Friday, June 28, 2019

हवन तथा ध्वज और पताका संबंधित कुछ जानकारी


हवन के लिए शास्त्रीय नियम
कोई भी अनुष्ठान के पश्चात हवन करने का शास्त्रीय विधान है और हवन करने हेतु भी कुछ नियम बताये गए हैं जिसका अनुसरण करना अति – आवश्यक है , अन्यथा अनुष्ठान का दुष्परिणाम भी आपको झेलना पड़ सकता है ।

1. अग्निवास
2. भू रुदन, भू रजस्वला, भू शयन, भू हास्य, किस पक्ष मे शुभ कार्य न करे, यज्ञ कुंड के प्रकार, कितना हवन किया जाए?
3. गुरु और शुक्र अस्त
4. किस नाम की अग्नि का आवाहन किया जाना चाहिए ?
5. वार, पक्ष, राहु काल, तिथि क्षय, मल मास/अधिक मास
6. यज्ञ कुंड के प्रकार : आकार
7. हवन मात्रा : दशांश/शतांश
8. आहुति कैसे दी जाए
9. दिशा
10. हवन सामग्री
11. हवन लकड़ी
12. श्त्रुक स्त्रुव
13. हवन कुंड किस धातु का बना

-: यज्ञ में प्रयुक्त होने वाले काष्ठ पात्र :-



१. स्रुवा- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन में घी की आहुति दी जाती है।

२. प्रणीता- इसमें जल भरकर रखा जाता है। इस प्रणीता पात्र के जल में घी की आहुति देने के उपरान्त बचे हुए घी को "इदं न मम.." कहकर टपकाया जाता है। बाद में इस पात्र का घृतयुक्त होठों एवं मुख से लगाया है जिसे "संसवप्राशन" कहते हैं।

३. प्रोक्षिणी- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन में वसोर्धारा (घी की धारा) छोड़ी जाती है। कुछ विद्वान यही क्रिया स्रुचि के माध्यम से भी करते हैं।

४. स्रुचि- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन में मिष्ठान की पूर्णाहुति दी जाती है। मिष्ठान की इस आहुति को "स्विष्टकृत" होम कहते हैं। यह क्रिया यज्ञ अथवा हवन में न्यूनता को पूर्ण करने के लिए की जाती है।

५. स्फ़्य- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन की भस्म धारण की जाती है।
इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात है हवन के दिन ‘अग्नि के वास ‘ का पता करना ताकि हवन का शुभ फल आपको प्राप्त हो सके ।

(भू रुदन, भू रजस्वला, भू शयन, भू हास्य, किस पक्ष मे शुभ कार्य न करे, यज्ञ कुंड के प्रकार, कितना हवन किया जाए?)

1- जिस दिन आपको होम करना हो, उस दिन की तिथि और वार की संख्या को जोड़कर 1 जमा (1 जोड़ ) करें फिर कुल जोड़ को 4 से भाग देवें- अर्थात् शुक्ल प्रतिपदा से वर्तमान तिथि तक गिनें तथा एक जोड़े , रविवारसे दिन गिने पुनः दोनों को जोड़कर चार का भाग दें।

-यदि शेष शुन्य (0) अथवा 3 बचे, तो अग्नि का वास पृथ्वी पर होगा और इस दिन होम करना कल्याणकारक होता है ।

-यदि शेष 2 बचे तो अग्नि का वास पाताल में होता है और इस दिन होम करने से धन का नुक्सान होता है ।

-यदि शेष 1बचे तो आकाश में अग्नि का वास होगा, इसमें होम करने से आयु का क्षय होता है ।

अतः यह आवश्यक है की होम में अग्नि के वास का पता करने के बाद ही हवन करें ।

शास्त्रीय विधान के अनुसार वार की गणना रविवार से तथा तिथि की गणना शुक्ल-पक्ष की प्रतिपदा से करनी चाहिए तदुपरांत गृह के ‘मुख-आहुति-चक्र ‘ का विचार करना चाहिए ।

मान लो आज हम कृष्ण पक्ष की चौथी तिथि मे चल रहे है तो ।

शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा तक 15 तिथि तो कुल योग आया 15 + 4 + 1 = 20

आज कौन सा दिन हैं और इस दिन को रविवार से गिने । मानलो आज बुधवार हैं तो रविवार से गिनने पर बुधवार 3 आया । कुल योग 20 + 3 = 23/4 कर दे तो शेष कितना बचा । 4 – 23 / 5

– 20 । 3 को शेष कहा जायेगा । परिणाम इस प्रकार से होंगे ।

• शेष 0 तो अग्नि का निवास पृथ्वी पर ।

• शेष 1 तो अग्नि का निवास आकाश मे ।

• शेष 2 तो अग्नि का निवास पाताल मे ।

• शेष 3 बचे तो पृथ्वी पर माने ।

पृथ्वी पर अग्नि वास सुख कारी होता हैं । आकाश मे प्राणनाश और पाताल मे धन नाश होता हैं । मतलब हमें वह तिथि चुनना हैं जिस तिथि मे शेष 3 बचे ।

वह तिथि ही लाभकारी होगी । प्रज्वलित अग्नि के आकार को देख कर कई नाम रखे गए हैं । पर अभी उनसे हमें सरोकार नही हैं । इस तरह से अग्नि वास का पता हमें लगाना हैं।

भू रुदन :-
हर महीने की अंतिम घडी, वर्ष का अंतिम् दिन, अमावस्या, हर मंगल वार को भू रुदन होता हैं । अतः इस काल को शुभ कार्य भी नही लिया जाना चाहिए ।
यहाँ महीने का मतलब हिंदी मास से हैं और एक घडी मतलब 24 मिनिट हैं । अगर ज्यादा गुणा न किया जाए तो मास का अंतिम दिन को इस आहुति कार्य के लिए न ले।


भू रजस्वला :-
इस का बहुत ध्यान रखना चाहिए ।यह तो हर व्यक्ति जानता हैं की मकरसंक्रांति लगभग कब पड़ती हैं । अगर इसका लेना देना मकर राशि से हैं तो इसका सीधा सा तात्पर्य यह हैं की हर महीने एक सूर्य संक्रांति पड़ती ही हैं और यह एक हर महीने पड़ने वाला विशिष्ट साधनात्मक महूर्त होता हैं ।
तो जिस भारतीय महीने आपने आहुति का मन बनाया हैं ठीक उसी महीने पड़ने वाली सूर्य संक्रांति से (हर लोकलपंचांग मे यह दिया होता हैं । लगभग 15 तारीख के आस पास यह दिन होता हैं । मतलब सूर्य संक्रांति को एक मान कर गिना जाए तो 1, 5, 10, 11, 16, 18, 19 दिन भू रजस्वला होती हैं ।


भू शयन :-
आपको सूर्य संक्रांति समझ मे आ गयी हैं तो किसी भी महीने की सूर्य संक्रांती से 5, 7, 9, 15, 21 या 24 वे दिन को भू शयन माना जाता हैं ।
सूर्य जिस नक्षत्र पर हो उस नक्षत्र से आगे गिनने पर 5, 7,9, 12, 19, 26 वे नक्षत्र मे पृथ्वी शयन होता हैं । इस तरह से यह भी काल सही नही हैं ।

अब समय हैं यह जानने का कि भू हास्य क्या है ?

भू हास्य :-
तिथि मे पंचमी ,दशमी ,पूर्णिमा ।
वार मे – गुरु वार ।
नक्षत्र मे – पुष्य, श्रवण मे पृथ्वी हसती हैं ।
अतः इन दिनों का प्रयोगकिया जाना चाहिए ।


गुरु और शुक्र अस्त :- यह दोनों ग्रह कब अस्त होते हैं और कब उदित ।
आप लोकल पंचांग मे बहुत ही आसानी से देख सकते हैं और इसका निर्धारण कर सकते हैं । अस्त होने का सीधा सा मतलब हैं की ये ग्रह सूर्य के कुछ ज्यादा समीप हो गए और अब अपना असर नही दे पा रहे हैं । क्यूंकी इन दोनों ग्रहो का प्रत्येक शुभ कार्य से सीधा लेना देना हैं । अतः इनके अस्त होने पर शुभ कार्य नही किये जाते हैं और इन दोनों के उदय रहने की अवस्था मे शुभ कार्य किये जाना चाहिये ।


आहुति कैसे दी जाए :-
• आहुति देते समय अपने सीधे हाँथ के मध्यमा और का सहारा ले कर उसे प्रज्ज्वलित अग्नि मे ही छोड़ा जाए । आहुति हमेशा झुक कर डालना चाहिए वह भी इसतरह से की पूरी आहुति अग्नि मे ही गिरे ।
जब आहुति डाली जा रही हो तभी सभी एक साथ स्वाहा शब्द बोले ।
(यह एक शब्द नही बल्कि एक देवी का नाम है )
• जिन मंत्रो के अंतमे स्वाहा शब्द पहले से हैं उसमे फिर से पुनःस्वाहा शब्द न बोले यह ध्यान रहे।

वार :- रविवार और गुरुवार सामन्यतः सभी यज्ञों के लिए श्रेष्ठ दिवस हैं । शुकल पक्ष मे यज्ञ आदि कार्य कहीं ज्यादा उचित हैं ।

किस पक्ष मे शुभ कार्य न करे :-
ग्रंथ कार कहते हैं की जिस पक्ष मे दो क्षय तिथि हो मतलब वह पक्षः 15 दिन का न हो कर 13 दिन का ही हो जायेगा उस पक्ष मे समस्त शुभ कार्य वर्जित हैं ।

ठीक इसी तरह अधि़क मास या मल मास मे भी यज्ञ कार्य वर्जित हैं ।

किस समय हवन आदि कार्य करें :- सामान्यतः आपको इसके लिए पंचांग देखना होगा । उसमे वह दिन कितने समय का हैं । उस दिन मान के नाम से बताया जाता हैं ।

उस समय के तीन भाग कर दे और प्रथम भाग का उपयोग यज्ञ अदि कार्यों के लिए किया जाना चाहिए । साधारण तौर से यही अर्थ हुआ की की दोपहर से पहले यज्ञ आदि कार्य प्रारंभ हो जाना चहिये ।

हाँ आप राहु काल आदि का ध्यान रख सकते हैं और रखना ही चहिये क्योंकि यह समय बेहद अशुभ माना जाता हैं ।


यज्ञ कुंड के प्रकार :-
यज्ञ कुंड मुख्यत: आठ प्रकार के होते हैं और सभी का प्रयोजन अलग अलग होताहैं ।


1. योनी कुंड – योग्य पुत्र प्राप्ति हेतु ।
2. अर्ध चंद्राकार कुंड – परिवार मे सुख शांति हेतु । पर पतिपत्नी दोनों को एक साथ आहुति देना पड़ती हैं ।
3. त्रिकोण कुंड – शत्रुओं पर पूर्ण विजय हेतु ।
4. वृत्त कुंड – जन कल्याण और देश मे शांति हेतु ।
5. सम अष्टास्त्र कुंड – रोग निवारण हेतु ।
6. सम षडास्त्र कुंड – शत्रुओ मे लड़ाई झगडे करवाने हेतु ।
7. चतुष् कोणा स्त्र कुंड – सर्व कार्य की सिद्धि हेतु ।
8. पदम कुंड – तीव्रतम प्रयोग और मारण प्रयोगों से बचने हेतु ।

तो आप समझ ही गए होंगे की सामान्यतः हमें
चतुर्वर्ग के आकार के इस कुंड का ही प्रयोग करना हैं ।

ध्यान रखने योग्य बाते :-
अबतक आपने शास्त्रीय बाते समझने का प्रयास किया यह बहुत जरुरी हैं । क्योंकि इसके बिना सरल बाते पर आप गंभीरता से विचार नही कर सकते । सरल विधान का यह मतलब कदापि नही की आप गंभीर बातों को ह्र्द्यगम ना करें ।
पर जप के बाद कितना और कैसे हवन किया जाता हैं ? कितने लोग और किस प्रकार के लोग कीआप सहायता ले सकते हैं ?

कितना हवन किया जाना हैं ? हवन करते समय किन किन बातों का ध्यान रखना हैं ? क्या कोई और सरल उपाय भी जिसमे हवन ही न करना पड़े ?

किस दिशा की ओर मुंह करके बैठना हैं ? किस प्रकार की अग्नि का आह्वान करना हैं ? किस प्रकार की हवन सामग्री का उपयोग करना हैं ?

दीपक कैसे और किस चीज का लगाना हैं ? कुछ और आवश्यक सावधानी ? आदि बातों के साथ अब कुछ बेहद सरल बातों को अब हम देखेगे ।

जब शास्त्रीय गूढता युक्त तथ्य हमने समंझ लिए हैं तो अब सरल बातों और किस तरह से करना हैं पर भी कुछ विषद चर्चा की आवश्यकता हैं ।


1. कितना हवन किया जाए?

शास्त्रीय नियम तो दसवे हिस्सा का हैं ।
इसका सीधा मतलब की एक अनुष्ठान मे 1,25,000 जप या 1250 माला मंत्र जप अनिवार्य हैं और इसका दशवा हिस्सा होगा 1250/10 =125 माला हवन मतलब लगभग 12,500 आहुति ।

(यदि एक माला मे 108 की जगह सिर्फ100 गिनती ही माने तो) और एक आहुति मे मानलो 15 second लगे तब कुल 12,500 *

15 = 187500 second मतलब 3125 minute मतलब 52 घंटे लगभग।

तो किसी एक व्यक्ति के लिए इतनी देर आहुति दे पाना क्या संभव हैं ?

2. तो क्या अन्य व्यक्ति की सहायता ली जा सकती हैं? तो इसका

उतर
हैं हाँ । पर वह सभी शक्ति मंत्रो से दीक्षित हो या अपने ही गुरु भाई बहिन हो तो अति उत्तम हैं ।
जब यह भी न संभव हो तो गुरुदेव के श्री चरणों मे अपनी असमर्थता व्यक्त कर मन ही मन उनसे आशीर्वाद लेकर घर के सदस्यों की सहायता ले सकते हैं ।

3. तो क्या कोई और उपाय नही हैं ? यदि दसवां हिस्सा संभव न हो तो शतांश हिस्सा भी हवन किया जा सकता हैं । मतलब 1250/100 = 12.5 माला मतलब लगभग 1250 आहुति = लगने वाला समय = 5/6 घंटे ।यह एक साधक के लिए संभव हैं ।

4. पर यह भी हवन भी यदि संभव ना हो तो ? कतिपय साधक किराए के मकान मे या फ्लेट मे रहते हैं वहां आहुति देना भी संभव नही हैं तब क्या ?

गुरुदेव जी ने यह भी विधान सामने रखा की साधक यदि कुल जप संख्या का एक चौथाई हिस्सा जप और कर देता हैं संकल्प ले कर की मैं दसवाँ हिस्सा हवन नही कर पा रहा हूँ ।

इसलिए यह मंत्र जप कर रहा हूँ तो यह भी संभव हैं । पर इस केस मे शतांश जप नही चलेगा इस बात का ध्यान रखे ।

5. श्त्रुक स्त्रुव :- ये आहुति डालने के काम मे आते हैं ।
स्त्रुक 36 अंगुल लंबा और स्त्रुव 24 अंगुल लंबा होना चाहिए । इसका मुंह आठ अंगुल और कंठ एक अंगुल का होना चाहिए । ये दोनों स्वर्ण रजत पीपल आमपलाश की लकड़ी के बनाये जा सकते हैं ।

6. हवन किस चीज का किया जाना चाहिये ?
• शांति कर्म मे पीपल के पत्ते, गिलोय, घी का ।
• पुष्टि क्रम मे बेलपत्र चमेली के पुष्प घी ।
• स्त्री प्राप्ति के लिए कमल ।
• दरिद्रयता दूर करने के लिये दही और घी का ।
• आकर्षण कार्यों मे पलाश के पुष्प या सेंधा नमक से ।
• वशीकरण मे चमेली के फूल से ।
• उच्चाटन मे कपास के बीज से ।
• मारण कार्य मे धतूरे के बीज से हवन किया जा ना चाहिए ।


7. दिशा क्या होना चाहिए ?
साधरण रूप से जो हवन कर रहे हैं वह कुंड के पश्चिम मे बैठे और उनका मुंह पूर्व दिशा की ओर होना चाहिये । यह भी विशद व्याख्या चाहता हैं । यदि षट्कर्म किये जा रहे हो तो ;

• शांती और पुष्टि कर्म मे पूर्व दिशा की ओर हवन कर्ता का मुंह रहे ।
• आकर्षण मे उत्तर की ओर हवन कर्ता मुंह रहे और यज्ञ कुंड वायु कोण मे हो ।

• विद्वेषण मे नैरित्य दिशा की ओर मुंह रहे यज्ञ कुंड वायु कोण मे रहे ।

• उच्चाटन मे अग्नि कोण मे मुंह रहे यज्ञ कुंड वायु कोण मे रहे ।

• मारण कार्यों मे – दक्षिण दिशा मे मुंह और दक्षिण दिशा मे हवन हुंड हो ।

8. किस प्रकार के हवन कुंड का उपयोग किया जाना चाहिए ?
• शांति कार्यों मे स्वर्ण, रजत या ताबे का हवन कुंड होना चाहिए ।
• अभिचार कार्यों मे लोहे का हवन कुंड होना चाहिए।
• उच्चाटन मे मिटटी का हवन कुंड ।
• मोहन कार्यों मे पीतल का हवन कुंड ।
• और ताबे का हवन कुंड मे प्रत्येक कार्य मे उपयोग की या जा सकता हैं ।

9. किस नाम की अग्नि का आवाहन किया जाना चाहिए ?
• शांति कार्यों मे वरदा नाम की अग्नि का आवाहन किया जाना चहिये ।
• पुर्णाहुति मे मृडा नाम की ।
• पुष्टि कार्योंमे बल द नाम की अग्नि का ।
• अभिचार कार्योंमे क्रोध नाम की अग्नि का ।
• वशीकरण मे कामद नाम की अग्नि का आहवान किया जाना चहिये ।

10. कुछ ध्यान योग बाते :-
• नीम या बबुल की लकड़ी का प्रयोग ना करें ।
• यदि शमशान मे हवन कर रहे हैं तो उसकी कोई भी चीजे अपने घर मे न लाये ।
• दीपक को बाजोट पर पहले से बनाये हुए चन्दन के त्रिकोण पर ही रखे ।
• दीपक मे या तो गाय के घी का या तिल का तेल का प्रयोग करें ।
• घी का दीपक देवता के दक्षिण भाग मे और तिल का तेल का दीपक देवता के बाए ओर लगाया जाना चाहिए ।
• शुद्ध भारतीय वस्त्र पहिन कर हवन करें ।
• यज्ञ कुंड के ईशान कोण मे कलश की स्थापना करें ।
• कलश के चारो ओर स्वास्तिक का चित्र अंकित करें ।
• हवन कुंड को सजाया हुआ होना चाहिए ।




ध्वज और पताका


ध्वज और पताका अलग-अलग होते हैं दोनों को ही हम झंडा मान सकते हैं। पताका त्रिकोणाकार होती है जबकि ध्वजा चतुष्कोणीय। प्रत्येक हिन्दू देवी या देवता अपने साथ अस्त्र-शस्त्र तो रखते ही हैं साथ ही उनका एक ध्वज भी होता है। यह ध्वज उनकी पहचान का प्रतीक माना गया है।

युद्ध में ध्वजों का प्रयोग भी ग्रन्थों में वर्णित है। ऋगवेद संहिता के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में भी ध्वज प्रयोग का उल्लेख है। इनके आकार अनुसार कई नाम थे जैसे कि अक्रः. कृतध्वजः, केतु, बृहतकेतु, सहस्त्रकेतु आदि। ध्वज तथा नगाड़े, दुन्दभि आदि सैन्य गरिमा के चिन्ह माने जाते थे। महाभारत में प्रत्येक महारथी और रथी के पास उसका निजी ध्वज और शंखनाद सेेना नायक की पहचान के प्रतीक थे।



1.ब्रह्मा की ध्वजा :हंस ध्वजा

2.विष्णु की ध्वजा :गरुढ़ ध्वजा

3.महेश की ध्वजा :वृषभ ध्वजा

4.दुर्गा की ध्वजा :सिंह ध्वजा

5.गणेश की ध्वजा :कुम्भ ध्वजा एवं मूषक ध्वजा

6.कार्तिकेय की ध्वजा :मयूर ध्वजा

7.वरुणदेव की ध्वजा :मकर ध्वजा

8.अग्निदेव की ध्वजा :धूम ध्वजा

9.कामदेव की ध्वजा :मकर (मगरमच्छ नहीं) ध्वजा

10.इंद्रदेव की ध्वजा : एरावत और वैजयंति ध्वजा

11.यमराज की ध्वजा :भैंसा ध्वजा



*अर्ध चंद्र :भारत में जगन्नाथ मंदिर के ध्वज सहित शिव और दुर्गा के कई मंदिरों पर अर्ध चंद्र अंकित ध्वज फहराया जाता है। यह अर्द्धचन्द्र शाक्त, शैव और चन्द्रवंशियों के पंथ का प्रतीक चिह्न है। मध्य एशिया में यह मध्य एशियाई जाति के लोगों के ध्वज पर बना होता था। चंगेज खान के झंडे पर अर्द्धचन्द्र होता था। इस्लाम का प्रतीक चिह्न है अर्द्धचन्द्र। अर्धचंद्र अंकित ध्वज पर होने का अपना ही एक अलग इतिहास है।



*नाग ध्वज :बहुत से शैव और नाग मंदिरों पर नाग ध्वज होता है जिस पर नाग का चिह्न अंकित रहता है।



*सूर्य :भगवान सूर्य (विवास्वान) वंशज को सूर्यवं‍शी कहा गया है। सूर्यवंशियों के ध्वज पर सूर्य का चिन्ह अंकित होता है।



*ओम और स्वस्तिक :केसरिया रंग के हिन्दू ध्वज पर ओम और स्वस्तिक का चिन्ह होता है।



रामायण और महाभारत में ध्वज :अर्जुन की ध्वजा पर हनुमान का चित्र अंकित था। कृपाचार्य की ध्वजा पर सांड, मद्रराज की ध्वजा पर हल, अंगराज वृषसेन की ध्वजा पर मोर और सिंधुराज जयद्रथ के झंडे पर वराह की छवि अंकित थी। गुरू द्रोणाचार्य के ध्वज पर सौवर्ण वेदी का चित्र था तो घटोत्कच के ध्वज पर गिद्ध विराजमान था। दुर्योधन के झंडे पर रत्नों से बना हाथी था जिसमें अनेक घंटियां लगी हुई थीं। इस तरह के झंडे को जयन्ती ध्वज कहा जाता था। श्रीकृष्ण के झंडे पर गरूड़ अंकित था। बलराम के झंडे पर ताल वृक्ष की छवि अंकित होने से तालध्वज कहलाता था।



महाभारत में शाल्व के शासक अष्टमंगला ध्वज रखते थे। महीपति की ध्वजाओं पर स्वर्ण, रजत एवं ताम्र धातुओं से बने कलश आदि चित्रित रहते थे। इनकी एक ध्वजा सर्वसिद्धिदा कहलाती थी। इस ध्वजा पर रत्नजडित घडियाल के चार जबड़े अंकित होते थे। एक अन्य प्राचीन ग्रंथ में लिखा है कि झंडे के ऊपर बाज, वज्र, मृग, छाग, प्रासाद, कलश, कूर्म, नीलोत्पल, शंख, सर्प और सिंह की छवियां अंकित होनी चाहिए।



वैदिक एवं पौराणिक ग्रंथों के अनुसार ऋग्वेद काल में धूमकेतु झंडे का खूब प्रयोग होता था। वाल्मीकि रामायण में भी शहर, शिविर, रथयात्रा और रण क्षेत्र के बारे में झंडे का उल्लेख मिलता है। निषादराज गुह की नौकाओं पर स्वस्तिक ध्वज लहराता था। महाराज जनक का सीरध्वज और इनके भाई के पास कुषध्वज था। कोविदार झंडे कौशल साम्राज्य का था।



ध्वजों के प्रकार :रणभूमि में अवसर के अनुकूल आठ प्रकार के झंड़ों का प्रयोग होता था। ये झंडे थे- जय, विजय, भीम, चपल, वैजयन्तिक, दीर्घ, विषाल और लोल। ये सभी झंडे संकेत के सहारे सूचना देने वाले होते थे। विषाल झंडा क्रांतिकारी युद्ध का तथा लोल झंडा भयंकर मार-काट का सूचक था।



*जय :जय झंडा सबसे हल्का तथा रक्त वर्ण का होता था। यह विजय का सूचक माना जाता है। इसका दंड पांच हाथ लम्बा होता है।

*विजय :विजय ध्वज की लम्बाई छह हाथ होती है। श्वेत वर्ण का यह ध्वज पूर्ण विजय के अवसर पर फहराया जाता था।

*भीम :अरुण वर्ण का भीम ध्वज सात हाथ लम्बा होता था और लोमहर्षण युद्ध के अवसर पर इसे फहराया जाता था।

*चपल :चपल ध्वज पीत वर्ण का होता था तथा आठ हाथ लम्बा होता है। विजय और हार के बीच जब द्वन्द्व चलता था, उस समय इसी चपल ध्वज के माध्यम से सेनापति को युद्ध-गति की सूचना दी जाती थी।

*वैजयन्तिक: वैजयन्तिक ध्वज नौ हाथ लम्बा तथा विविध रंगों का होता था।

दीर्घ : दीर्घ ध्वज की लम्बाई दस हाथ होती है। यह नीले रंग का होता है। युद्ध का परिणाम जब शीघ्र ज्ञात नहीं हो सकता था तो उस समय यही झंडा प्रयुक्त होता है।

*विशाल :विशाल ध्वज ग्यारह हाथ लम्बा और धारीवाल होता है।

*लोल :लोल झंडा बारह हाथ लम्बा और कृष्ण वर्ण का होता है

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