सूक्ष्म प्रकृति में हलचलें उत्पन्न कर, भौतिक जगत को प्रभावित करने में यज्ञ प्रक्रिया पूरी तरह समर्थ है। इस सामर्थ्य का विज्ञान काफी गहरा और विस्तृत है। प्रयोजन क्या है? इस हेतु चेतना जगत में किस तरह की तरंगें पैदा करनी है, इसी के अनुरूप यज्ञ के प्रकार हवनकुण्ड का स्वरूप, कर्मकाण्ड का निर्धारण तय करना पड़ता है। यही कारण है कि यज्ञवेत्ता महर्षियों ने अपने गहन शोध प्रयासों के बाद इस सम्बन्ध में अनेकानेक प्रयोग पव्तियों- तरह-तरह के कर्मकाण्ड विधानों का अन्वेषण किया। इसकी व्यापकता का स्पष्ट बोध कराने के लिए महाग्रन्थों के कलेवर भी बौनापन अनुभव करने लगेंगे। लेख की पंक्तियाँ तो सिर्फ झलक दर्शाने की कोशिश भर कर सकती हैं। यज्ञवेत्ताओं के अनुसार-विवाहोपरान्त विधिपूर्वक अग्नि स्थापना का निर्देश है। इसे स्मार्ताग्नि कहते हैं। जिसमें साँय, प्रातः, नित्य हवनादि सम्पन्न किए जाते हैं। (2) गार्हपत्य, आह्वानीय और दक्षिणाग्नि के विधिपूर्वक स्थापन को ‘श्रौताधान’ कहते हैं। इन अग्नियों में किए जाने वाले यज्ञों का नाम श्रौतकर्म है। (3) दर्ष पूर्ण मास याग- अमावस्या और पूर्णिमा का होने वाले यज्ञ को क्रमशः दर्ष और पौर्णमास यज्ञ कहते हैं। (5) प्रतिवर्ष वर्षाऋतु में अथवा उत्तरायण और दक्षिणायन में संक्रान्ति के दिन एक बार जो यज्ञ किया जाता है, उसे “निरुढ़पषु-बन्ध” कहते हैं। (6) आग्रयण यज्ञ- प्रति वर्ष वसन्त और शरदऋतु में नवीन यव और चावल से जो यज्ञ किया जाता है, उसे आग्रयण या नवान्न यज्ञ कहते हैं। (7) सौत्रामणि यज्ञ:− इन्द्र के निमित्त जो यज्ञ किया जाता है, उसे सौत्रामणि यज्ञ कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है-स्वतन्त्र और अंगभूत। (8) सोमयाग- सोम लता द्वारा जो यज्ञ किया जाता है, उसे सोमयाग कहते हैं। इसके सोलह ऋत्विक् होते हैं। दक्षिणा लेकर यज्ञ करने वाले ऋत्विक् कहलाते हैं। सोमयाग के सोलह ऋत्विकों के भी चार प्रकार हैं’1-अध्वर्युगण 2- ब्रह्मगण 3-होतृगण 4-उद्गातगण सोमयाग के सात भेद हैं- (1) अग्निष्टोम :- अग्निष्टोम साम में जिस यज्ञ की समाप्ति हो और उसके बाद अन्य साम न पढ़ा जाय, उसे अग्निष्टोम कहते हैं। इसी प्रकार (2) उक्थ्य साम (3) षोडशी साम (4) बाजपेय साम (5) अतिरात्र साम और (6) असोर्याम नामक साम पढ कर जिन यज्ञों की समाप्ति होती है, वे यज्ञक्रम से उक्थ्य आदि नामों से पुकारे जाते हैं। अग्निष्टोम साम के अननतर षोडशी साम जिस यज्ञ में पढ़ा जाता है, वह अत्यग्निष्टोम कहा जाता है। (9) क्षदशाह यज्ञ :- यह सत्र और ‘अहीन’ भेद से दो प्रकार का होता है। जिनमें सोलहों ऋत्विक्, आहिताग्नि ब्राह्मण और बिना दक्षिणा वाले हों, उसे सत्र कहते हैं। दो सुत्या से ग्यारह सुत्याः (प्रातः सायं, मध्याह्न तीनों समय हवन को एक सुत्या कहते है) जिस यज्ञ में हों और आदि अन्त में ‘अतिरात्र’ नामक यज्ञ हो तथा अनेक यजमानकर्ता हों ऐसे सोमयाग को ‘अहीन’ कहते हैं। (10) गवानयन यज्ञ- यह सत्र 385 दिनों का होता है। इसमें 12 दीक्षा, 12 उपसद तथा 361 सुत्या होती हैं। (11) वाजपेय यज्ञ- इस यज्ञ के आदि और अन्त में अग्निष्टोम यज्ञ होता है। इसमें सत्रह- सत्रह हाथ के यूप होते हैं। यह चालीस दिन में सम्पन्न होता है। (12) राजसूय यज्ञ- इसमें अनुमति आदि बहुत सी इष्टि और पवित्र आदि बहुत से यज्ञ होते हैं। यह यज्ञ 33 महीने में पूरा होता है। साँस्कृतिक दिग्विजय करने में समर्थ सार्वभौम लोकनायक ही इसे सम्पन्न करते है। (13) चयन याग-जिस यज्ञ में ईंटों के द्वारा वेदी निर्माण हो, उसे चयनयाग कहते हैं। यह वेदी 10 हाथ लम्बी और चौड़ी होती है, जिसे आत्मा कहते है। इसके दक्षिण और उत्तर की ओर छ:−छः हाथ का चबूतरा बनता है जिसको दक्षिण पक्ष और उत्तर पक्ष कहते हैं। पश्चिम की ओर बने साढ़े पाँच चबूतरे को पुच्छ कहते हैं। इसकी ऊँचाई पाँच हाथ की होती है। अतः इसको पंचचितिक स्थण्डिल कहते हैं। इसे बनाने में चौदह तरह की ईंटें लगती हैं। चयन याग के चबूतरे में समस्त इष्टिकाएँ 11170 होती हैं। (14) पुरुष मेध यज्ञ- इस यज्ञ में पुरुष आदि यूप में बाँधकर छोड़ दिए जाते हैं। इसमें 11 यूप होते हैं और चालीस दिन में समाप्त होता है। यज्ञ करने के बाद वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण किया जा सकता है। (15) सर्वमेध यज्ञ:− इस यज्ञ में सभी प्रकार की वनस्पतियों और अन्नों का हवन होता है। यह यज्ञ 34 दिन में समाप्त होता है। (16) पितृमेध यज्ञ- इस यज्ञ में मृत्पित्रादि का अस्थिदाह होता है। इसमें ऋत्विक् केवल अध्यर्यु होता है। (17) यकाह यज्ञ- एक दिन साध्य यज्ञ को एकाह यज्ञ कहते हैं। जिन यज्ञों में एक सुत्या होता है, ऐसे सोमयाग, विश्वजित, सर्वजित, भूष्टोमं आदि सौ से अधिक यज्ञ तत्तत्सूत्रों में विहित हैं। (18) अहीन यज्ञ- दो सुत्या से लेकर ग्यारह सुत्या तक को ‘अहीन’ यज्ञ कहते हैं। ये भी विभिन्न नामों से शताधिक सूत्रों में विदित हैं। (19) अश्वमेध यज्ञ- साँस्कृतिक-दिग्विजय करने वाले लोकनायक इस यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं। इसे यज्ञों का राजा कहा गया है। इसके दृश्य और अदृश्य जगत में अनेकों चमत्कारी परिणाम उत्पन्न होते हैं। इस यज्ञ में दिग्विजय के लिए घोड़ा छोड़ा जाता है। इसमें 21 हाथ के 21 यूप होते हैं। (20) बारह से सोलह तक अठारह से तैंतीस, पैंतीस से चालीस, उनचास, एक षत, तीन सौ आठ और 1000 सुत्या वाले जो अनेकों सोमयाग हैं उन्हें सत्र कहते हैं। यज्ञों के स्वरूप और प्रकार भेद के अनुरूप कुण्ड के आकार-प्रकार की विशिष्टता का चुनाव करना पड़ता है। जिन्हें सूक्ष्म दृष्टि प्राप्त है, वे अनुभव कर सकते हैं कि हवन कुण्ड अन्तरिक्ष में संव्याप्त बृहत्सोम के अवतरण का आधार है। इसमें देवशक्तियों की अनुग्रह वर्षा उतर कर यज्ञ धूम के साथ-समूचे विश्व में फैल जाती है। उसका निर्माण भी आहुतियों के आधार पर प्रयोजनकर्ता के उद्देश्य पर निर्भर है। ‘कुण्डसिद्धि’-कार के अनुसार पचास से सौ आहुति देनी हो तो कुहनी से कनिष्ठिका के मान का एक हजार आहुति में हाथ भर का, दस हजार आहुति के लिए दो हाथ का, एक लाख आहुति हेतु चार हाथ का तथा दस लाख और एक करोड़ आहुति के लिए क्रमशः छः हाथ और सोलह हाथ का हवनकुण्ड बनाना चाहिए। भविष्योत्तर पुराण शारदातिलक, स्कन्द पुराण में भी कुछ इसी तरह के कथन देखने को मिलते हैं। इनकी कुछ और विशेषताओं को स्पष्ट करते हुए कुण्डसिद्धि कार का मत है- वेदाक्षीणि युगाग्नयः शशियुगान्यष्टाव्यय स्त्रीषवोऽष्टाक्षा याहृतरसा स्वाराँगकमिता नेर्त्रषयोऽक्षस्वराः। अं्गुल्योऽथ यवाः खमभ्रमिषवः खं पंचषट् सागराः, समाभ्रंगु नयस्तवभोनिगदितावेदास्र के बाहवाः। अर्थात्-एक हाथ के कुण्ड का आयास विस्तार 24 अंगुल का, दो हाथ का हो तो 34 अंगुल का, तीन हाथ का हो तो 41 अंगुल और 5 हाव का, चार हाथ का हो तो 48 अंगुल और 5 यव, व 6 हाथ का कुण्ड हो तो 49 अंगुल 7 यव, सात हाथ का कुण्ड हो तो 63 अंगुल और 4 यव, आठ हाथ का कुण्ड हो तो 66 अंगुल और 7 यव, नव हाथ का कुण्ड हो तो 72 अंगुल और दस हाथ का कुण्ड हो तो 76 अंगुल और 7 यव के प्रमाण से आयाम विस्तार होना चाहिए। इन्हें चतरस्र कुण्ड के भुज कहा गया है। जिस प्रकार ताँत्रिक उपासनाओं में प्रयोग किए जाने वाले यंत्र-कागज अथवा धातु पत्र पर खिंची आड़ी तिरछी रेखाएँ भर नहीं है। इनकी देवशक्तियों की प्रतिकृति मानकर-तद्नुरूप शक्तियों का आकर्षित किया जाता है। उसी प्रकार कुण्ड निर्माण का आधार सौंदर्य को उत्कीर्ण करना भर नहीं हैं। इनकी विभिन्न आकृतियों के उद्देश्य अनेकानेक शक्तिधाराओं का आकर्षण समझा जाना चाहिए। इसी कारण से शास्त्रकारों ने इन्हें शिल्पियों द्वारा ठीक-ठाक तैयार करवाने का निर्देश दिया है। आधुनिक प्रचलित क्रियाओं में चतुष्कोण, अर्धचंद्र, समअष्टास्र, पद्य, समषडस्र इनके चित्र साथ को पृष्ठ पर देखे जा सकते हैं। आयाम विस्तार की भाँति ही कुण्ड सिद्धि और शारदा तिलक में कुण्ड की गहराई का विवेचन प्राप्त होता है। इसके अनुरूप जितना कुण्ड का विस्तार और आयाम हो उतना गहरा प्रथम मेखला तक करना चाहिए। तथा गहराई चौबीसवें भाग में कुण्ड का निर्माण होना श्रेष्ठ है। “क्रियासार” और लक्षण संग्रह के अनुसार एक मेखला वाला कुण्ड अधम, दो मेखला वाला मध्यम और तीन मेखला वाला उत्तम होता है। कुछ विद्वानों के अनुसार पाँच मेखला वाला कुण्ड उत्तम है। इन मेखलाओं में सत्व, रजस और तमस् की भावना से तीनों रंग भरे जाते हैं। मेखलाएं पाँच हों वहाँ पंचतत्व की भावना से रंगने का विधान है। कुण्ड निर्माण का विषय ज्यामिति, भूमिति, क्षेत्रमिति और वास्तुशास्त्र से अधिक संबंध रखता है। इस संबंध में अधिक रुचि रखने वाले जिज्ञासुओं को कुण्डसिद्धि, भविष्य पुराण, वायु, पुराण, अनुष्ठान प्रकाश, पंचरात्र क्रियासार समुच्चय शारदातिलक आदि ग्रंथों का अवलोकन-अध्ययन करना चाहिए। कुण्डों की रचना में भिन्नता का उद्देश्य यह है कि काम्यकर्मों की प्रधानता के अनुसार उद्देश्यों की भिन्नता के अनुरूप, अलग-अलग आकार वाले भिन्न-भिन्न दशाओं में कुण्ड बनाने से फल सिद्धि शीघ्र होती है। बहवृच परिशिष्टादि ग्रंथों में कहा है- भुक्तौ-मुक्तौ तथा पुष्टौ जीर्णोद्धारे विशेषतः। सदा होमे तथा शान्तौ वृतं वरुणादिग्मतम्। अर्थात्-भुक्ति-मुक्ति पुष्टि, जीर्णोद्धार, नित्य हवन तथा शाँति के लिए पश्चिम दिशा में वृत्ताकार कुण्ड का निर्माण करना चाहिए। इसी प्रकार दिशा भेद का विशेष स्पष्टीकरण करते हुए अन्य ग्रंथकारों ने लिखा है-स्तम्भन के लिए पूर्व दिशा में चतुरस, भोग प्राप्ति के लिए अग्निकोण में योनि के आकार वाला, मारण के लिए दक्षिण दिशा में अर्धचंद्र, अथवा नैऋत्य कोण में त्रिकोण शाँति के लिए पश्चिम में वृत, उच्चाटन के लिए वायव्यकोण में षडस्र, पौष्टिक कर्म के लिए उत्तर में पद्याकृति और मुक्ति के लिए ईशान में अष्टास्र कुण्ड प्रयुक्त होते हैं। इनमें से कुछ विशिष्ट कार्यों के लिए भी प्रयुक्त होते हैं- पुत्र प्राप्ति के लिए योनिकुण्ड, भूत, प्रेत और ग्रहबाधा विनाश के लिए पंचास्र अथवा धनुर्ज्यावृत्ति, अभिचार दोष के लिए सप्तास्र का प्रयोग होता है। नित्य नैमित्तिक हवन में यदि हवनकुण्ड के निर्माण की सामर्थ्य न हो-तो शारदा तिलक के अनुसार “नित्य नैमित्तिक होमं स्थण्डिलें वासभाचरेत” अर्थात् -चार अंगुल ऊँचा, एक हाथ लम्बा चौड़ा सुवर्णवर्ण पीली मिट्टी अथवा बालू रेती का स्थण्डिल बनाया जा सकता है। शास्त्रकारों के अनुसार कुण्डमेव विधानस्यात स्थण्डिलेवा समाचरेत स्थण्डिल (वेदिका) का वही स्थान है जो कुण्ड का है। शास्त्रों में यज्ञ के द्वारा बताए गये परिणामों को जीवन में चरितार्थ करने के लिए जरूरी है-यज्ञ विधान और उपकरणों की विशेषताएं और सूक्ष्मताएं भी समझी और व्यवहार में लायी जायँ। इस दृष्टि से वर्तमान समय में सम्पन्न की जा रही अश्वमेध महायज्ञों की श्रृंखला को अभूतपूर्व कहा जा सकता है। इसे अंतरिक्ष और दृश्य जगत में नवयुग के अनुरूप वातावरण विनिर्मित करने वाले समर्थ प्रयोग के रूप में लिया जाना चाहिए। एक वैज्ञानिक प्रयोगकर्ता-जिस तरह अपने प्रयोग के सिद्धाँतों, विधानों, उपकरणों की बारीकियों को समझता और व्यवहार में लाता है। कुछ वैसा ही यह अश्वमेध प्रयोग है। इसमें प्रयोग किये जाने वाले कुण्ड, मण्डप, कर्मकाण्ड सभी शास्त्र पद्धति के अनुसार होंगे। इसके परिणाम जहाँ आश्वमेधिक फलितार्थ को साकार करेंगे। वहीं भूल–बिसर चुकी वैदिक प्रक्रियाओं-परंपराओं का सशक्त शिक्षण भी संपन्न होगा। इतना ही क्यों-महायज्ञ में भाग लेने वाले होता गण इस तत्व की जीवंत अनुभूति कर सकेंगे कि वे वैदिक युग के महर्षिगणों में से एक हैं। अनुभूति की यह निधि उन्हें जीवन पर्यन्त ऋषित्व के उदय और विकास के लिए प्रेरित करती रहेगी।
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