Saturday, June 22, 2019

गोरक्ष मंत्र

 मन्त्रः-
“ॐ गों गोरक्षनाथ महासिद्धः, सर्व-व्याधि विनाशकः ।
विस्फोटकं भयं प्राप्ते, रक्ष रक्ष महाबल ।। १।।
यत्र त्वं तिष्ठते देव, लिखितोऽक्षर पंक्तिभिः ।
रोगास्तत्र प्रणश्यन्ति, वातपित्त कफोद्भवाः ।। २।।
तत्र राजभयं नास्ति, यान्ति कर्णे जपाः क्षयम् ।
शाकिनी भूत वैताला, राक्षसा प्रभवन्ति न ।। ३।।
नाऽकाले मरणं तस्य, न च सर्पेण दश्यते ।
अग्नि चौर भयं नास्ति, ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं गों ।। ४।।
ॐ घण्टाकर्णो नमोऽस्तु ते ॐ ठः ठः ठः स्वाहा ।।”



विधिः- यह मंत्र तैंतीस हजार या छत्तीस हजार जाप कर सिद्ध करें । इस मंत्र के प्रयोग के लिए इच्छुक उपासकों को पहले गुरु-पुष्य, रवि-पुष्य, अमृत-सिद्धि-योग, सर्वार्त-सिद्धि-योग या दिपावली की रात्रि से आरम्भ कर तैंतीस या छत्तीस हजार का अनुष्ठान करें । बाद में कार्य साधना के लिये प्रयोग में लाने से ही पूर्णफल की प्राप्ति होना सुलभ होता है ।
विभिन्न प्रयोगः- इस को सिद्ध करने पर केवल इक्कीस बार जपने से राज्य भय, अग्नि भय, सर्प, चोर आदि का भय दूर हो जाता है । भूत-प्रेत बाधा शान्त होती है । मोर-पंख से झाड़ा देने पर वात, पित्त, कफ-सम्बन्धी व्याधियों का उपचार होता है ।
१॰ मकान, गोदाम, दुकान घर में भूत आदि का उपद्रव हो तो दस हजार जप तथा दस हजार गुग्गुल की गोलियों से हवन किया जाये, तो भूत-प्रेत का भय मिट जाता है । राक्षस उपद्रव हो, तो ग्यारह हजार जप व गुग्गुल से हवन करें ।
२॰ अष्टगन्ध से मंत्र को लिखकर गेरुआ रंग के नौ तंतुओं का डोरा बनाकर नवमी के दिन नौ गांठ लगाकर इक्कीस बार मंत्रित कर हाथ के बाँधने से चौरासी प्रकार के वायु उपद्रव नष्ट हो जाते हैं ।
३॰ इस मंत्र का प्रतिदिन १०८ बार जप करने से चोर, बैरी व सारे उपद्रव नाश हो जाते हैं तथा अकाल मृत्यु नहीं होती तथा उपासक पूर्णायु को प्राप्त होता है ।
४॰ आग लगने पर इक्कीस बार पानी को अभिमंत्रित कर छींटने से आग शान्त होती है ।
५॰ मोर-पंख से इस मंत्र द्वारा झाड़े तो शारीरिक नाड़ी रोग व श्वेत कोढ़ दूर हो जाता है ।
६॰ कुंवारी कन्या के हाथ से कता सूत के सात तंतु लेकर इक्कीस बार अभिमंत्रित करके धूप देकर गले या हाथ में बाँधने पर ज्वर, एकान्तरा, तिजारी आदि चले जाते हैं ।
७॰ सात बार जल अभिमंत्रित कर पिलाने से पेट की पीड़ा शान्त होती है ।
८॰ पशुओं के रोग हो जाने पर मंत्र को कान में पढ़ने पर या अभिमंत्रित जल पिलाने से रोग दूर हो जाता है । यदि घंटी अभिमंत्रित कर पशु के गले में बाँध दी जाए, तो प्राणि उस घंटी की नाद सुनता है तथा निरोग रहता है ।
९॰ गर्भ पीड़ा के समय जल अभिमंत्रित कर गर्भवती को पिलावे, तो पीड़ा दूर होकर बच्चा आराम से होता है, मंत्र से १०८ बार मंत्रित करे ।
१०॰ सर्प का उपद्रव मकान आदि में हो, तो पानी को १०८ बार मंत्रित कर मकानादि में छिड़कने से भय दूर होता है । सर्प काटने पर जल को ३१ बार मंत्रित कर पिलावे तो विष दूर हो ।

 इष्ट सिद्धि हेतु इष्टदेवता के ‘कुल्लुकादि मंत्रों’ का जप अत्यन्त आवश्यक हैं ।
अज्ञात्वा कुल्लुकामेतां जपते योऽधमः प्रिये ।
पञ्चत्वमाशु लभते सिद्धिहानिश्च जायते ।।
दश महाविद्याओं के कुल्लिकादि अलग-अलग हैं । काली के कुल्लुकादि इस प्रकार हैं -
कुल्लुका मंत्र -
क्रीं, हूं, स्त्रीं, ह्रीं, फट् यह पञ्चाक्षरी मंत्र हैं । मूलमंत्र से षडङ्ग-न्यास करके शिर में १२ बार कुल्लुका मंत्र का जप करें ।
सेतुः-
“ॐ” इस मंत्र को १२ बार हृदय में जपें । ब्राह्मण एवं क्षत्रियों का सेतु मंत्र “ॐ” हैं । वैश्यों के लिये “फट्” तथा शूद्रों के लिये “ह्रीं” सेतु मंत्र हैं । इसका १२ बार हृदय में जप करें ।
महासेतुः-
“क्रीं” इस महासेतु मंत्र को कण्ठ-स्थान में १२ बार जप करें ।
निर्वाण जपः-
मणिपूर-चक्र (नाभि) में - ॐ अं पश्चात् मूलमंत्र के बाद ऐं अं आं इं ईं ऋं ॠं लृं ॡं एं ऐं ओं औं अं अः कं खं गं घं ङ चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं ळं क्षं ॐ का जप करें । पश्चात् “क्लीं” बीज को स्वाधिष्ठान चक्र में १२ बार जप करें । इसके बाद “ॐ ऐं ह्रीं शऽरीं क्रीं रां रीं रुं रैं रौं रं रः रमल वरयूं राकिनी मां रक्ष रक्ष मम सर्वधातून् रक्ष रक्ष सर्वसत्व वशंकरि देवि ! आगच्छागच्छ इमां पूजां गृह्ण गृह्ण ऐं घोरे देवि ! ह्रीं सः परम घोरे घोर स्वरुपे एहि एहि नमश्चामुण्डे डरलकसहै श्री दक्षिण-कालिके देवि वरदे विद्ये ! इस मन्त्र का शिर में द्वादश बार जप करें । इसके बाद ‘महाकुण्डलिनी’ का ध्यान कर इष्टमंत्र का जप करना चाहिए । मंत्र सिद्धि के लिये मंत्र के दश संस्कार भी आवश्यक हैं ।
जननं जीवनं पश्चात् ताडनं बोधनं तथा ।
अथाभिषेको विमलीकरणाप्यायनं पुनः ।
तर्पणं दीपनं गुप्तिर्दशैताः मंत्र संस्क्रियाः ।।

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