त्रान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि ।


गन्ध (चन्दन)

ॐ प्रमुञ्च धन्वनस्त्वमुभयोरार्त्न्योर्ज्याम्। याश्च ते हस्त इषव: परा ता भगवो वप ॥
ॐ भूर्भूव: स्व: श्रीनर्मदेश्वरसाम्बसदाशिवाय नम:, गन्धानुलेपनं समर्पयामि।


सुगन्धित द्रव्य

ॐ त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्द्धनम। उर्वारुकमिव बन्धनान मृत्योर्मुक्षीय मामृतात।
ॐ भूर्भूव: स्व: श्रीनर्मदेश्वरसाम्बसदाशिवाय नम:, सुगन्धित द्रव्य समर्पयामि।
इत्र अर्पित करें।

भस्म
अग्निहोत्र समुदभूतं विरजाहोमपाजितम, गृहाण भस्म हे स्वामिन भक्तानां भूतिदाय॥
ॐ भूर्भूव: स्व: श्रीनर्मदेश्वरसाम्बसदाशिवाय नम:, भस्मं समर्पयामि॥
भस्म अर्पित करें।


अक्षत

ऊँ अक्षन्नमीमदन्तह्वप्रिया अधूषत। अस्तोषतस्वभानवो विप्रान्नविष्टयामती योजान। विन्द्रतेहरी। अक्सह्तान धवलान देवसिद्धगन्धर्व पूजितम।
सुदन्रेश नमस्तुभ्यं गृहाण वरदो भव॥
ॐ भूर्भूव: स्व: श्रीनर्मदेश्वरसाम्बसदाशिवाय नम:, अक्षतान समर्पयामि।
अक्षत चढावें।


पुष्प

ऊँ विज्जयन्धनु: कपर्दिनो विशल्यो बाधवांऽउत।
अनेकशन्नस्ययाऽड.षव आभुरस्यनिषंगधि:।
तुरीयवनसंभूतं। परमानन्दसौरभम।
पुष्पं गृहाण सोमेश पुष्पचापविभंजन॥
ॐ भूर्भूव: स्व: श्रीनर्मदेश्वरसाम्बसदाशिवाय नम:, पुष्पाणि समर्पयामि।


बिल्वपत्र

ॐ नमो बिल्विने च कवचिने च नमो वश्रिणे च वरूथिने
च नम: श्रुताव च श्रुतसेनाय च नमो दुन्दुभ्यरयचाहनन्यायच।
त्रिबलं द्विगुणाकारं द्विनेत्रं च त्रिधायुधम।
श्रिजन्मपाप संहारमेक बिल्वं शिवार्पणम।
दर्शनं बिल्वपत्रस्य स्पर्शनं पापनाशनम।
अघोर पाप संहारं मेक बिल्वं शिवार्पणम॥


अंगपूजा

ॐ भवाय नम: पादो पूजयामि। ऊँ जगत्पित्र नम: जंघे पूजयामि। ऊँ मृडाय नम: जानुनीं पूजयामि। ऊँ रुद्राय नम: उरु पूजयामि। ऊँ कालान्तकाय नम: कटिं पूजयामि। ऊँ नागेन्द्रा भरणाय नमं नाभिर पूजयामि। ऊँ स्तव्याय नम: कंठं पूजयामि। ऊँ भवनाशाय नम: भुजान पूजयामि। ऊँ कालकंठाय नम: कंठं पूजयामि। ऊँ महेशाय नम: मुखं पूजयामि। ऊँ लास्यप्रियाय नम: ललाटं पूजयामि। ऊँ शिवाय नम: शिरं पूजयामि। ऊँ प्रणतार्तिहराय नम: सर्वाण्यंगानि पूजयामि।
प्रत्येक बार गंधाक्षतपुष्प से सम्बन्धित अंग को घर्षित करें।


अष्टपूजा

ॐ शर्वाय क्षितिमूर्तये नम:,ऊँ भवाय जलमूर्तये नम:,ऊँ रुद्राय अग्निमूर्तये नम:,ऊँ उग्राय वायुमूर्तये नम:,ऊँ भीमाय आकाश मूर्तये नम:,ऊँ ईशनाय सूर्य मूर्तये नम:,ऊँ महादेवाय सोममूर्तये नम:,ऊँ पशुपतये यजमान मूर्तये नम:।
प्रत्येक बार गन्धाक्षतपुष्प बिल्वपत्र अर्पित करें।


परिवार पूजा

ॐ उमायै नम: ।
ॐ शंकर प्रियाये नम: ।
ॐ पार्वत्यै नम: ।
ॐ काल्यै नम: ।
ॐ कालिन्द्यै नम: ।
ॐ कोटि देव्यै नम: ।
ॐ पिश्वधारित्रै नम: ।
ॐ गंगा देव्यै नम: ।
नववितीन पूजयामि सर्वोपकरायै गन्धाक्षतपुष्पयाणि समर्पयामि।
प्रत्येक बार गन्ध अक्षत पुष्प अर्पण करें।
गण पूजा
ॐ गणपतये नम: ।
ॐ कार्तिकेयाय नम: ।
ॐ पुष्पदन्ताय नम: ।
ॐ कपर्दिने नम: ।
ॐ भैरवाय नम: ।
ॐ भूलपाधये नम: ।
ॐ चण्डेशाय नम: ।
ॐ दण्डपाणये नम: ।
ॐ नन्दीश्वराय नम: ।
ॐ महाकालाय नम: ।
सर्वान गणाधिपान पूजयामि सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि।
रुद्र पूजा
ॐ अघोराय नम: ।
ॐ पशुपतये नम: ।
ॐ शर्वाय नम: ।
ॐ विरूपाक्षाय नम: ।
ॐ विश्वरूष्ये नम: ।
ॐ त्र्यम्बकाय नम: ।
ॐ कपर्दिने नम: ।
ॐ भैरवाय नम: ।
ॐ शूलपाणये नम: ।
ॐ ईशनाय नम: ।
एकादश रुद्रान पूजयामि सर्वोपचारार्थे गन्ध अक्षत पुष्पाणि समर्पयामि।


सौभाग्य द्रव्य

ॐ अहिरीव भोगै: पर्येति बाहुञ्यावा हेतिम्परिवाधमान:।
हस्तघ्नो विश्वावयुनानिविद्वान पुमान पुमा गंगवहे समपरिपातुविश्वत:॥
हरिद्रां कुंकुमं चैव सिन्दूरं कज्जलान्वितम।
सौभाग्यद्रव्यसंयुक्तं ग्रहाण परमेश्वर॥
ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: सौभाग्यद्रव्याणि समर्पयामि।
हल्दी कुमकुम सिन्दूर चढावें।


धूप

ॐ या ते हेतीर्मीढ्ष्ट्रम हस्ते बभूव ते धनु:। तयास्मान-विश्वस्त्व मयक्ष्मया परिभुज॥
ॐ उमा महेश्वराभ्याम नम: धूपं आघ्रायामि।
धूपबत्ती जलायें।


दीप

ॐ परिते धन्वनो हेतिरस्मान्वृणकतुविश्वत:। अथोयऽगंषि घ्रिस्त वारेऽकअस्मन्निधेहितम।
साज्यं वर्ति युक्तं दीपं सर्वमंगलकारकम।
समर्पयामि श्येदं सोमसूर्याग्निलोचनम॥
प्रज्वलित दीपक पर घंटावादन करते हुये चावल छोडें।


नैवैद्य

नैवैद्य के ऊपर बिल्वपत्र या पुष्प में पानी लेकर रुद्रगायत्री को बोलें-
ॐ तत्पुरुषाय विद्यमहे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्र: प्रचोदयात।
फ़िर नैवैद्य पर धेनु मुद्रा दिखाते हुये इस मंत्र को बोलें-
ॐ अवतय धनुष्टव गुं सहस्त्राक्षशतेषुधे। निशीर्य शलयानामुख शिवा न: सुमना भव॥
नैवैध्यं षडरसोपेतं विषाशत घृतान्वितम। मधुक्षीरापूपयुक्तं गृह्यतां सोमशेखर॥
इसके बाद ग्राम मुद्रा में इस मंत्र का उच्चारण करें-


ॐ प्राणाय स्वाहा, ॐ अपानाय स्वाहा, ॐ व्यानाय स्वाहा, ॐ उदानाय स्वाहा, ॐ समानाय स्वाहा।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: आचमनीयं जलं समर्पयामि, पूर्जापोषण समर्पयामि।
ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: मध्ये पानीयं समर्पयामि, नैवैद्यान्ते आचमनीयं समर्पयामि, उत्तरापोषणं समर्पयामि, हस्तप्राक्षलण समर्पयामि, मुखप्रक्षालनं समर्पयामि।


करोद्वर्तन

ॐ सिञ्चति परि षिञ्चन्त्युत्सिञ्चन्ति पुनन्ति च। सुरायै बभ्र्वै मदे किन्त्वो वदति किन्त्व:॥
ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: करोद्वर्तनार्थे चन्दनानुलेपनं समर्पयामि।
ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: करोद्वर्जनार्थे चन्दनं समर्पयामि।
भगवान के हाथो में चन्दन अर्पित करें।


ऋतुफल

ॐ या फ़लिनीयाऽफ़लाऽपुष्पा याश्चपुष्पिणि:। बृहस्पतिप्रसूस्तानो मुन्वत्व गंगवहे हस: ।
यस्य स्मरण मात्रेण सफ़लता सन्ति सत्क्रिया:। तस्य देवस्या प्रीत्यर्थ इयं ऋतुफ़लार्पणम।
ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: नैवैद्यम निवेदयामि नाना ऋतुफ़लानि च सपर्पयामि।


ताम्बूल

ॐ नमस्तुऽआयुधानाततायधृष्णवे। उमाभ्यांमुत ते नमो बाहुभ्यान्नत धन्वने।
ॐ उमा महेश्वराभ्याम नम: मुख शुद्धयर्थे ताम्बूलं समर्पयामि।


दक्षिणा

ॐ हरिण्यगर्भ: समवर्तमाग्रे भूतस्य जात: परिरेकऽआसीत।
सदाधार पृथिवीन्द्यामुतेमाकस्मै देवाय हविषा विधेम।
ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम:सांगता सिद्धयर्थ हिरण्यगर्भ दक्षिणां समर्पयामि।


नीराजंन

ॐ इद गंगवहे हवि: प्रजननम्मे अस्तु दशवीर गंगवहे सर्वगण गंगवहे स्वस्तये।
आत्मसनि। प्रजासनि पशुसति लोकसन्यभयसनि:।
अग्नि प्रजा बहुलां में करोत्वनं न्यतो रेतोऽस्मासु धत।


ध्यान 

वन्दे देव उमापतिं सुरुगुरु वन्दे जगत्कारणम,
वन्दे पन्नगभूषणं मृगधरं वन्दे पशूनांपतिम।
वन्दे सूर्य शशांक वहिनयनं वन्चे मुकुन्दप्रिय:
वन्दे भक्तजनाश्रयं च वरदं वन्दे शिवशंकरम॥


शान्तं पदमासनस्थं शशिधर मुकुटं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रम,

शूलं वज्र च खडग परशुमभयदं दक्षिणागे वहन्न्तम।
नाग पाशं च घंटां डमरूकसहितं सांकुशं वामभागे,
नानालंकार दीप्तं स्फ़टिकमणिनिभं पार्वतीशं नमामि॥


कर्पूर गौरं करुणावतारं संसार सारं भुजगेन्द्र हारम

सदा बसन्तं ह्रदयार विन्दे भवं भवानी सहितं नमामि॥


आरती

जय शिव ऊँकारा भज शिव ऊँकारा।
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव अर्धांगी धारा॥ ॐ॥.....

जल आरती
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष गंगवहे शान्ति: पृथ्वीशान्तिराप: शान्त रोषधय: शान्ति।
वनस्पतय: शान्ति शान्तिर्विश्वेदेवा शान्तिब्रह्म शान्ति सर्व गंगवहे शान्ति: शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्ति रेधि।
इस पानी को शिवजी के चारों तरफ़ थोडा थोडा डालकर शिवलिंग पर चढा दें।


प्रदक्षिणा

ॐ मा नो महान्तमुत मा नोऽअभर्कम्मानऽउक्षन्त मुत मा नऽउक्षितम। मानो वधी: पिरंम्मोतमारम्मान: प्रियास्तस्न्वोरुद्ररीरिष:।
ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: प्रदक्षिणां समर्पयामि।


पुष्पांजलि

ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन। तेह ना कं महिमान: सचन्त यत्र पूर्वे साध्या: सन्ति देवा:।
ॐ राधाधिराजाय प्रसस्रसाहिने नमोवयं वेश्रणाय कुर्महे समे कामान कामकामा महम। कामेश्वरी वेश्रवणो ददातु। कुबेराय वैश्रवणाय महाराजाय नम:।
ॐ स्वास्ति साम्राज्यं भोज्य स्वराज्यं वैराज्यं परमेष्ठयं राज्यं महाराज्यमाधिपत्यमयं समन्तपर्यायो स्वात सार्वभौम:। सर्वायुष आन्तादा परार्धात। पृथिव्ये समुद्रपर्यान्ताय एकराडिति तदप्येष श्लोकोऽभिगितो मरुत: परिवेष्टारो मरुतस्यावसन्नगृहे। अविक्षि तस्य कामप्रेविश्वेदेवा: सभासद इति:।
ॐ उमामहेश्वराभ्याम नमं मन्त्र पुष्पान्जलि समर्पयामि।


नमस्कार

ॐ नम: शम्भवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च नम: शिवाय च शिवतराय च।
तव तत्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर।
यादशोसि महादेव तादृशाय नमोनम:॥
त्रिनेत्राय नमज्ञतुभ्यं उमादेहार्धधारिणे।
त्रिशूल धारिणे तुभ्यं भूतानां पतये नम:॥
गंगाधर नमस्तुभ्यं वृषमध्वज नमोस्तु ते।
आशुतोष नमस्तुभ्यं भूयो भूयो नमो नम:॥


ॐ निधनपतये नम:। निधनपतान्तिकाय नम: उर्ध्वाय नम:।

ऊर्ध्वलिंगाय नम:। हिरण्याय नम:। हिरण्यलिंगाय नम: दिव्याय नम: सुवर्णाय नम:। सुवर्ण लिंगाय नम:। दिव्यलिंगाय नम:। भवाय नम:। भवलिंगाय नम:। शर्वाय नम:। शर्वलिंगाय नम:। शिवाय नम:। शिवलिंगाय नम:। ज्वालाय नम:। ज्वललिंगाय नम:। आत्मरस नम:। आत्मलिंगाय नम:। परमाय नम:। परमलिंगाय नम:। एतत सोमस्य सूर्यस्य सर्वलिंग गंगवहे स्थापयसि पाणि मन्त्र पवित्रम।
ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: नमस्करोमि।


प्रार्थनापूर्वक क्षमायपन

आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम, पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वर।
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वर, यह पूजितं मयादेव परिपूर्ण तदस्तुमे॥
यदक्षरं पदं भ्रष्टं मात्राहीनं च यद भवेत, तत सर्वं क्षम्यतां देव प्रसीद परमेश्वर॥
क्षमस्व देव देवेश क्षस्व भुवनेश्वर, तव पदाम्बुजे नित्यं निश्चल भक्तितरस्तु में॥
असारे संसारे निजभजन दूरे जडधिया, भ्रमन्तं मामन्धं परम कृपया पातुमुचितम॥
मदन्य: को दीन स्वव कृपण रक्षाति निपुण, स्त्वदन्य: को वा मे त्रिगति शरण्य: पशुपते॥


विशेषार्ध्य

अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरंण मम, मस्मात कारुण्य भावेन रक्ष मां परमेश्वर।
रक्ष रक्ष महादेव रक्ष त्रैलोक्य रक्षक, भक्तानां अभयकर्ता त्राता भवभवार्णवात॥
वरद त्वं वरं देहि वांछितार्थादि। अनेक सफ़लर्ध्येन फ़लादोस्तु सदामम॥
ॐ मानस्तोके तनये मानऽआयुषिमानो गोषुमानोऽश्वेषुरीरिष:। मानो वीरानुरुद्र भामिनो बधीर्हविष्मन्त: सदामित्वाहवामहे। ऊँ उमामहेश्वराभ्याम नम: विशेषर्ध्यं समर्पयामि।
अर्ध्य पात्र में जल गन्ध अक्षत फ़ूल बिल्वपत्र आदि मंगल द्रव्य लेकर भगवान को अर्पित करें।


समर्पण

गतं पापं गतं दुखं गतं दारिद्रयमेव च, आगता सुख सम्पत्ति: पुण्याच्च तव दर्शनात॥
दवो दाता च भोक्ता च देवरूपमितं जगत, देवं जपति सर्वत्र यौ देव: सोहमेव हि॥
साधिवाऽसाधु वा कर्म यद्यमचारितं मया। तत सर्व कृपया देव गृहाणाराधनम॥
शंख या आचमनी का जल भगवान के दाहिने हाथ मे देते हुये समस्त पूजा फ़ल उन्हे समर्पित करें।
अनेनकृत पूजाकर्मणा श्री संविदात्मक: साम्बसदाशिव प्रीयन्ताम। ऊँ तत सद ब्रह्मार्पणमस्तु।
इसके बाद वैदिक या संस्कृत आरती कर पुष्पांजलि दें।


शिव आरती किस प्रकार करें

शिव आरती में सबसे पहले शिव के चरणों का ध्यान करके चार बार आरती उतारें फ़िर नाभिकमल का ध्यान करनेक दो बार आरती उतारें,फ़िर मुख का स्मरण करते हुये एक बार आरती उतारें,तथा सर्वांग की सात बार आरती उतारें, इस प्रकार चौदह बार आरती उतारे। इसके बाद शंख या पात्र में जल लेकर घुमाते हुये छोडें,और इस मंत्र को बोलें-


ॐ द्यौ हवामहे शान्तिरन्तरिक्षं हवामहे शान्ति पृथ्वी शान्ति राप: शान्तिरोषधय शान्ति: वनस्पतय: शान्तिर्विश्वेदेवा शान्ति ब्रह्माशान्ति सर्वं हवामहे शान्ति शान्ति:रे वशन्ति सामाशान्तिरेधि।



प्रदक्षिणा

यानि कानि च पापानि ज्ञाताज्ञात कृतानि च,
तानि सर्वाणि नश्यन्ति प्रदक्षिणं पदे पदे॥


हवन यज्ञ" -1


यज्ञ दो प्रकार के होते है- श्रौत और स्मार्त। श्रुति पति पादित यज्ञो को श्रौत यज्ञ और स्मृति प्रतिपादित यज्ञो को स्मार्त यज्ञ कहते है। श्रौत यज्ञ में केवल श्रुति प्रतिपादित मंत्रो का प्रयोग होता है और स्मार्त यज्ञ में वैदिक पौराणिक और तांत्रिक मंन्त्रों का प्रयोग होता है। वेदों में अनेक प्रकार के यज्ञों का वर्णन मिलता है। किन्तु उनमें पांच यज्ञ ही प्रधान माने गये हैं - 1. अग्नि होत्रम, 2. दर्शपूर्ण मासौ, 3. चातुर्म स्यानि, 4. पशुयांग, 5. सोमयज्ञ, ये पाॅंच प्रकार के यज्ञ कहे गये है, यह श्रुति प्रतिपादित है। वेदों में श्रौत यज्ञों की अत्यन्त महिमा वर्णित है। श्रौत यज्ञों को श्रेष्ठतम कर्म कहा है कुल श्रौत यज्ञो को १९ प्रकार से विभक्त कर उनका संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है।
1. स्मार्त यज्ञः-
विवाह के अनन्तर विधिपूर्वक अग्नि का स्थापन करके जिस अग्नि में प्रातः सायं नित्य हनादि कृत्य किये जाते है। उसे स्मार्ताग्नि कहते है। गृहस्थ को स्मार्ताग्नि में पका भोजन प्रतिदिन करना चाहिये।
2. श्रोताधान यज्ञः-
दक्षिणाग्नि विधिपूर्वक स्थापना को श्रौताधान कहते है। पितृ संबंधी कार्य होते है।
3. दर्शभूर्णमास यज्ञः-
अमावस्या और पूर्णिमा को होने वाले यज्ञ को दर्श और पौर्णमास कहते है। इस यज्ञ का अधिकार सपत्नीक होता है। इस यज्ञ का अनुष्ठान आजीवन करना चाहिए यदि कोई जीवन भर करने में असमर्थ है तो 30 वर्ष तक तो करना चाहिए।
4. चातुर्मास्य यज्ञः-
चार-चार महीने पर किये जाने वाले यज्ञ को चातुर्मास्य यज्ञ कहते है इन चारों महीनों को मिलाकर चतुर्मास यज्ञ होता है।
5. पशु यज्ञः-
प्रति वर्ष वर्षा ऋतु में या दक्षिणायन या उतरायण में संक्रान्ति के दिन एक बार जो पशु याग किया जाता है। उसे निरूढ पशु याग कहते है।
6. आग्रजणष्टि (नवान्न यज्ञ) :-
प्रति वर्ष वसन्त और शरद ऋतुओं नवीन अन्न से यज्ञ गेहूॅं, चावल से जा यज्ञ किया जाता है उसे नवान्न कहते है।
7. सौतामणी यज्ञ (पशुयज्ञ) :-
इन्द्र के निमित्त जो यज्ञ किया जाता है सौतामणी यज्ञ इन्द्र संबन्धी पशुयज्ञ है यह यज्ञ दो प्रकार का है। एक वह पांच दिन में पुरा होता है। सौतामणी यज्ञ में गोदुग्ध के साथ सुरा (मद्य) का भी प्रयोग है। किन्तु कलियुग में वज्र्य है। दूसरा पशुयाग कहा जाता है। क्योकि इसमें पांच अथवा तीन पशुओं की बली दी जाती है।
8. सोम यज्ञः-
सोमलता द्वारा जो यज्ञ किया जाता है उसे सोम यज्ञ कहते है। यह वसन्त में होता है यह यज्ञ एक ही दिन में पूर्ण होता है। इस यज्ञ में 16 ऋत्विक ब्राह्मण होते है।
9. वाजपये यज्ञः-
इस यज्ञ के आदि और अन्त में वृहस्पति नामक सोम यग अथवा अग्निष्टोम यज्ञ होता है यह यज्ञ शरद रितु में होता है।
10. राजसूय यज्ञः-
राजसूय या करने के बाद क्षत्रिय राजा समाज चक्रवर्ती उपाधि को धारण करता है।
11. अश्वमेघ यज्ञ:-
इस यज्ञ में दिग्विजय के लिए (घोडा) छोडा जाता है। यह यज्ञ दो वर्ष से भी अधिक समय में समाप्त होता है। इस यज्ञ का अधिकार सार्वभौम चक्रवर्ती राजा को ही होता है।
12. पुरूष मेघयज्ञ:-
इस यज्ञ समाप्ति चालीस दिनों में होती है। इस यज्ञ को करने के बाद यज्ञकर्ता गृह त्यागपूर्वक वान प्रस्थाश्रम में प्रवेश कर सकता है।
13. सर्वमेघ यज्ञ:-
इस यज्ञ में सभी प्रकार के अन्नों और वनस्पतियों का हवन होता है। यह यज्ञ चैंतीस दिनों में समाप्त होता है।
14. एकाह यज्ञ:-
एक दिन में होने वाले यज्ञ को एकाह यज्ञ कहते है। इस यज्ञ में एक यज्ञवान और सौलह विद्वान होते है।
15. रूद्र यज्ञ:-
यह तीन प्रकार का होता हैं रूद्र महारूद्र और अतिरूद्र रूद्र यज्ञ 5-7-9 दिन में होता हैं महारूद्र 9-11 दिन में होता हैं। अतिरूद्र 9-11 दिन में होता है। रूद्रयाग में 16 अथवा 21 विद्वान होते है। महारूद्र में 31 अथवा 41 विद्वान होते है। अतिरूद्र याग में 61 अथवा 71 विद्वान होते है। रूद्रयाग में हवन सामग्री 11 मन, महारूद्र में 21 मन अतिरूद्र में 70 मन हवन सामग्र्री लगती है।
16. विष्णु यज्ञ:-
यह यज्ञ तीन प्रकार का होता है। विष्णु यज्ञ, महाविष्णु यज्ञ, अति विष्णु योग- विष्णु योग में 5-7-8 अथवा 9 दिन में होता है। विष्णु याग 9 दिन में अतिविष्णु 9 दिन में अथवा 11 दिन में होता हैं विष्णु याग में 16 अथवा 41 विद्वान होते है। अति विष्णु याग में 61 अथवा 71 विद्वान होते है। विष्णु याग में हवन सामग्री 11 मन महाविष्णु याग में 21 मन अतिविष्णु याग में 55 मन लगती है।
17. हरिहर यज्ञ:-
हरिहर महायज्ञ में हरि (विष्णु) और हर (शिव) इन दोनों का यज्ञ होता है। हरिहर यज्ञ में 16 अथवा 21 विद्वान होते है। हरिहर याग में हवन सामग्री 25 मन लगती हैं। यह महायज्ञ 9 दिन अथवा 11 दिन में होता है।
18. शिव शक्ति महायज्ञ:-
शिवशक्ति महायज्ञ में शिव और शक्ति (दुर्गा) इन दोनों का यज्ञ होता है। शिव यज्ञ प्रातः काल और श शक्ति (दुर्गा) इन दोनों का यज्ञ होता है। शिव यज्ञ प्रातः काल और मध्याहन में होता है। इस यज्ञ में हवन सामग्री 15 मन लगती है। 21 विद्वान होते है। यह महायज्ञ 9 दिन अथवा 11 दिन में सुसम्पन्न होता है।
19. राम यज्ञ:-
राम यज्ञ विष्णु यज्ञ की तरह होता है। रामजी की आहुति होती है। रामयज्ञ में 16 अथवा 21 विद्वान हवन सामग्री 15 मन लगती है। यह यज्ञ 8 दिन में होता है।
20. गणेश यज्ञ:-
गणेश यज्ञ में एक लाख (100000) आहुति होती है। 16 अथवा 21 विद्वान होते है। गणेशयज्ञ में हवन सामग्री 21 मन लगती है। यह यज्ञ 8 दिन में होता है।
21. ब्रह्म यज्ञ (प्रजापति यज्ञ):-
प्रजापत्ति याग में एक लाख (100000) आहुति होती हैं इसमें 16 अथवा 21 विद्वान होते है। प्रजापति यज्ञ में 12 मन सामग्री लगती है। 8 दिन में होता है।
22. सूर्य यज्ञ:-
सूर्य यज्ञ में एक करोड़ 10000000 आहुति होती है। 16 अथवा 21 विद्वान होते है। सूर्य यज्ञ 8 अथवा 21 दिन में किया जाता है। इस यज्ञ में 12 मन हवन सामग्री लगती है।
23. दूर्गा यज्ञ:-
दूर्गा यज्ञ में दूर्गासप्त शती से हवन होता है। दूर्गा यज्ञ में हवन करने वाले 4 विद्वान होते है। अथवा 16 या 21 विद्वान होते है। यह यज्ञ 9 दिन का होता है। हवन सामग्री 10 मन अथवा 15 मन लगती है।
24. लक्ष्मी यज्ञ:-
लक्ष्मी यज्ञ में श्री सुक्त से हवन होता है। लक्ष्मी यज्ञ (100000) एक लाख आहुति होती है। इस यज्ञ में 11 अथवा 16 विद्वान होते है। या 21 विद्वान 8 दिन में किया जाता है। 15 मन हवन सामग्री लगती है।
25. लक्ष्मी नारायण महायज्ञ:-
लक्ष्मी नारायण महायज्ञ में लक्ष्मी और नारायण का ज्ञन होता हैं प्रात लक्ष्मी दोपहर नारायण का यज्ञ होता है। एक लाख 8 हजार अथ्वा 1 लाख 25 हजार आहुतियां होती है। 30 मन हवन सामग्री लगती है। 31 विद्वान होते है। यह यज्ञ 8 दिन 9 दिन अथवा 11 दिन में पूरा होता है।
26. नवग्रह महायज्ञ:-
नवग्रह महायज्ञ में नव ग्रह और नव ग्रह के अधिदेवता तथा प्रत्याधि देवता के निर्मित आहुति होती हैं नव ग्रह महायज्ञ में एक करोड़ आहुति अथवा एक लाख अथवा दस हजार आहुति होती है। 31, 41 विद्वान होते है। हवन सामग्री 11 मन लगती है। कोटिमात्मक नव ग्रह महायज्ञ में हवन सामग्री अधिक लगती हैं यह यज्ञ ९ दिन में होता हैं इसमें 1,5,9 और 100 कुण्ड होते है। नवग्रह महायज्ञ में नवग्रह के आकार के 9 कुण्डों के बनाने का अधिकार है।
27. विश्वशांति महायज्ञ:-
विश्वशांति महायज्ञ में शुक्लयजुर्वेद के 36 वे अध्याय के सम्पूर्ण मंत्रों से आहुति होती है। विश्वशांति महायज्ञ में सवा लाख (123000) आहुति होती हैं इस में 21 अथवा 31 विद्वान होते है। इसमें हवन सामग्री 15 मन लगती है। यह यज्ञ 9 दिन अथवा 4 दिन में होता है।
28. पर्जन्य यज्ञ (इन्द्र यज्ञ):-
पर्जन्य यज्ञ (इन्द्र यज्ञ) वर्षा के लिए किया जाता है। इन्द्र यज्ञ में तीन लाख बीस हजार (320000) आहुति होती हैं अथवा एक लाख 60 हजार (160000) आहुति होती है। 31 मन हवन सामग्री लगती है। इस में 31 विद्वान हवन करने वाले होते है। इन्द्रयाग 11 दिन में सुसम्पन्न होता है।
29. अतिवृष्टि रोकने के लिए यज्ञ:-
अनेक गुप्त मंत्रों से जल में 108 वार आहुति देने से घोर वर्षा बन्द हो जाती है।
30. गोयज्ञ:-
वेदादि शास्त्रों में गोयज्ञ लिखे है। वैदिक काल में बडे-बडे़ गोयज्ञ हुआ करते थे। भगवान श्री कृष्ण ने भी गोवर्धन पूजन के समय गौयज्ञ कराया था। गोयज्ञ में वे वेदोक्त दोष गौ सूक्तों से गोरक्षार्थ हवन गौ पूजन वृषभ पूजन आदि कार्य किये जाते है। जिस से गौसंरक्षण गौ संवर्धन, गौवंशरक्षण, गौवंशवर्धन गौमहत्व प्रख्यापन और गौसड्गतिकरण आदि में लाभ मिलता हैं गौयज्ञ में ऋग्वेद के मंत्रों द्वारा हवन होता है। इस में सवा लाख 250000 आहुति होती हैं गौयाग में हवन करने वाले 21 विद्वान होते है। यह यज्ञ 8 अथवा 9 दिन में सुसम्पन्न होता है।

हवन यज्ञ" -2
31. कोटि होम:-
शतमुख, दशमुख, द्विमुख और एक मुख भेद से चार प्रकार का कोटि होम होता है। शतमुख में अथवा 100 कुण्डों के यज्ञ में प्रत्येक कुण्ड पर 10-10 विद्वान हवनकत्र्ता बैठते है। इस प्रकार 100 कुण्डों के हवन में एक हजार (1000) विद्वान होते है। दशमुख अर्थात 100 कुण्डों के यज्ञ में प्रत्येक कुण्ड में 20-20 होता (हवनकर्ता) बैठते है। इस प्रकार 10 कुण्डों के यज्ञ में 200 विद्वान हवनकर्ता बैठने चाहिए। दमुख अर्थात दो कुण्डों के यज्ञ में 50-50 होता बैठते है। इस प्रकार से हवन में 100 विद्वान हवनकर्ता होने चाहिए। एक मुख में अर्थात एक कुण्ड के यज्ञ में हवनकर्ता की संख्या का कोई खास नियम नहीं सामथ्र्य के अनुसार जितने भी विद्वान हवनार्थ बैठाना चाहे बैठा सकता हैं सौ कुण्डों का कोटि होम बहुत बडा महायज्ञ कहा जाता है। कोटि यज्ञ में सामग्री 200 मन लगती है।
32. गायत्री यज्ञ:-
गायत्री महायज्ञ में चैबीस लाख (2400000) आहुतियां होती हैं चैबीस लाख आहुतियों के गायत्री महायज्ञ में 55 मन अथवा 60 मन हवन सामग्री लगती हैं इस यज्ञ में 61 अथवा 71 विद्वान होते है। यह महायज्ञ 9 अथवा 11 दिन में होता हैै। गायत्री महायज्ञ में 1,5,9 अथवा 24 कुण्ड होते है।
33. शतचण्डी:-
शतचण्डी 5 दिन में अथवा 9 दिन में होती हैं पांच अथवा नव दिन की शतचण्डी में दुर्गा पाठ कराने के लिए 13 विद्वान होते है। शत चण्डी में हवन सामग्री सवा मन (50 किलों) लगती है। शत चण्डी
सर्वदा की जा सकती है।