Thursday, June 6, 2019

दक्षिणा विचार


 दक्षिणा की धार्मिक कथा

प्राचीन काल में गोलोक में भगवान श्री कृष्ण की प्रेयसी यानी प्रेमिका सुशीला नामक एक गोपी थी। सुशीला को भगवती राधा के मुख्य सखी होने का सौभाग्य प्राप्त था। उत्तम रूप एवं गुण वाली सुशीला भगवान श्रीकृष्ण से बहुत अधिक प्रेम करती थी और भगवान श्रीकृष्ण की उसे विशेष कृपा प्राप्त थी। एक बार किसी कारणवश राधा ने उससे कह दिया – “आज से तुम गोलोक नहीं आ सकोगी।” उसी समय भगवान श्रीकृष्ण अंतर्ध्यान हो गए तब उनके विरह में व्याकुल होकर राधा बार-बार उन्हें पुकारने लगी और उनका नाम स्मरण करने लगी किंतु फिर भी वे उपस्थित नहीं हुए।

तब राधा अत्यंत विनीत होकर कहने लगी कि हे स्वामी मैं आप के रहस्य को नहीं जान सकी। मुझसे भूल हो गई मुझे क्षमा कर दो स्वामी और दर्शन दे दो। तब जगत के पालनहार श्री कृष्ण उपस्थित हुए| उसी समय राधा की मुख्य सखी सुशीला वहां से चली गई और देवी दक्षिणा (Dakshina) के रूप में प्रकट हुई।

देवी दक्षिणा के प्रकट होने की कथा

बहुत ही लंबी अवधि तक तपस्या करके दक्षिणा ने भगवती लक्ष्मी के विग्रह में स्थान पा लिया| तब महान यज्ञ करने पर भी देवताओं को फल की प्राप्ति नहीं होती थी| जिससे वे उदास और चिंतित होकर ब्रह्मा जी के पास गए तब ब्रह्मा जी ने भगवान श्रीहरि का ध्यान किया। तब भगवान श्री हरि नारायण ने मृत्युलोक की लक्ष्मी को महालक्ष्मी के दिव्य विग्रह से प्रकट करके दक्षिणा नाम प्रदान किया। इसके बाद देवी दक्षिणा को यज्ञ पुरुष के निकट रहने की व्यवस्था कर दी। यज्ञ पुरुष ने उन देवी दक्षिणा को अपनी पत्नी के रुप में स्वीकार किया। कुछ काल के बाद दक्षिणा ने गर्भधारण किया और सभी शुभ लक्षणों से पूर्ण एक पुत्र को जन्म दिया। कर्म समाप्त होने पर फल प्रदान करना उस पुत्र का गुण हुआ।

इस प्रकार यज्ञ भगवान और देवी दक्षिणा उस फलदाता पुत्र को पाकर सभी के कर्मों का फल प्रदान करने लगे। इससे देवताओं के प्रसन्नता की सीमा न रही। वे सभी यज्ञ भगवान, देवी दक्षिणा और उनके फल दाता पुत्र का गुणगान करने लगे।

दक्षिणा न देने के परिणाम



कर्ता के लिए उचित है कि कर्म करने के पश्चात दक्षिणा अवश्य दें, तभी उसे फल प्राप्त होगा। यदि किसी कारणवश अथवा अज्ञान के कारण ब्राह्मण को दक्षिणा नहीं दे पाता तो दक्षिणा की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती चली जाती है और यजमान का संपूर्ण कर्म निष्फल हो जाता है। उस पाप के फलस्वरूप लक्ष्मी उस घर को छोड़कर चली जाती है जिससे वह निर्धन और दरिद्र हो जाता है। देवता उसकी पूजा और अग्नि में दी हुई आहुति स्वीकार नहीं करते। भगवती लक्ष्मी के दाहिने कंधे से यह देवी प्रकट हुई इसलिए इसका नाम दक्षिणा पड़ा।

गुरु दक्षिणा के उदाहरण
शास्त्रों में दक्षिणा के रूप में किए गए महान त्याग के उदाहरण भी देखने को मिलते हैं| श्रीकृष्ण के गुरु संदीपन ने भी गुरु दक्षिणा के रूप में अपने अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए पुत्र की पुनर्जन्म की मांग की| उनकी पत्नी द्वारा श्री कृष्ण से मांगे गए इस गुरुदक्षिणा को श्रीकृष्ण ने वरदान के रूप में दिया। वह अपने गुरु माता का दुख नहीं देख सकते थे। श्री कृष्ण ने गुरूपुत्र को यमराज से वापस लाकर अपने गुरु को सौंप दिया और अपनी गुरु दक्षिणा पूर्ण की।शास्‍त्रों में यज्ञ को दक्षिणा के बिना अपूर्ण माना गया है। मान्‍यता हैं कि यज्ञ के बिना दक्षिणा और दक्षिणा के बिना यज्ञ अधूरा होता है। इसलिए पंडित एवं ब्राहृमणों द्वारा यज्ञ करवाने पर दक्षिणा देने का विधान है। यज्ञ द्वारा हम यज्ञ सविता को प्रसन्‍न करते हैं। शास्‍त्रों के अनुसार यज्ञ के बाद दक्षिणा देकर यज्ञ सविता की पत्‍नी दक्षिणा सावित्री को प्रसन्‍न करते हैं। इस प्रकार यज्ञ और दक्षिणा दोनों एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।
हिन्दू धर्म परंपराओं में व्रत-उत्सवों की शुभ घड़ियां व तिथियां धर्म-कर्म के जरिए इंसान के विचार, चरित्र और आचरण में बेहतर बदलाव लाती है। इन धार्मिक कर्मों में से ही एक है - ब्राह्मणों को भोजन व दान।

पौराणिक मान्यताओं में ब्राह्मण को ब्रह्म का अंश माना गया है। इसलिए पर्व, व्रत, उपवास या श्राद्ध के मौके पर ब्राह्मण भोजन के बाद दान, धर्म पालन के नजरिए से पुण्यदायी व सारी परेशानियों से छुटकारा देने वाला माना गया है। यही नहीं, यह स्वार्थ व अहं के भाव को दूर कर कर स्नेह व परोपकार के भावों से भी जोड़ता है।

यही वजह है कि इन खास तिथियों पर ब्राह्मण भोजन के बाद भगवान विष्णु का स्मरण कर ब्राह्मणों को दान करते हुए यह मंत्र विशेष बोलना मनोरथ सिद्धि के साथ दु:खों से बचाने वाला माना गया है। मंत्र है -
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु।
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्।। 
                              पं. संतोष तिवारी ,6299953415

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