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अग्नि
टिप्पणी : वेद में अग्नि की स्तुति में बहुत से सूक्त हैं। अग्नि का तत्त्व समझने के लिए ब्राह्मण ग्रन्थों में कुछ आख्यान रचे गए हैं। अग्नि पृथिवी पर था। देवताओं ने अग्नि से कहा – तुम स्वर्ग में चलो, हम तुम्हें अपना दूत बनाएंगे। तुम्हें तरह-तरह की आहुतियां मिलेंगी। यम स्वर्ग में था। यम से पितरों ने कहा – तुम पृथिवी पर चलो, हम तुम्हें राजा बनाएंगे। इस आख्यान का निहितार्थ यह है कि इस समय जो अग्नि कामाग्नि, जाठराग्नि आदि के रूप में उपस्थित है, जो पृथिवी पर रहने वाली है, इसका असली स्थान ॐ लोक है। साधना का लक्ष्य है इस अग्नि को पृथिवी से उठा कर ब्रह्म लोक में पहुंचा देना। यह तब हो सकता है जब पितर शक्तियों के रूप में उपस्थित हमारे आवेगों जैसे भूख, प्यास, निद्रा आदि, जो हमारा पालन करते हैं, के ऊपर यम का आधिपत्य हो जाए, यह आवेग अनियन्त्रित न रह कर हमारे नियन्त्रण में आ जाएं। - फतहसिंह
हम सभी ने अपनी आरम्भिक शिक्षा की पाठ्य पुस्तकों में यह पढा है कि प्राचीन काल में यह मान्यता थी कि पांच महाभूतों के द्वारा इस ब्रह्माण्ड की रचना हुई है और वह पांच महाभूत पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और आकाश हैं। इन पांच महाभूतों का स्रोत क्या है, यह कहना तो कठिन है, लेकिन वैदिक और पौराणिक साहित्य के दृष्टिकोण से इस कथन में सत्य का अंश बहुत है। ज्योतिष शास्त्र में मंगल ग्रह को पृथिवी का पुत्र माना जाता है। वैदिक साहित्य के अनुसार पृथिवी का सूक्ष्म रूप अग्नि है(अग्निः पृथिव्याः उदैत् – जैमिनीय ब्राह्मण १,३५७, अग्निमेवास्यै पृथिव्यै वत्सं प्रजापतिः प्रायच्छत् – जै.ब्रा. ३.१०७)। यह अग्नि ज्योतिष शास्त्र का मंगल ग्रह है (फिर अग्नि के सूक्ष्म रूप में वायु, वायु के सूक्ष्म रूप में आकाश का स्थान है)। ज्योतिष में मंगल कल्याणकारी भी है और विनाशकारी, रौद्र भी। पांच महाभूतों का एक दूसरा पक्ष भी है। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी, इन पांच महाभूतों की सूक्ष्म तन्मात्राओं को शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध नाम दिया गया है। डा. फतहसिंह कहा करते थे कि जैन समाज में एकसंज्ञी जीव जैसे चींटी, द्विसंज्ञी जीव इत्यादि कथन बहुत प्रचलित है। इसका तात्पर्य यह है कि जब समाधि से व्युत्थान होता है तो सर्वप्रथम एकसंज्ञी जीव की स्थिति होती है – शब्द मात्र। फिर जब व्युत्थान प्रबलतर होता है तो दो संज्ञाएं प्रकट होती हैं – शब्द व स्पर्श। फिर वह क्रमशः त्रिसंज्ञी आदि में बदलता जाता है और अन्त में पांचों संज्ञाएं – शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध प्राप्त हो जाती हैं। न्यूनाधिक रूप में यही स्थिति तो हम सबके साथ निद्रा से व्युत्थान पर भी होती है। और मूर्ति पूजा में इष्टदेव के जागने के पश्चात् कुछ कृत्य-विशेष सम्पन्न किए जाते हैं जिनको समझकर हम वास्तविक स्थिति का अनुमान लगा सकते हैं। यहां प्रश्न यह उठता है कि यदि पृथिवी की तन्मात्रा का नाम गन्ध है और पृथिवी का सूक्ष्म रूप अग्नि भी है, तो क्या गन्ध और अग्नि एक ही वस्तु हैं? इसका उत्तर अन्वेषणीय है। पुराणों के अनुसार पृथिवी तत्त्व में पांच तन्मात्राओं या गुणों का संघात है – शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध, जबकि अग्नि तत्त्व में केवल तीन तन्मात्राओं का संघात है – शब्द, स्पर्श व रूप।
वराह पुराण १८, कूर्म पुराण १.४ आदि में उपरोक्त तथ्यों को दूसरे रूप में प्रकट किया गया है। कहा गया है कि क्रीडा करती हुई सर्वज्ञ आत्मा को आत्मा द्वारा आत्मा का भोग करने की इच्छा हुई और तब महाभूत में क्षोभ उत्पन्न होने से विकार उत्पन्न करने में रुचि हुई। उस विकार को करते हुए महा अग्नि या महदहंकार या महत् मन या भूतादि उत्पन्न हुआ, उस अहंकार या भूतादि को विकृत करने पर शब्द उत्पन्न हुआ। शब्द से आकाश उत्पन्न हुआ। आकाश की विकृति करने पर स्पर्श तन्मात्र की उत्पत्ति हुई। उससे वायु उत्पन्न हुई। वायु को विकृत करने पर रूप या ज्योति उत्पन्न हुई। ज्योति को विकृत करने पर रस तन्मात्रा का जन्म हुआ जिससे आपः का जन्म हुआ। आपः को विकृत करने पर गन्ध तन्मात्रा का जन्म हुआ जिससे पृथिवी का जन्म हुआ। वायु में शब्द और स्पर्श दो गुण हैं। अग्नि में शब्द, स्पर्श और रूप तीन गुण हैं। आपः में शब्द, स्पर्श, रूप व रस चार गुण हैं। भूमि में शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध पांच गुण हैं। पुराणों के कथन से इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि यह कथन समाधि से व्युत्थान अथवा निद्रा से जागरण के समकक्ष ही है। आकाश के एक गुण, वायु के दो गुण, अग्नि के तीन गुण आदि का जो पुराणों का कथन है, इसका वैदिक प्रमाण अन्वेषणीय है।
वैदिक साहित्य में अग्नि को इस प्रकार समझा जा सकता है कि अग्नि का एक नाम जातवेदस् है। जातवेदस् से भी अग्नि के जिस रूप की प्रतीति होती है, वह यह है कि यह वेद, ज्ञान, चेतना के सर्वप्रथम जन्म लेने की, समाधि से व्युत्थान की, निद्रा से जागने की स्थिति है। इस सर्वप्रथम उत्पन्न हुई चेतना के परिष्कार की आवश्यकता पडती है और लगता है कि यहीं से सारा वैदिक कर्मकाण्ड आरम्भ हो जाता है। लेकिन यह ध्यान देने योग्य है कि एक ऐसी चेतना भी है जिसमें अन्य सारी चेतनाएं लीन हो जाती हैं। इसे समाधि की ओर प्रस्थान कहा जा सकता है। इसे रात्रि, निद्रा आदि भी कहा जा सकता है। अग्निहोत्र के संदर्भ में कहा गया है कि प्रातःकाल होने पर अग्नि का लय सूर्य में हो जाता है। इसी कारण दिन के सूर्य में दाहक शक्ति है। सायंकाल होने पर सूर्य का लय अग्नि में हो जाता है। इसी कारण रात्रि में अग्नि दूर से भी दिखाई देती है। इसका अर्थ यह हुआ कि अग्नि को केवल जातवेदा अग्नि तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता(अथर्ववेद १९६४.१)। अग्नि का रात्रि में कौन सा रूप होता है, दिन में कौन सा रूप होता है, इसका सूक्ष्म रूप से अन्वेषण करने की आवश्यकता है।
अग्नि का व्यावहारिक रूप : पौराणिक आख्यानों से संकेत मिलता है कि हमें अनुभव होने वाली कोई भी वेदना, भूख, प्यास, खुजली, दर्द, शकुन, अपशकुन आदि सब अग्नि के निम्नतर रूप हो सकते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि यह अग्नि बृहद् रूप धारण करे, देवों को हवि ले जाने वाली अग्नि बने। वैदिक दृष्टिकोण से, अनुभव की जाने वाली वेदना को हम वाक् कह सकते हैं। किसी भी रूप में प्रकट होने वाली वाक् को सुपर्ण का रूप देना है, उसे उडने वाली बनाना है। यदि वाक् के साथ प्राण और मन का संयोग हो जाए तो वह सुपर्ण रूप धारण कर सकती है। (वाग्वै माता, प्राणः पुत्रः - - - -एकः सुपर्णः समुद्रमाविवेश - - -तं (प्राणं) माता (वाक्) रेळिह, स(प्राणः) उ रेळिह मातरम् (वाचम्) – ऐ.आ. ३.१.६)। सुपर्ण का ही दूसरा नाम संवत्सर है। वैदिक साहित्य में संवत्सर को अग्नि का परिष्कृत रूप कहा गया है(संदर्भों के लिए ब्राह्मणोद्धार कोश में अग्नि संदर्भ की संख्याएं ७१०-७१४ द्रष्टव्य हैं, उदाहरण के लिए, शतपथ ब्राह्मण ६.७.१.१८, १०.४.५.२ इत्यादि) और वैदिक संवत्सर को भौतिक जगत के संवत्सर के आधार पर समझा जा सकता है। भौतिक संवत्सर का निर्माण पृथिवी, सूर्य व चन्द्रमा के एक-दूसरे के परितः भ्रमण करने से होता है। इसी प्रकार वैदिक संवत्सर का निर्माण क्रमशः वाक्, प्राण और मन के एक दूसरे के परितः भ्रमण करने से होता है। यदि यह तीन घटक एक दूसरे से स्वतन्त्र हो जाएं तो किसी भी संवत्सर का निर्माण नहीं हो पाएगा। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि संवत्सर रूपी अग्नि का परिष्कार करना है तो पहले तो वाक्, प्राण और मन का परिष्कार करना पडेगा और फिर इन तीनों का योग किस प्रकार हो, इसका उपाय करना पडेगा।
अग्नि के विभिन्न रूप : पुरूरवा द्वारा गन्धर्वों से जो अग्नि प्राप्त की गई, वह किस रूप में थी, इसका उल्लेख नहीं है। आपस्तम्ब श्रौत सूत्र ५.२.४ के अनुसार जो अग्नि देवों से छिपकर अश्वत्थ में छिपी, वह अश्व रूप थी (अग्नि का एक रूप अश्व से भी निम्नतर है जिसे आखु/मूषक कहा गया है)। ऐसा प्रतीत होता है कि अश्व रूप अग्नि का कार्य पाण्डित्य में प्रेम का प्रादुर्भाव करना है। फिर जब पुरूरवा ने अरणियों द्वारा मन्थन किया, तो अग्नि तीन रूपों में प्रकट हुई – आहवनीय, दक्षिण और गार्हपत्य। यह कहा जा सकता है कि अश्व अग्नि दिशाओं के अनुदिश अपना विस्तार करने वाली है, जबकि पुरूरवा द्वारा अरणि मन्थन से उत्पन्न अग्नि का विस्तार ऊर्ध्व दिशा में होता है।
जैसा कि नीचे संदर्भ में दिया गया है, आपस्तम्ब श्रौत सूत्र में अग्न्याधेय(यज्ञ हेतु अग्नि की स्थापना) के संदर्भ में तीन प्रकार की अग्नियों की स्थापना हेतु मन्त्रों का विनियोग दिया गया है – ब्राह्मण की अग्नि, राजन्य की अग्नि और वैश्य की अग्नि। इसका तात्पर्य यह हुआ कि किसी भी संवेदना को तीन रूपों में विभाजित किया जा सकता है – ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य। चौथी शूद्र प्रकार की संवेदना के लिए किसी मन्त्र का विधान नहीं है।
होमकाले तु संप्राप्ते न दद्यादासनं क्वचित्। दत्ते तृप्तो भवेद्वह्निः शापं दद्याच्च दारुणम्॥४५॥ आघारौ नासिके प्रोक्तौ आज्यभागौ च चक्षुषी। प्राजापत्यं मुखं प्रोक्तं कटिर्व्याहृतिभिः स्मृता॥४६॥ शीर्षहस्तौ च पादौ च पंचवारुणमीरितम्। तथा स्विष्टकृतं विप्र श्रोत्रे पूर्णाहुतिस्तथा॥४७॥ द्विमुखं चैकहृदयं चतुःश्रोत्रं द्विनासिकम्। द्विशीर्षकं च षण्नेत्रं पिंगलं सप्तजिह्वकम्॥४८॥ सव्यभागे त्रिहस्तं च चतुर्हस्तञ्च दक्षिणे। स्रुक्स्रुवौ चाक्षमाला च या शक्तिर्दक्षिणे करे॥४९॥ त्रिमेखलं त्रिपादं च घृतपात्रं द्विचामरम्। मेषारूढं चतुःशृंगं बालादित्यसमप्रभम्॥५०॥ उपवीतसमायुक्तं जटाकुंडलमंडिमम्। ज्ञात्वैवमग्निदेहं तु होमकर्मसमाचरेत्॥५१॥ - नारद पुराण १.५१.४५
नारद पुराण के उपरोक्त कथन में अग्नि को त्रिपाद कहा गया है जबकि गोपथ ब्राह्मण १.२.९ में षट्पाद (अग्निः षट्पादस्तस्य पृथिव्यन्तरिक्षं द्यौराप ओषधिवनस्पतय इमानि भूतानि पादाः तेषां सर्वेषां वेदा गतिरात्मा प्रतिष्ठिताः) कहा गया है। अग्नि के स्वरूप के विषय में ऋग्वेद ४.५८.३ की ऋचा को प्रमाण माना जाता है : च॒त्वारि॒ शृङ्गा॒ त्रयो॑ अस्य॒ पादा॒ द्वे शी॒र्षे स॒प्त हस्ता॑सो अस्य। त्रिधा॑ ब॒द्धो वृ॑ष॒भो रो॑रवीति म॒हो दे॒वो मर्त्याँ॒ आ वि॑वेश॥ जिस सूक्त की यह ऋचा है, उसके आरम्भिक शब्द यह हैं – समुद्रादूर्मिर्मधुमाँ उदारत् इत्यादि। और इस सूक्त का देवता अग्नि या सूर्य या आपः या गावः या घृतस्तुति कहे गए हैं। सायण भाष्य के अनुसार ऋचा का विनियोग द्वादश अह नामक सोमयाग के सप्तम दिन में किया जाता है(आश्वलायन श्रौत सूत्र ८.९)। सातवें दिन से लेकर नवें दिन तक दिवसों की संज्ञा छन्दोम होती है। यह छठें दिन वृत्र मरण के पश्चात् आनन्द समुद्र की स्थिति है। इन तीन दिवसों में नाम-रूप की प्रधानता रहती है। इसका अर्थ यह हुआ कि पहले ६ दिन अन्तर्जगत की साधना के हैं, बाद के तीन दिन बाह्यजगत की साधना के। सूक्त/ऋचा के विभिन्न देवताओं का उल्लेख यह स्पष्ट करता है कि इस स्थिति में अग्नि का स्वरूप केवल अग्नि तक ही सीमित नहीं रहेगा, अपितु वह सूर्य, आपः, गावः, घृत आदि का रूप भी धारण कर सकता है, क्योंकि यह आनन्द समुद्र की स्थिति है।
यह सूक्त यद्यपि शौनकीय अथर्ववेद में उपलब्ध नहीं है, किन्तु पैप्पलाद संहिता ८.१३ में उपलब्ध है और अथर्ववेद के गोपथ ब्राह्मण १.२.१६ में इसका स्पष्टीकरण भी उपलब्ध है। इस स्पष्टीकरण के अनुसार अग्नि के चार शृङ्गों के उल्लेख से तात्पर्य पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्यौ, आपः इन चार लोकों से, या अग्नि, वायु, आदित्य व चन्द्रमा नामक चार देवों से या ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद इन चार वेदों से या होता, अध्वर्यु, उद्गाता व ब्रह्मा इन होताओं से हो सकता है। तीन पादों से तात्पर्य सोमयाग के तीन सवनों से हो सकता है, दो शीर्षों से तात्पर्य ब्रह्मौदन व प्रवर्ग्य से हो सकता है, सात हाथों से तात्पर्य सात छन्दों से हो सकता है, वृषभ के तीन बन्धनों से तात्पर्य मन्त्र, कल्प व ब्राह्मण से हो सकता है।
गोपथ ब्राह्मण १.२.१६ में अग्नि के तीन पादों के रूप में तीन सवनों का उल्लेख किया गया है। पादों से तात्पर्य होता है जो भूतों को, जड जगत को पद प्रदान करता है, गति देता है। सोमयाग के एक दिन में सोम का शोधन तीन चरणों में होता है जिन्हें सवन कहा जाता है। सोम को शुद्ध करके देवों को अर्पित किया जाता है। यद्यपि सोम को अमृत कहा गया है, लेकिन प्रकृति में अवतरित होकर वह जडीभूत हो जाता है। अतः देवों को अर्पित करने से पहले उसका शोधन करना पडता है। प्रातःसवन में जो सोम प्राप्त होता है, वह गायत्री का रूप होता है। हो सकता है कि साधना के क्षेत्र में यह प्रेम का प्रतीक हो। प्रातःसवन में जो सामगान होता है, उसे आज्यस्तोत्र कहा जाता है। आज्य अर्थात् आ-ज्योति। व्यवहार में आज्य उस घृत को कहते हैं जो दूध के ऊपर अपने आप तिर आता है, उसके लिए किसी परिश्रम की आवश्यकता नहीं पडती। जो सोम इतना शुद्ध नहीं हो सकता, उसको अगले सवनों के लिए छोड दिया जाता है। फिर माध्यन्दिन सवन में जो सोम देवों को प्रस्तुत किया जाता है, वह त्रिष्टुप् छन्द का रूप होता है। माध्यन्दिन सवन दक्षता प्राप्ति के लिए, दक्षिणा देने आदि के लिए होता है। जहां प्रेम से काम चल जाता है, वहां दक्षता सौ प्रतिशत होती है। लेकिन जहां प्रेम नहीं होता, वहां दक्षता में न्यूनता आ ही जाती है। जड प्रकृति में प्रेम के लिए कोई स्थान नहीं है, सब कार्य बिना दक्षता के ही चलता है। और आधुनिक विज्ञान के नियमों द्वारा हम जानते हैं कि किसी भी कार्य में सौ प्रतिशत दक्षता प्राप्त करना संभव नहीं है। कुछ न कुछ ऊर्जा व्यर्थ चली ही जाती है। इस बेकार ऊर्जा का, बेकार सोम का शोधन तीसरे सवन में किया जाता है। तीसरे सवन में जगती छन्द की प्रतिष्ठा होती है। इस प्रकार कोई भी सोम बिना देवों की आहुति के शेष नहीं बचना चाहिए। यह तो सोमयाग के प्रतीकों से जो समझ में आता है, उसका उल्लेख है। इस कथन को और अधिक व्यावहारिक रूप में समझने के लिए नारद पुराण १.५०.२० में संगीत के संदर्भ में तीन सवनों का उल्लेख हमारी सहायता करता है। तीन सवनों को उर, कण्ठ व शिर का रूप दिया गया है। स्वरों का उदय प्रायः उर से होता है और फिर वह स्वर उठ कर कण्ठ और शीर्ष से टकराते हैं। संगीत विज्ञान में इन्हें मन्द्र, मध्यम और तार स्वर नाम दिया गया है(विष्णुधर्मोत्तर पुराण ३.१८.१)। किसी भी राग में मुख्य प्रयोग वाद्य के मध्यम स्वरों का ही होता है, मन्द्र और तार स्वरों का प्रयोग बहुत कम होता है। इस प्रकार विभिन्न स्वरों का उदय होता कहा गया है। उर/हृदय प्रेम का स्थान होता है, जबकि शीर्ष तर्क-वितर्क का। अग्नि के तीन पादों का विष्णु के तीन पादों (उरुक्रमों) से क्या साम्य हो सकता है, यह अन्वेषणीय है।
नारद पुराण के उपरोक्त कथन में अग्नि को सप्तजिह्व कहा गया है। महानारायणोपनिषद ८.४/२.१२.२ का कथन है कि जन्तु की आत्मा से ही सात जिह्वाएं निकलती हैं(अणोरणीयान्महतो महीयानात्मा गुहायां निहितोऽस्य जन्तोः। - - - -सप्त प्राणाः प्रभवन्ति तस्मात्सप्तार्चिषः समिधः सप्त जिह्वाः)।
गोपथ ब्राह्मण के स्पष्टीकरण में दो शीर्षों ब्रह्मौदन और प्रवर्ग्य को आगे समझने की आवश्यकता है। शीर्ष का निर्माण उदान प्राण से होता है। इसीलिए इसे ब्रह्म-ओदन/उदान कहा गया है। सारी देह को पकाकर जो फल निकलता है, शीर्ष उसका प्रतीक होता है। ऐसा अनुमान है कि ब्रह्मौदन ब्रह्माण्ड की वह ऊर्जा है जिसका उपयोग दैवी नियमों के अनुसार हो रहा है, वह नियम जिनके अनुसार ऊर्जा का क्षय नहीं होता, प्रेम। हो सकता है कि ब्रह्मौदन गौ का रूप हो। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रवर्ग्य ब्रह्माण्ड की वह ऊर्जा है जिसका उपयोग प्रकृति कर रही है और वह ऊर्जा लगातार ऋणात्मकता की ओर जा रही है, उसकी अव्यवस्था में, एण्ट्रांपी में लगातार वृद्धि हो रही है। उसे उच्छिष्ट भी कहा गया है। प्रवर्ग्य शीर्ष की यह विशेषता है कि वह देह से कट कर सारे ब्रह्माण्ड में फैल जाता है। एक आख्यान आता है कि विष्णु अपने धनुष की डोरी/गुण/ज्या पर सिर रखकर सोए हुए थे और वम्रियों/दीमकों(साधना के क्षेत्र में वर्म, कवच, सारी देह पर देवों की स्थापना, वर्म=वम्रि) ने धनुष के गुण को काट डाला जिससे विष्णु का सिर कट कर अदृश्य हो गया। विष्णु ही यज्ञ है। ऐसा अनुमान है कि जब सारी देह दिव्य वर्म/कवच से बंध जाएगी तो देह की रक्षा करने वाली प्रवर्ग्य ऊर्जा की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी। जब देवों ने कुरुक्षेत्र में यज्ञ किया तो वह यज्ञ पूरा ही नहीं हो पाया क्योंकि उसका शीर्ष नहीं था। आख्यान में आगे वर्णन है कि दधीचि ऋषि ने अश्विनौ को मधु विद्या का उपदेश दिया जिसके द्वारा वे यज्ञ का शीर्ष पुनः जोड सके (इ॒च्छन्नश्व॑स्य॒ यच्छिरः॒ पर्व॑ते॒ष्वप॑श्रितम्। तद् वि॑दच्छर्य॒णाव॑ति – ऋ. १.८४.१४)। इसका अर्थ हुआ कि प्रवर्ग्य शीर्ष किसी प्रकार से मधुविद्या से सम्बन्धित है। सोमयाग सम्पन्न करने हेतु सबसे पहले प्रवर्ग्य सम्भरण कृत्य सम्पन्न किया जाता है और उसके पश्चात् ही सोमलता का उपयोग देवों को आहुति देने हेतु शोधन के लिए किया जा सकता है। प्रवर्ग्य सम्भरण का अर्थ होगा कि सभी दिशाओं से ऊर्जा की प्राप्ति जिस रूप में भी सम्भव हो, उसे प्राप्त करना। कर्मकाण्ड में प्रवर्ग्य सम्भरण इस प्रकार किया जाता है कि कच्ची मिट्टी से बने महावीर नामक पात्र में घृत भर कर उसे अग्नि पर तपाया जाता है और फिर तपते हुए घृत में गौ पयः और अज पयः का सिंचन किया जाता है जिससे बडी ऊंची ज्वालाएं उठती हैं। जब संवत्सर-पर्यन्त प्रवर्ग्य संभरण हो जाए, उसके पश्चात् ही अतिथि सोम का उपयोग देवों को आहुति देने हेतु किया जाता है। इसका अर्थ होगा कि जो भी ऊर्जा प्राप्त हो, उसका संवत्सर से एकीकरण होना चाहिए।
अग्नि देवता की जो मूर्तियां प्राप्त हो रही हैं, उनमें अग्नि द्विमुखी भी है और एकमुखी भी। इसका निहितार्थ अपेक्षित है। दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में अग्नि की जो एकमुखी मूर्तियां रखी हुई हैं, उनको अग्नि के रूप में चिह्नित करने के पीछे क्या तर्क है, यह अभी स्पष्ट नहीं है।
गोपथ ब्राह्मण में अग्नि के चार शृङ्गों के रूप में पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्यौ व आपः का उल्लेख है। फिर अथवा कहकर इन्हें अग्नि, वायु, आदित्य और चन्द्रमा कह दिया गया है। फिर अथवा कहकर इन्हें ऋग्वेद, यजु, साम और अथर्व कह दिया गया है। फिर अथवा कहकर इन्हें होता, अध्वर्यु, उद्गाता व ब्रह्मा कह दिया गया है। यह कथन संकेत करता है कि स्थूल रूप में अग्नि के चार शृङ्ग पृथिवी, अन्तरिक्ष आदि हैं। सूक्ष्म रूप में प्रवेश करने पर पृथिवी की ज्योति अग्नि शृङ्ग बन जाती है, अन्तरिक्ष की ज्योति वायु है इत्यादि। इससे भी सूक्ष्म स्थिति में प्रवेश करने पर वह ऋक्, यजु आदि बन जाते हैं। इससे भी सूक्ष्म स्थिति में प्रवेश करने पर वह होता, अध्वर्यु आदि बन जाते हैं। वैदिक साहित्य में शृङ्ग का कार्य राक्षसों को नष्ट करना कहा गया है। नाद के एक प्रकार में शृङ्ग नाद होता है जिसका विनियोग शत्रु के विरुद्ध अभिचार हेतु किया गया है(शिव पुराण)। यदि शृङ्ग को शिखा के तुल्य मान लिया जाए(पर्वत शृङ्ग को शिखर कहते ही हैं) तो कथासरित्सागर में अग्निशिख की कथाओं के आधार पर अग्नि के चार शृङ्ग परा, पश्यन्ती, मध्यमा व वैखरी वाक् हो सकते हैं। जब व्यवहार में उतरते हैं तो यह शृङ्ग गड्ढे में धंस जाते हैं, सारा कार्य बिना शृङ्गों के ही सम्पन्न होता है। इन्हें उबारने की आवश्यकता है। गोपथ ब्राह्मण में इन शृङ्गों के क्रमिक विकास की क्या स्थिति होगी, इसका कथन है। ऋक् का अर्थ है वह वाक् जो किसी कार्य को सम्पन्न करने से पहले ही भूत और भविष्य का ज्ञान करा देती हो। शृङ्ग के संदर्भ में एकमात्र सूचना नृसिंहोत्तरतापनीयोपनिषद में उपलब्ध होती है जहां प्रतीत होता है कि प्रणव के अक्षरों को शृङ्ग कहा गया है?
रक्तं जटाधरं वह्निं कुर्याद्वै धूम्रवाससम्। ज्वालामालाकुलं सौम्यं त्रिनेत्रं श्मश्रुधारिणम्॥१॥ चतुर्बाहुं चतुर्दंष्ट्रं देवेशं वातसारथिम्। चतुर्भिश्च शुकैर्युक्तं धूमचिह्नरथे स्थितम्॥२॥ वामोत्सङ्गगता स्वाहा शक्रस्येव शची भवेत्। रत्नपात्रकरा देवी वह्नेर्दक्षिणहस्तयोः॥३॥ ज्वालात्रिशूलौ कर्तव्यौ चाक्षमाला तु वामके। रक्तं हि तेजसो रूपं रक्तवर्णं ततः स्मृतम्॥४॥ वातसारथिता तस्य प्रत्यक्षं धूम्रक्षेत्रता। प्रत्यक्षा च तथा प्रोक्ता यागधूम्राभवस्त्रता॥५॥ अक्षमालां त्रिशूलं च जटाजूटत्रिनेत्रता। सर्वाभरणधारित्वं व्याख्यातं तस्य शम्भुना॥६॥ ज्वालाकारं परं धाम हुतं तेन प्रतीच्छति। गृहीत्वा सर्वदेवेभ्यो ततो नयति शत्रुहन्॥७॥ वाग्दण्डमथ धिग्दण्डं धनदण्डं तथैव च। चतुर्थं वधदण्डं च दंष्ट्रास्तस्य प्रकीर्तिताः॥८॥ श्मश्रु तस्य विनिर्दिष्टं दर्भाः परमपावनम्। ये वेदास्ते शुकास्तस्य रथयुक्ता महात्मनः॥९॥ आग्नेयमेतत्तव रूपमुक्तं पापापहं सिद्धिकरं नराणाम्। ध्येयं तवैतन्नृप होमकाले सर्वाग्निकर्मण्यपराजितेन॥१०॥ - विष्णुधर्मोत्तर पुराण ३.५६
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई., संशोधन : २८-१२-२०१२ई.(मार्गशीर्ष पूर्णिमा, विक्रम संवत् २०६९)
संदर्भ
*अग्ने॑ स॒मिध॒माहा॑र्षं बृहते जा॒तवे॑दसे। स मे॑ श्र॒द्धां च॑ मे॒धां च॑ जा॒तवे॑दाः॒ प्र य॑च्छतु॥ - शौ.अ. १९.६४.१
*संवत्सर एवाग्निः – मा.श. १०.४.५.२
*संवत्सर एषोऽग्निः – मा.श. ६.७.१.१८
*संवत्सरः खलु वा अग्नेर्योनिः – तै.सं. २.२.५.६
*संवत्सरोऽग्निः – तां.ब्रा. १०.१२.७, मा.श. ६.३.१.२५, ६.३.२.१०, ६.६.१.१४
*संवत्सरोऽग्निः वैश्वानरः – तै.सं. ५.१.८.५, ५.२.६.१, ५.४.७.६, मै.सं. १.७.३, ऐ.ब्रा. ३.४१
*संवत्सरो वा अग्निर्वैश्वानरः – तै.सं. २.२.५.१, मै.सं. २.३.५, २.५.६, ३.१.१०, ३.३.३, ३.१०.७, ४.३.७, काठ.सं. १०.३, १०.४, ११.८, कपि.क.सं. ८.४, तै.सं. १.७.२.५, मा.श. ६.६.१.२०, ८.२.२.८
*संवत्सरो वा अग्निर्नाचिकेतः – तै.ब्रा. ३.११.१०.२, ३.११.१०.४
*संवत्सरो वा एष यदग्निः – तै.सं. ५.६.९.२
*संवत्सरोऽग्नेर्योनिः – काठ.सं. १९.९
*यदिदं घृते हुते प्रतीवार्चिरुज्ज्वलत्येषा वा अस्य (अग्नेः) सा तनूर्ययापः प्राविशत्। - काठ.सं. ८.९
*यदिदं घृते हुते शोणमिवार्चिरुज्ज्वलत्येषा वा अस्य सा तनूर्ययामुमादित्यं प्राविशत् – काठ.सं. ८.९
*अग्निं गृह्णामि सुरथं यो मयोभूर्य उद्यन्तमारोहति सूर्यमह्ने। - आप.श्रौ.सू. ४.१.८
*इदमहमग्निज्येष्ठेभ्यो वसुभ्यो यज्ञं प्रब्रवीमि। - आप.श्रौ.सू. ४.२.२
*अग्न्याधेयम् – अथादधाति घृतवतीभिराग्नेयीभिर्गायत्रीभिर्ब्राह्मणस्य त्रिष्टुग्भी राजन्यस्य जगतीभिर्वैश्यस्य। समिधाग्निं दुवस्यतेत्येषा। उप त्वाग्ने हविष्मतीर्घृताचीर्यन्तु हर्यत। जुषस्व समिधो मम॥ तं त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्धयामसि। बृहच्छोचा यविष्ठ्येति ब्राह्मणस्य॥ समिध्यमानः प्रथमो नु धर्मः समक्तुभिरज्यते विश्ववारः। शोचिष्केशो घृतनिर्णिक् पावकः सुयज्ञो अग्निर्यजथाय देवान्। घृतप्रतीको घृतयोनिरग्निर्घृतैः समिद्धो घृतमस्यान्नम्। घृतप्रुषस्त्वा सरितो वहन्ति घृतं पिबन्सुयजा यक्षि देवान्॥ आयुर्दा अग्न इति राजन्यस्य॥ त्वामग्ने समिधानं यविष्ठ देवा दूतं चक्रिरे हव्यवाहम्। उरुज्रयसं घृतयोनिमाहुतं त्वेषं चक्षुर्दधिरे चोदयन्वति। त्वामग्ने प्रदिव आहुतं घृतेन सुम्नायवः सुषमिधा समीधिरे। स वावृधान ओषधीभिरुक्षित उरु ज्रयांसि पार्थिवा वितिष्ठसे॥ घृतप्रतीकं व ऋतस्य धूर्षदमग्निं मित्रं न समिधान ऋञ्जते। इन्धानो अक्रो विदथेषु दीद्यच्शुक्रवर्णामुदु नो यंसते धियमिति वैश्यस्य। - आप.श्रौ.सू. ५.६.२
अग्नि
१. अग्न आयुःकारायुष्मांस्त्वं तेजस्वान् देवेष्वेध्यायुष्मन्तं मां तेजस्वन्तं मनुष्येषु कुरु । मै ४,७,३
२. अग्न आयूंषि पवसे । तैसं १,६,६,२ ।।
३. अग्नय आयुष्मते पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपेद्यः कामयेत सर्वमायुरियामिति । तैसं २,२,३,२ ।
४. अग्नयेँऽहोमुचेऽष्टाकपालः (पुरोडाशः) । काठ ४५, १८।।
५. अग्नये कव्यवाहनाय मन्थः । काठ ९,६; क ८,९ ।।
६. अग्नये कामाय पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपेद्यं कामो नोपनमेत् । तैसं २,२,३,१ । ७. अग्नये कुटरूनालभते । मै ३,१४,४ ।।
८. अग्नये क्षमवतेऽष्टाकपालं निर्वपेद् यर्ह्ययं (अग्निः) देवः प्रजा अभिमन्येत । काठ १०,७ ।
९. अग्नये क्षामवते पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपेत् संग्रामे संयत्ते । तैसं २,२,२,४ ।। १०. अग्नये गायत्राय त्रिवृते रथन्तराय वासन्तायाष्टाकपालः (वासन्तिकाय पुरोडाशमष्टाकपालं
निर्वपति [मै.J) मै ३,१५,१०; काठ ४५, १० । ।
११. अग्नये गृहपतय आपतन्तानामष्टाकपालं (चरुं) निर्वपेत् । मै २,६,६ ।।
१२. अग्नये गृहपतये पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपति कृष्णानां व्रीहीणाम् । तैसं १,८,१०,१ ।
१३. अग्नये चैव सायं (जुहोमि), प्रजापतये च । काठ ६,६ ।।
१४. अग्नये जातवेदसे पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपद् भूतिकामः । तैसं २,२,३,३ ।
१५. अग्नये ज्योतिष्मतेऽष्टाकपालं (पुरोडाशं) निर्वपेत् । मै १,८,८।।
१६. अग्नये तेजस्विनेऽजं कृष्णग्रीवमालभते । काठ १३, १३ ।।
१७. अग्नये त्वा तेजस्वत एष ते योनिः । तैसं १,४,२९,१; काठ ४,११; क ३,९।।
१८. अग्नये त्वाऽऽयुष्मत एष ते योनिः । मै १, ३,३१।।
१९. अग्नये त्वा वसुमते स्वाहा । मै ४, ९,८ ।।
२०. अग्नये नमो गायत्र्यै नमस्त्रिवृते नमो रथन्तराय नमो वसन्ताय नमः प्राच्यै दिशे नमः प्राणाय नमो वसुभ्यो नमः । काठ ५१,१।।
२१. अग्नयेऽनीकवते पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपति साकं सूर्येणोद्यता । तैसं १,८,४,१ ।
२२. अग्नयेऽनीकवते रोहिताञ्जिरनड्वान् । काठ ४८,३ ।।
२३. अग्नये पथिकृते पुरोडाशमष्टाकपालं निवेपेद्यो दर्शपूर्णमासयाजी सन्नमावास्यां वा पौर्णमासीं वाऽतिपादयेत् । तैसं २,२,२,१ ।
२४. अग्नये पथिकृतेऽष्टाकपालं निर्वपेद्यस्य पौर्णमासी वामावस्या वातिपद्येत । काठ १०,५।
२५. अग्नये यविष्ठाय त्रयो नकुलाः । काठ ४९,५।
२६. अग्नये यविष्ठाय पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपेत् स्पर्धमानः क्षेत्रे वा सजातेषु वाग्निमेव यविष्ठं स्वेन भागधेयेनोपधावति तेनैवेन्द्रियं वीर्यं भ्रातृव्यस्य युवते । तैसं २,२,३,१-२ ।
२७. अग्नये यविष्ठाय पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपेदभिचर्यमाणः स (अग्निः) एवास्माद्रक्षांसि यवयति, नैनमभिचरन्त्स्तृणुते । तैसं २,२, ३,२ ।।
२८. अग्नये रक्षोघ्ने स्वाहा । तैसं १,८,७,२ ।।
२९. अग्नये रसवतेऽजक्षीरे चरुं निर्वपेद्यः कामयेत रसवान्त्स्यामिति । तैसं २,२,४,४ ।
३०. अग्नये रुक्मते पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपेद्रुक्कामः । तैसं २,२,३,३।।
३१. अग्नये वसुमते पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपेद्यः कामयेत वसुमान्त्स्यामिति । तैसं २,२, ४,५ ।
३२. अग्नये वाजसृते पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपेत् संग्रामे संयत्ते । तैसं २,२,४,५।
३३. अग्नये वैश्वानराय द्वादशकपालः (पुरोडाशः) । तैसं ७,५,२२,१; मै ३,१,१०; काठ ४५,१० ।
३४. अग्नये वैश्वानराय द्वादशकपालं (पुरोडाशं ) निर्वपेत् (+योऽनन्नमद्यात् ।काठ.])। मै १, ४,१३; काठ १०,३ ।
३५. अग्नये वैश्वानराय द्वादशकपालमामयाविनं याजयेत् । मै २,३,५।।
३६. अग्नये व्रतपतये पुरोडाशमष्टाकपालं निवपेद्य आहिताग्निः सन्नव्रत्यमिव चरेत् । तैसं २,२,२,१२ ।
३७. अग्नये साहन्त्याय पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपेत् सीक्षमाणः । तैसं २,२,३,४ । ३८. अग्नये सुरभिमते पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपेद्यस्य गावो वा पुरुषा वा प्रमीयेरन्, यो वा बिभीयात् । तैसं २,२,२,३-४ ।।
३९. अग्नये हिरण्यम् (+अनयन् (मै.J; तेनामृतत्वमश्याम् [तैआ.J) । मै १,९,४; काठ ९,९; क ८,१२; तैआ ३,१०,१ ।।
४०. अग्नयो वै छन्दांसि । तैसं ५,७,९,३ ।।
४१. अग्निं यजतेत्यब्रवीत् तेन दक्षिणां (दिशं प्रज्ञास्यथ) । काठ २३,८ ।।
४२. अग्निं या गर्भं दधिरे विरूपास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु । मै २,१३,१।।
४३ अग्निं वा एतस्य (आमयाविनः) शरीरं गच्छति । तैसं २,३,११,१ ।।
१४. अग्निं वै जातं रक्षांस्यधूर्वंस्तान्येनमभिसमलभन्त, तान्यश्वेनापाहत । काठ ८, ५।।
४५. अग्निं वै पशवः प्रविशन्त्यग्निः पशून् । मै १,८,२। ।
४६. अग्निं वै पशवोऽनुप्रजायन्ते । काठ ३६, २ ।।
४७. अग्निं वै पशवोऽनूपतिष्ठन्ते पशूनग्निः । काठ ६,२ ।
४८. अग्निं वै पुरुषस्य प्रमीतस्य मांसानि गच्छन्ति । काठ ११,८ ।
४९. अग्निं वै वरुणानीरभ्यकामयन्त तास्समभवद्, आपो वरुणानीर, यदग्ने रेतोऽसिच्यत तद्धरितम् (सुवर्णम् ) अभवत् । काठ ८,५।।
५०. अग्निं वै विभाजं नाशक्नुवंस्तमश्वेन व्यभजन् । काठ ८,५।।
५१. अग्निं वैश्वानरं गच्छ स्वाहेत्याह, प्रजा एव प्रजाता अस्यां (पृथिव्यां) प्रतिष्ठापयति । तैसं ६, ४,१,४।।
५२. अग्निं वै सृष्टं प्रजापतिस्तं शम्याग्रे समैन्द्ध । काठ ८,२ ।
५३. अग्निं शरीरम् (गच्छति ज्योगामयाविनः) । तैसं २,२,१०,४ ।
५४. अग्निं समुद्रवाससम् (हुवे)। काठ ४०,१४ (तु. ऋ ८,१०२,४)।
५५. अग्निं हृदयेन (प्रीणामि) । तैसं १,४,३६,१; तैआ ३,२१,१ ।।
५६. अग्निः पञ्च (+होतॄणां तै २,३,५,६]) होता । तै २,३,१,१ ।।
५७. अग्निः पृथिव्याः (उदैत् )। जै १,३५७ ।।
५८. अग्निः पृथिव्याम् (उपदधातु) । तैआ १,२०,२ ।।
५९. अग्निः प्रजननम् । गो १,२,१५।।
६०. अग्निः (प्रजानां तै.J) प्रजनयिता । काठ ६, ७, २७, ८; क ६,५; तै १,७,२,३
६१. अग्निः प्रजापतिः । काठ २२,७; १० ।
६२. अग्निः प्रथम इज्यते । मै ३,८,१ ।।
६३. अग्निः प्रथमो वसुभिर्नो अव्यात् । तैसं २,१,११,२; मै ४,१२,२; काठ १०,१२ । ६४. अग्निः प्रवापयिता (प्रस्तावः [जैउ.) । क ४,४; जैउ १,११,१,५।।
६५. अग्निः प्रस्तोता (प्रातः सवनम् [तैआ.J) । तैसं ३, ३,२,१; तैआ ५,१, ६ ।
६६. अग्निं खलु वै पशवोऽनूपतिष्ठन्ते । तैसं ५, ७, ९, २।।
६७. अग्निना तपोऽन्वाभवत् । काठ ३५, १५; ४३, ४; क ४८, १३ ।।
६८. अग्निना दक्षिणा (प्राजानन्) । तैसं ६,१,५,२ ।।
६९. अग्निनानीकेन स वृत्रमभीत्य •••‘अतिष्ठत् । काठ ३६,८।।
७०. अग्निना वा अनीकेनेन्द्रो वृत्रमहन् । मै १,१०,५ ३,९,५; काठ ३५,२०; क ४८,१८ ।।
७१. अग्निना वा अयं लोको ज्योतिष्मान् । जै १,२३२ ।
७२. अग्निना विश्वाषाट् (यज्ञं दाधार)। तैसं ४, ४, ८, १ ।
७३. अग्निना वै देवा अन्नमदन्ति । काठ ८, ४ ।
७४. अग्निना वै मुखेन देवा असुरानुक्थेभ्यो निर्जघ्नुः । ऐ ६, १४ ।।
७५. अग्निं देवतानां दीक्षमाणा अनुनिषीदन्त्यादित्यमनूत्तिष्ठन्तीति । जै २, २२ । ७६. अग्निं देवतानां प्रथमं यजेत् । क ४८, १६ ।।
७७. अग्नि देवताम् (प्रजापतिः शीर्षत एव मुखतः असृजत) । जै १, ६८ ।
७८. अग्निमतिथिं जनानाम् । तै २, ४, ३, ६ ।।
७९. अग्निमुपदिशन् वाचायमर्क इति । जै १, २५।।
८०. अग्निमुपदिशन् वाचेदं यश इति'••°चेदं सत्यमिति । जै १,२३ ।
८१. अग्निमुपदिशन् वाचेयमितिरिति । जै १, २५ ।
८२. अग्निमेवास्यै (पृथिव्यै वत्सं प्रजापतिः) प्रायच्छत् । जै ३, १०७ ।
८३. अग्निमेवेतरेण (बल-प्राण-ब्रह्मवर्चस-व्यतिरिक्तेन) सर्वेण (अवकीर्णः प्रविशति)। जै १, ३६२ ।
८४. अग्निमेवोपद्रष्टारं कृत्वान्तं प्राणस्य गच्छन्ति । मै १, १०, १९॥
८५. अग्निरजरोऽभवत् सहोभिर्यदेनं द्यौरजनयत् सुरेताः । मै २, ७, ८ ।
८६. अग्निरनीकम् (उपसदेवतारूपाया इषोः) । ऐ १, २५। ।
८७. अग्निरन्नस्यान्नपतिः (°ग्निरन्नादोऽन्न ।तै.J) । काठ ५, १; तै २, ५, ७, ३ । ८८. अग्निरन्नाद्यस्य प्रदाता । तां १७, ९, २।।
८९. अग्निरमुष्मिंल्लोक आसीद्यमोऽस्मिन् (पृथिवीलोके) ते देवा अब्रुवन्नेतेमौ विपयूहामेत्यन्नाद्येन देवा अग्निमुपामन्त्रयन्त, राज्येन पितरो यमं तस्मादग्निर्देवानामन्नादो यमः पितृणां राजा । तैसं २, ३, ६, ४-५ ।।
९०. अग्निरमृतो (अग्निरजिरो मै.J) अभवत् सहोभिर्यदेनं द्यौरजनयत् सुरेताः । मै २, ७, ८; काठ १६, ९ ।।
९१. अग्निरवमो देवतानां विष्णुः परमः । तैसं ५, ५, १, ४ ।
९२. अग्निरसि पृथिव्यां श्रितः । अन्तरिक्षस्य प्रतिष्ठा । तै ३, ११, १, ७ ।
९३. अग्निराग्नीध्रे (सोमः) । तैसं ४, ४, ९, १ ।।
९४. अग्निरायुष्मान्त्स वनस्पतिभिरायुष्मान् । तैसं २, ३,१०,३; काठ ११,७।।
९५. अग्निरायुस्तस्य मनुष्या आयुष्कृतः । मै २, ३, ४ ।
९६. अग्निरित ऊर्ध्वो भाति । काठ २९, ७ ।।
९७. अग्निरिवानाधृष्यः भूयासम् । ऐआ ५, १, १ ।।
९८. अग्निरु देवानां प्राणः । माश १०, १, ४, १२ ।।
९९. अग्निरु वै ब्रह्म (यज्ञः [माश ५,२,३,६]) । माश ८,५,१,१२ ।
१००. अग्निरु सर्वे कामाः । माश १०, २, ४, १ ।।
१०१. अग्निरु सर्वेषां पाप्मनामपहन्ता । माश ७, ३, २, १६ ।
१०२. अग्निर् ऋषिः । मै १,६,१।।
१०३. अग्निरेकाक्षरया मामुदजयदिमां पृथिवीम् । काठ १४,४ ।
१०४. अग्निरेकाक्षरया (°क्षरेण [तैसं.J) वाचमुदजयत् । तैसं १, ७, ११, १; मै १, ११,१०; काठ १४,४ ।
१०५. अग्निरेकाक्षरयोदजयन्मामिमां पृथिवीम् । मै १,११,१०।।
१०६. अग्निरेव दध्याथर्वणः । तैस ५,६,६,३ ।।
१०७. अग्निरेव देवानां दूत आस । माश ३,५,१,२१ ।
१०८. अग्निरेव पुरः । माश १०,३,५,३ ।
१०९. अग्निरेव प्रावापयत् सोमो (+वै .मै.J) रेतोऽदधान् मिथुनं वा अग्निश्च सोमश्च । मै १,१०,५; काठ ३५,२०; क ४८,१८ ।।
११०. अग्निरेव ब्रह्म (भर्गः (गो.J)। गो १,५,१५; माश १०,४,१,५।
१११. अग्निरेव रथन्तरस्य (अधिपतिः)। जै १,२९२।
११२. अग्निरेव सविता । गो १,१,३३; जैउ ४,१२,१,१ ।।
११३. अग्निरेवावमो मृत्युः । तैआ १,८,४,११ ।
११४. अग्निरेवास्मै प्रजां प्रजनयति वृद्धामिन्द्रः प्रयच्छति । तैसं २,५,५,२ ।
११५. अग्निरेवैनं गार्हपत्येनावति । तै १,७,६,६ ।।
११६. अग्निरेवैनं गृहपतीनां सुवते । तै १,७,४,१ ।।
११७. अग्निरेवैष यत् त्रिवृत् स्तोमः । जै २,९० ।
११८. अग्निरेष यत्पशवः (यद्रथन्तरम् [जै.J) । जै १,३३०; ३३२; माश ६,३,२,६ ।
११९. अग्निर्गायत्रछन्दाः । काठ ९,१३ ।
१२०. अग्निर्गार्हपत्यानाम् (°गृहपतीनाम् ।तैसं.J) (देवः) । तैसं १,८,१०,१; काठ १५,५ ।।
१२१. अग्निर्गृहपतिः । तैसं २,४,५,२।।
१२२. अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निरिति तदिमं लोकं लोकानामाप्नोति प्रातःसवनं यज्ञस्य । कौ १४, १ ।
१२३. अग्निर्दीक्षितः, पृथिवी दीक्षा । जै २,५३ ।।
१२४. अग्निर्देवता गायत्री छन्द उपांशोः पात्रमसि । तैसं ३,१,६,२ ।
१२५. अग्निर्देवतानां ज्योतिः । जै १,६६ ।।
१२६. अग्निर्देवतानाम् (मुखम् ) । मै १,६,९; तां ४,८,१०।।
१२७. अग्निर्देवानां रक्षोहा (वसुमान् [काठ १०,६]) । काठ १०,५; काठसंक १२।।
१२८. अग्निर्देवानां क्षमवाँस्तमेव भागधेयेनोपधावति, सोऽस्मै प्रीतः क्षमत एव । काठ १०,७ ।
१२९. अग्निर्देवानां जठरम् (नां दूत आसीत् तैसं.J) । तैसं २,५,११,८ । तै २,७,१२,३ ।।
१३०. अग्निर्देवानामभवत् पुरोगाः । काठ १६,२० ।।
१३१. अग्निर्देवेभ्य उदक्रामत्स मुञ्जं ( वेणुं [माश ६,३,१,३१] प्राविशत्तस्मात्स सुषिरः । माश ६,३,१,२६ ।।
१३२. अग्निर्देवेभ्यो निलायत, अश्वो रूपं कृत्वा सोऽश्वत्थे संवत्सरमतिष्ठत् । तै १,१,३,९।।
१३३. अग्निर्देवेभ्यो निलायत, आखूरूपं कृत्वा स पृथिवीं प्राविशत् । तै १,१,३,३ ।। १३४. अग्निर्देवेभ्यो निलायत, स क्रमुकं प्राविशत् । तैसं ५,१,९,५।।
१३५. अग्निर्देवेभ्यो निलायत, स दिशोऽनुप्राविशज्जुह्वन्मनसा दिशो ध्यायेद् दिग्भ्य एवैनमवरुन्धे । तैसं ५,४,७,६।।
१३६. अग्निर्देवेभ्यो निलायत, स वेणुं प्राविशत्, स एतामूतिमनु समचरद् यद् वेणोः सुषिरम् ।तैसं ५,१,१,४।।
१३७. अग्निर्द्विहोता, स भर्ता । तै ३,७,१,२ ।।
१३८. अग्निर्नेता स वृत्रहेति वार्त्रघ्नमिन्द्ररूपम् । ऐआ १,२,१।।
१३९. अग्निर्ब्रह्म (+अग्निर्यज्ञः [माश.) । काठ ८,४; माश ३.२,२,७ ।
१४०. अग्निर्भूतानामधिपतिः । तैसं ३,४,५,१ ।।
१४१. अग्निर्मुखम् (+प्रथमो देवतानां संगतानामुत्तमो विष्णुरासीत् [काठ.J) । तैसं ७,५,२५,१; काठ ४,१६ ।।
१४२. अग्निर्मे दुरिष्टात् पातु । तैसं १,६, ३,१ ।
१४३. अग्निर्मे वाचि श्रितः । तै ३,१०,८,४ ।।
१४४. अग्निर्मे होता । ष २,५ ।।
१४५. अग्निर्यजुर्भिः (सहागच्छतु) । मै १,९,२;८; काठ ९,१०; क ४८,३; तैआ ३,८,१ । १४६. अग्निर्यजुषाम् (समुद्रः) । माश ९,५,२,१२ ।
१४७. अग्निर्वसुभिः (+ उदक्रामत् [ऐ.J)। मै २,२,६; ऐ १,२४ ।
१४८. अग्निर्वा अग्रे हिरण्यमविन्दत् । मै २,२,७ ।।
१४९. अग्निर्वा अन्नपतिः (अन्नादः [ऐआ.J) । तैसं ५,२,२,१; ऐआ १,१,२ ।
१५०. अग्निर्वा अन्नानां शमयिता । कौ ६,१४ ।।
१५१. अग्निर्वा अपामायतनम्. . . .आपो वा अग्नेरायतनम् । तैआ १,२२,१-२ ।
१५२. अग्निर्वा अरुषः (अर्वा [तै १, ३, ६,४]) । तै ३,९,४,१ ।।
१५३. अग्निर्वाऽअर्कः । माश २,५,१,४; १०,६,२,५; ऐआ १,४,१।।
१५४. अग्निर्वा अश्वमेधस्य योनिरायतनम् । तै ३,९,२१,२; ३।।
१५५. अग्निर्वा अश्वं प्राविशत् कृष्णो भूत्वा सोऽत्रागच्छद्यत्रैष मृगशफ इव । काठ ८,५।
१५६. अग्निर्वाऽअहः सोमो रात्रिः । माश ३,४,४,१५ ।
१५७. अग्निर्वाऽआयुः । माश ६,७,३,७; ७,२,१,१५ ।
१५८. अग्निर्वाऽआयुष्मानायुष ईष्टे । माश १३, ८,४,८ ।
१५९. अग्निर्वा इतो वृष्टिमीट्टे मरुतोऽमुतश्च्यावयन्ति ( + तां सूर्यो रश्मिभिर्वर्षति [मै २,४,८]) एते वृष्ट्याः प्रदातारः । मै २,१,८ ।
१६०. अग्निर्वा इतो वृष्टिमुदीरयति । तैसं २,४,१०,२ ।।
१६१. अग्निर्वा उपद्रष्टा (ऋतम् । तै..) । तैसं ३,३,८,५; ७,५,४; तै २,१,११,१; गो २,४,९ ।
१६२. अग्निर्व एतासां(गवां) योनिरग्निः कुलायम् । मै ४,२,१०।।
१६३. अग्निर्वाऽएष धुर्यः । माश १,१,२,१० ।
१६४. अग्निर्वा एष वैश्वानरो यद् यज्ञः (यद् यज्ञायज्ञीयम् (जै १,१७३])। जै १, १७० ।
१६५. अग्निर्वाग् भूत्वा मुखं प्राविशत् । ऐआ २,४,२; ऐउ १,२,४ ।।
१६६. अग्निर्वाचि (हुतः) । शांआ १०,१।
१६७. अग्निर्वाव देवयजनम् (+ अग्नौ हि सर्वा देवता इज्यन्ते [काठ.J)। मै ३,८,४; काठ २५, ३; क ३८, ६ ।
१६८. अग्निर्वाव पवित्रम् ( पुरोहितः [ऐ.J) । तै ३,३,७,१०; ऐ ८,२७ ।
१६९. अग्निर्वाव यमः (+ इयं यमी [तैसं.J)। तैसं ३,३,८,३; गो २,४,८ । (
१७०. अग्निर्वाव वाजी । तैसं ५,५,१०,७ ।।
१७१. अग्निर्विजयमुपयत्सु त्रेधा तन्वो विन्यधत्त पशुषु तृतीयमप्सु तृतीयममुष्मिन्नादित्ये तृतीयम् । का ७,३ ।।
१७२. अग्निर्विभ्राष्टिवसनः । तैआ १,१२,३,७।
१७३. अग्निर्वृत्राणि जङ्घनत् । काठ २०,१४ ।।
१७४. अग्निर्वै कामो देवानामीश्वरः । कौ १९,२ ।
१७५. अग्निर्वै गायत्री (धर्मः [माश ११,६,२,२]) । माश ३,४,१,१९; ९,४,१०; ६,६,२,७।
१७६. अग्निर्वै ज्योती रक्षोहा । माश ७,४,१,३४ ।
१७७. अग्निर्वै तत् पक्षी भूत्वा स्वर्गं लोकमपतत् । काठ २१,४; क ३१,१९ ।
१७८. अग्निर्वै त्रिवृत् (दर्भस्तम्बः [काठ.]) । काठ ९,१६; जै १,२४०; तै १,५,१०,४ । १७९. अग्निर्वै दाता (+स एवास्मै यज्ञं ददाति [कौ.J)। कौ ४,२; माश ५,२,५,२ । १८०. अग्निर्वै दीक्षितः । काठ २३,६; २४,९।।
१८१. अग्निर्वै दीक्षितस्य देवता । तैसं ३,१,१,३ ।।
१८२. अग्निर्वै देवतानामनीकं सेनाया वै सेनानीरनीकं, तस्मादग्नयेऽनीकवते (पुरोडाशं
निर्वपति) । माश ५,३,१,१।।
१८३. अग्निर्वै देवतानां मुखं प्रजनयिता स प्रजापतिः । माश २,५,१,८; ३,९,१,६ । १८४. अग्निर्वै देवयोनिः । ऐ १,२२,२,३ । ।
१८५. अग्निर्वै देवानां यष्टा (रक्षोहा (मै.J)। मै २,१,११; तै ३,३,७,६ ।
१८६. अग्निर्वै देवानां वसिष्ठः ( सेनानी ।मै.J) । मै १,१०,१४; ऐ १,२८ ।
१८७. अग्निर्वै देवानां व्रतपतिः (व्रतभृत् [गो २,१,१५.) । तैसं १,६, ७, २; मै १,८,९; ३,६,९; काठ ३२,६; माश १, १,१,२; ३,२,२,२२; गो २,१, १४ ।
१८८. अग्निर्वै देवानां होता (गोपाः [ऐ १,२८]) । ऐ १,२८; ३,१४।।
१८९. अग्निर्वै देवानां नेदिष्टम् । माश १,६,२,११ ।
१९०. अग्निर्वै देवानामद्धातमाम् । माश १,६,२,९।।
१९१. अग्निर्वै देवानामन्नपतिः (°नामन्नवान् [मै.; काठ १०,६J) । मै २,१,१०; काठ १०,६ ।
१९२. अग्निर्वै देवानामन्नादः (नामभिषिक्तः तैसं.J)। तैसं ५,४,९,२; काठ १०,६; तै ३,१,४,१ ।
१९३. अग्निर्वै देवानामवमो विष्णुः परमः । काठ २२,१३; ऐ १, १ ।
१९४. अग्निर्वै देवानामवरार्ध्यो विष्णुः परार्ध्यः । कौ ७,१।
१९५. अग्निर्वै देवानां पथिकृत् (मनोता [ऐ., कौ.J)। मै १,८,९; २,१,१; ऐ २,१०; कौ १०,६।
१९६. अग्निर्वै देवानां मुखम् (ब्रह्मा [जै.)। कौ ३,६; ५,५; गो २,१,२३; जै १,९३; तां ६,१,६ ।
१९७. अग्निर्वै देवानां मृदुहृदयतमः । माश १,६,२,१०।।
१९८. अग्निर्वै देवेभ्योऽपाक्रामत् स प्रत्यङ्ङुदद्रवत् तस्मादध्वर्युः प्रत्यङ्मुखोऽग्निं मन्थति । काठसंक २०
१९९. अग्निर्वै द्रष्टा (धाता [तै.J) । काठसंक १२२; गो २,२,१९; तै ३,३,१०,२ ।
२००. अग्निर्वै नभसस्पतिः (नभसा पुरः [तैसं.J) । तैसं ३,३,८,६; गो २,४,९।।
२०१. अग्निर्वै पथः कर्ता (पथिकृत् [कौ.J)। कौ ४,३; माश ११,१,५,६ ।।
२०२. अग्निर्वै पथिकृद् देवतानां येन वै केन चाग्निरेति पन्थानमेव कुर्वन्नेति । जै १, ३०३ ।
२०३. अग्निर्वै पथोऽतिवोढा । माश १३,८,४,६ ।।
२०४. अग्निर्वै परिक्षित् । ऐ ६, ३२; गो २,६,१२ ।
२०५. अग्निर्वै पशूनां योनिः (पशूनामीष्टे [माश.J)। मै २,५,९; माश ४,३,४,११ । २०६. अग्निर्वै पाप्मनोऽपहन्ता । माश २,३,३,१३ ।
२०७. अग्निर्वै पुरस्तद्यत्तमाह पुरः इति प्राञ्चं ह्यग्निमुद्धरन्ति प्राञ्चमुपचरन्ति । माश ८, १,१,४ ।
२०८. अग्निर्वै प्रजापतिः (+ तस्याश्वश्चक्षुः ।काठ.]) । मै ३,४,६; काठ ८,५ ।
२०९. अग्निर्वै प्रथमा विश्वज्योतिः (इष्टका) । माश ७,४,२, २५ ।।
२१०. अग्निर्वै प्राङुदेतुं नाकामयत तमश्वेनोदवहन्यत् पूर्वमुदवहँस्तत् पूर्ववाहः पूर्ववाट्त्वम् । काठ ८,५।।
२११. अग्निर्वै बृहद्रथन्तरे (वैभ्रजश्छन्दः [माश.J) । जै १,३२७; माश ८,५,२,५ ।
२१२. अग्निर्वै ब्राह्मणः (ब्रह्मा [ष.]) । काठ ६,६; काठसंक ८३; ष १,१ ।।
२१३. अग्निर्वै भरतः स वै देवेभ्यो हव्यं भरति । कौ ३,२ ।।
२१४. अग्निर्वै भर्गः । माश १२,३,४,८; जैउ ४,१२,२,२ ।।
२१५. अग्निर्वै भुवोऽग्नेर्हीदं सर्वं भवति । माश ८,१,१,४।।
२१६. अग्निर्वै मध्यमस्य दाता । मै २,२,१३ ।।
२१७. अग्निर्वै मनुष्याणां चक्षुषः (आयुषः [मै २,३,५]) प्रदाता । मै २,१,७ ।
२१८. अग्निर्वै महान् (महिषः [माश.J) । माश ७, ३,१, २३; ३४; शांआ १,५; जैउ ३,१,४,७ ।।
२१९. अग्निर्वै मिथुनस्य कर्त्ता प्रजनयिता । माश ३,४,३,४।।
२२०. अग्निर्वै मृत्युः (यज्ञमुखम् [तै..) । माश १४,६,२,१०; कौ १३,३; जै १,३३२; तै १,६,१,८ ।
२२१. अग्निर्वै यज्ञः (यज्ञस्य पवित्रम् । मै.)। मै ३,६,१; तां ११,५,२; माश ३,४,३,१९ ।
२२२. अग्निर्वै यज्ञस्यान्तोऽवस्ताद् , विष्णुः परस्तात् (पुरस्तात् [मै ३, ६,१])। मै ४,३,१ ।।
२२३. अग्निर्वै यज्ञस्यावरार्ध्यो विष्णुः परार्ध्यः । माश ३,१,३,१; ५,२,३,६ ।।
२२४. अग्निर्वै यम इयं (पृथिवी) यम्याभ्यां हीदं सर्वं यतम् । माश ७,२,१, १० । २२५. अग्निर्वै योनिर्यज्ञस्य । माश १, ५,२,११; ३,१,३,२८; ११,१,२,२।।
२२६. अग्निर्वै रक्षसामपहन्ता । कौ ८,४,१०,३ ।।
२२७. अग्निर्वै रथन्तरम्। ऐ ५,३०; जै १,३३५ ।।
२२८. अग्निर्वै रात्रिरसा आदित्योऽहः । मै १,५,९ ।
२२९. अग्निर्वै रुद्रः । मै २,१,१०; काठ १०,६:२४,९; क ३५.५; माश ५,३,१,१०; ६,१,३,१०।।
२३०. अग्निर्वै रूरः ( रेतोधाः [तैसं., तै.) । तैसं ६,५,८,४; तां ७,५,१०: १२,४,२४; तै २,१,२,११; ३,७,३,७ ।।
२३१. अग्निर्वै रूरुरेतत् (रौरवं) सामापश्यत् । जै १,१२२ ।।
२३२. अग्निर्वै वनस्पतिः (वयस्कृच्छन्दः ।माश.J) । कौ १०,६; माश ८,५, २,६ ।।
२३३. अग्निर्वै वरुणं ब्रह्मचर्यमागच्छत् प्रवसन्तं तस्य जायां समभवत् । मै १,६,१२ ।
२३४. अग्निर्वै वरुणानीरभ्यकामयत, तस्य तेजः ( रेतः [काठ १९,३J) परापतत् तद्धिरण्यमभवत् । काठ ८,५; क ३०,१।।
२३५. अग्निर्वै वरेण्यम् (वसुः (मै.J)। मैं ३,४,२; जैउ ४,१२,२,१ ।।
२३६. अग्निर्वै वसुमान् (वसुवनिः [माश.J)। मै ४,१,१४; माश १,८,२,१६ ।
२३७. अग्निर्वै वाक् (विराट् [काठ.J) । काठ १८,१९; जै २,५४ ।
२३८. अग्निर्वै स देवस्तस्यैतानि नामानि शर्व इति यथा प्राच्या आचक्षते भव इति यथा वाहीकाः पशूनां पती रुद्रोऽग्निरिति तान्यस्याशान्तान्येवेतराणि नामान्यग्निरित्येव शान्ततमम् । माश १,७,३,८ ।।
२३९. अग्निर्वै समिष्टिरग्निः प्रतिष्ठितिः । मै १,१०,१५ ।।
२४०. अग्निर्वै सर्वा देवताः। मै १,४,१३, १४; ६,८; २,१,४; ३, १; ५; ३,१,१०; ७,८; ९,७; ४,४,७; ७,८; ८,५; काठ ११,८; ऐ १,१; गो २, १,१२; १६; जै १,३४२; तां ९, ४,५; १८, १,८; माश १,६,२,८; ३,१,३,१; ष ३,७ । ।
२४१. अग्निर्वै सर्वेषां देवानामात्मा । माश १४,३,२, ५।
२४२. अग्निर्वै स्वर्गस्य लोकस्याधिपतिः । ऐ ३,४२।।
२४३. अग्निर्वै ( °र्हि [माश.J) स्विष्टकृत् । कौ १०,५; माश १,५,३,२३ ।।
२४४. अग्निर्वै हिमस्य भेषजम् । तै ३,९,५,४ ।
२४५. अग्निर्वै होता (+अधिदैवं वागध्यात्मम् [माश १२,१, १,४]) । गो १,२, २४; माश १, ४, १,२४; ६,४,२,६ ।।
२४६. अग्निर्वै होता वेदिषत् । माश ६,७,३,११ ।
२४७. अग्निर्ह वाऽअपोऽभिदध्यौ मिथुन्याभिः स्यामिति ताः सम्बभूव तासु रेतः प्रासिञ्चत्तद्धिरण्यमभवत्तस्मादेतदग्निसंकाशमग्नेर्हि रेतस्तस्मादप्सु विन्दन्त्यप्सु हि (रेतः ) प्रासिञ्चत् । माश २, १,१,५।।
२४८. अग्निर्ह वा अबन्धुः । जैउ ३,२,१,७।
२४९. अग्निर्ह वाव राजन् गायत्रीमुखम् । जैउ ४, ६,३,२ ।
२५०. अग्निर्ह वै ब्रह्मणो वत्सः । जैउ २,५,१,१ ।
२५१. अग्निर्हि देवानां पशुः । ऐ १,१५।।
२५२. अग्निर्हि देवानां पात्नीवतः (ग्रहः) । कौ २८,३ ।
२५३. अग्निर्हि रक्षसामपहन्ता । माश १,२,१,६| ९; २,१३ ।।
२५४. अग्निर्हि वै धूः । माश १,१,२,९।।
२५५. अग्निर्होता (+पञ्च होतॄणाम् [तै..)। मै १,९,१; काठ ९,८; तै ३,१२,५,२; तैआ ३,३,१ ।।
२५६. अग्निर्ह्येष यत्पशवः । माश ६,२,१,१२ ।
२५७. अग्निश्च जातवेदाश्च सहोजा अजिरा प्रभुः । वैश्वानरो नर्यापाश्च पङ्क्तिराधाश्च सप्तमः । विसर्पेवाष्टमोऽग्नीनाम् । एतेऽष्टौ वसवः क्षिता इति । तैआ १,९,१,१ ।।
२५८. अग्निश्च म आपश्च मे (यज्ञेन कल्पन्ताम्) । तैसं ४,७,५,१ ।।
२५९. अग्निश्च ह वा आदित्यश्च रौहिणावेताभ्यां हि देवताभ्यां यजमानाः स्वर्गं लोकं रोहन्ति । माश १४,२,१,२।।
२६०. अग्निष्ट्वा वसुभिः पुरस्ताद् रोचयतु (+ गायत्रेण छन्दसा [तैआ.J)। मै ४,९,५; तैआ ४,६,१ ।
२६१. अग्निः षट्पादस्तस्य पृथिव्यन्तरिक्ष द्यौराप ओषधिवनस्पतय इमानि भूतानि पादाः । गो १,२,९ ।
२६२. अग्निस्सर्वा अन्वोषधीः (°र्वा दिश आभाति [मै.J) । मै ३,१,८; काठ १९,५ । २६३. अग्निस्सर्वा दिशो (+अनु [तैसं., तैआ.J) विभाति । तैसं ५,१,७,४; ८,६; काठ १९,७: २२,१; क ३०,५; तैआ ५,३,७ ।
२६४. अग्निः सर्वा देवताः । तैसं २,२,९,१; ३; ३,११,२; ५, ५,१,४; काठ १२,१; काठसंक ११८; १२२; ऐ २,३; तै १, ४, ४, १०; माश १, ६, ३, २०; तैआ ५,४,५।।
२६५. अग्निस्सूर्यस्य (योनिः) । काठ ७,४ ।।
२६६. अग्निः सृष्टो नोददीप्यत तं प्रजापतिरेतेन साम्नोपाधमत् स उददीप्यत दीप्तिश्च वा एतत्साम ब्रह्मवर्चसञ्च दीप्तिञ्चैवैतेन ब्रह्मवर्चसञ्चावरुन्धे । तां १३, ३,२२ ।
२६७. अग्नी रात्र्यसा आदित्योऽहः । काठ ७,६ ।।
२६८. अग्नी रुद्रः । मै २,३,७; ३,१,३; ७,७; ९,१; ४,२,१०; ६,९ ।
२६२. अग्नेः पक्षतिः । मै ३,१५,४; काठ ५३,११ ।
२६३. अग्नेः पूर्वदिश्यस्य. . . .स्थाने स्वतेजसा भानि । तैआ १,१८ ।
२७१. अग्नेः पूर्व्वाहुतिः । तै २,१,७,१।।
२७२. अग्ने कह्याग्ने किंशिलाग्ने दुध्राग्ने वन्याऽग्ने कक्ष्य या ता इषुर्युवा नाम तया
विधेम । मै २,१३,१२ (तु. तैसं ५,५,९,१-२; काठ ४०,३) ।
२७३. अग्ने गृहपते यस्ते घृत्यो भागस्तेन सह ओज आक्रममाणाय धेहि । तैसं २,४,५,२।।
२७४. अग्ने गृहपते सुगृहपतिरहं त्वया गृहपतिना भूयासम् । मै १,५,१४; काठ ५,५; ७,३ ।
२७५. अग्ने. . .जातवेदः शिवो भव । मै २,७,८।।
२७६. अग्ने दुःशीर्ततनो जुषस्व. . . एषा वा अस्य (अग्नेः) शृणती तनूः क्रूरैतया वा एष पशूञ्शमायते । मै १,८,६ ।।
२७७. अग्ने पृथिवीपते (ऊर्जं नो धेहि)। तै ३,११,४,१ ।।
२७८. अग्ने ब्रह्म गृहीष्व (गृह्णीष्व [मै., क.])। मै १,१,९; काठ १,८; क १,८ ।
२७९. अग्नेऽभ्यावर्तिन्नभि न आ वर्तस्वाऽऽयुषा वर्चसा सन्या मेधया प्रजया धनेन । तैसं ४,२,१,२॥
२८०. अग्ने महाँ असि ब्राह्मण भारत । कौ ३,२; तै ३,५,३,१; माश १,४, २,२ ।। २८१. अग्ने यत्ते तपस्तेन तं प्रतितप (“त्ते हरस्तेन तं प्रतिहर) योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः । काठ ६,९ ।
२८२. अग्ने रथन्तरम् (इन्द्रोऽन्वपाक्रामत्) । मै २, ३,७ ।।
२८३. अग्नेरहं देवयज्ययान्नादो भूयासम् । तैसं १,६,२,३ ।
२८४. अग्नेरहं स्विष्टकृतो देवयज्ययायुःप्रतिष्ठां गमेयम् । काठ ५, १ ।
२८५, अग्नेरायुरसि तस्य (+ ते [काठ.J) मनुष्या आयुष्कृतः । मै २,३,४; काठ ११,७ ।
२८६. अग्ने रुचां पते नमस्ते । काठ ६,९; ७,६ ।।
२८७. अग्ने रूपं स्पर्शाः। ऐ ३,२,५।।
२८८. अग्नेर् ऋग्वेदः (अजायत) । माश ११,५,८,३ ।
२८९. अग्नेरेतद्वैश्वानरस्य भस्म (रेतो [माश ७,१,१,१०]) यत्सिकताः। माश ७,१,१, ९ ।
२९०. अग्नरेतास्तन्वो यद् धिष्ण्याः । मै ४,६,९ ।
२९१. अग्ने रेतो हिरण्यम् । माश २,२,३,२८ ।।
२९२. अग्नेर्घृतम् । तैसं ५,५,१,५।।
२९३. अग्नेर्भागोऽसि दीक्षाया आधिपत्यं ब्रह्मस्पृतं त्रिवृत् स्तोमः । तैसं ४,३,९,१; मै २,८,५।
२९४. अग्नेर्यद्रेतः सिच्यते तद्धिरण्यमभवत् । काठसंक १३९ ।
२९५. अग्नेर्वाऽएतद्रेतो यद्धिरण्यम् । जै १,५६; माश १४,१,३,२९; ।
२९६. अग्नेर्वा एतद्वैश्वानरस्य भस्म यत् सिकताः । मै ३,२,३; ७; माश ३,५,१,३६ ।।
२९७. अग्नेर्वा एतद्वैश्वानरस्य (श्नौष्टं) साम। तां १३,११,२३ ।
२९८. अग्नेर्वा एताः सर्वास्तन्वो यदेता (वाय्वादयः) देवताः । ऐ ३,४ ।
२९९. अग्नेर्वा एषा तनूर्यदोषधयः । तै ३,२,५,७ ।
३००. अग्नेर्वा एषा वैश्वानरस्य प्रिया तनूर्यत्सिकताः । काठ २०, १ ।।
३०१. अग्नेर्वा एषा वैश्वानरस्य योनिर्यदवका । काठ २१,३ ।।
३०२. अग्नेर् (वत्सः) वृत्रः । तैआ १,१०,६,१३ ।।
३०३. अग्नेर्वै गुप्त्या अग्निहोत्रं हूयते । काठ ६,२ ।
३०४. अग्नेर्वै चक्षुषा मनुष्या विपश्यन्ति । तैसं २,२,९,३; ३,८,१-२ ।।
३०५. अग्नेर्वै प्रात:सवनम् (°र्वै भागः पुनराधेयः .मै.J) । मै १,७,२; कौ १२,६: १४,५; २८,५।।
३०६. अग्नेर्वै मनुष्या नक्तं चक्षुषा पश्यन्ति, सूर्यस्य दिवैतौ वै (°र्यस्य दिवा तौ [काठ.J) चक्षुषः प्रदातारौ । मै २,३,६; काठ ११,१ ।।
३०७. अग्नेर्वै मनुष्याश्चक्षुषा पश्यन्ति, विष्णोर्देवताः। काठ १०,१ ।
३०८. अग्नेर्वै सर्वमाद्यम् । तां २५,९,३ ।
३०९. अग्नेर्वै सृष्टस्य तेजा उददीप्यत, तदश्वत्थं प्राविशत् । मै १,६,५।।
३१०. अग्नेर्वै सृष्टस्य भा अपाक्रामत्, तद् विकङ्कतं प्राविशत् । मै ३.१,९।
३११. अग्नेर्वै सृष्टस्य विकङ्कतं भा आर्छत् । काठ १९,१०: २१,९; क ३०,१०।
३१२. अग्नेर्हिरण्यं प्रतिजगृहुषस्तृतीयमिन्द्रियस्यापाक्रामत् । काठ ९,१२ ।
३१३. अग्नेष्ट्वास्येन प्राश्नामि । गो २,१,२।।
३१४. अग्ने .. . स नो भव शिवस्त्वम् । मै २,७,१० ।
३१५. अग्ने सहस्राक्ष शतमूर्धञ्छततेजश्शतं ते प्राणास्सहस्रं व्यानाः । त्वं साहस्रस्य राय ईशिषे । काठ ७,३ ।
३१६. अग्नेस्तूषः (वासः) । काठ २३, १ ।।
३१७. अग्नेस्तेजसा सूर्यस्य वर्चसा (बृहस्पतिर्वो युनक्तु) । मै २,७,१२; तैआ ६,३,३ । ३१८. अग्नेस्तेजसेन्द्रस्येन्द्रियेण (+सूर्य्यस्य वर्चसा [ तां. 1)। मै २, ६, ११; ४, ४, ५; तां १,३,५; ७,३ ।।
३१९. अग्नेस्त्रयो ज्यायांसो भ्रातर आसन् ते देवेभ्यो हव्यं वहन्तः प्रामीयन्त । तैसं २,६,६,१; ६,२,८,४ ।।
३२०. अग्नेस्त्वा मात्रयेत्याहात्मानमेवास्मिन् (आमयाविनि) एतेन दधाति । तैसं २,३,११,४।।
३२१. अग्नेस्त्वाऽऽस्येन प्राश्नामि । तैसं २,६,८,६ ।।
३२२. अग्नेः समिदस्यभिशस्त्या मा पाहि । क ४,८।
३२३. अग्नेः स्विष्टकृतोऽहं देवयज्ययाऽऽयुष्मान् यज्ञेन प्रतिष्ठां गमेयम् । तैसं १,६,२,४ ।
३२४. अग्ने हव्यं रक्षस्व । तैसं १,१,४,२।।
३२५. अग्नौ हि सर्वाभ्यो देवताभ्यो जुह्वति । माश १,६,२,८ ।
३२६ अङ्गिरसां वा एकोऽग्निः । ऐ ६,३४ ।
३२७. अङ्गिरसो धिष्णियैरग्निभिः (सहागच्छन्तु) । तैआ ३,८,१ ।
३२८. अजरं वा अमृतमग्नेरायुः । काश ३,१,१०,४ ।
३२९. अजा ह्यग्नेरजनिष्ट गर्भात् । तैसं ४,२,१०,४ ।।
३३०. अजो ह्यग्नेरजनिष्ट शोकात् । मै २,७,१७; काठ १६,१७ ।।
३३१. अतूर्तो होतेत्याह न ह्येतं (अग्निं) कश्चन तरति । तैसं २,५,९,२-३ ।
३३२. अत्र वैश्यस्यापि (अग्निः) देवता । मै २,३,१।।
३३३. अथ यत्रैतत्प्रतितरामिव तिरश्चीवार्चिः संशाम्यतो भवति तर्हि हैष (अग्निः) भवति मित्रः । माश २,३,२,१२ ।।
३३४. अथ यत्रैतत्प्रथमं समिद्धो भवति, धूप्यतऽएव तर्हि हैष भवति रुद्रः। माश २,३,२,९ ।
३३५. अथ यत्रैतत्प्रदीप्ततरो भवति, तर्हि हैष (अग्निः) भवति वरुणः । माश २,३,२,१० ।
३३६. अथ यत्रैतत्प्रदीप्तो भवति, उच्चैर्धूमः परमया जूत्या बल्बलीति, तर्हि हैष (अग्निः) भवतीन्द्रः । माश २,३,२,११ ।।
३३७. अथ यत्रैतदङ्गाराश्चाकाश्यन्तऽ इव । तर्हि हैष (अग्निः) भवति ब्रह्म । माश २,३, २,१३ ।
३३८. अथ (अग्निः) यदुच्च हृष्यति नि च हृष्यति तदस्य मैत्रावरुणं रूपम् । ऐ ३, ४ ।
३३९. अथ योऽग्निर्मृत्युस्सः । जैउ १,८,१,८; २,५,१,२ ।।
३४०. अथर्वा त्वा प्रथमो निरमन्थदग्ने । मै २,७,३ ।
३४१. अथ ह वै त्रयः पूर्वेऽग्नय आसुर्भूपतिर्भुवनपतिर्भूतानां पतिः । जै २,४१ ।
३४२. अथाग्नेरष्टपुरुषस्य (महिमा कथ्यते) । तैआ १,८,८,२२ ।
३४३. अथातो दक्षिणः पक्षः सोऽयं लोकः सोऽयमग्निः सा वाक्तद्रथन्तरं स वसिष्ठः । ऐआ १,४,२।
३४४. अथैषोऽग्नये वैश्वानराय द्वादशकपालः (पुरोडाशः) । मै ३,३,१०।
३४५. अथोऽग्निर्वै सुक्षितिरग्निवास्मिँल्लोके सर्वाणि भूतानि क्षियति । माश १४,१, २,२४ ।
३४६. अद्भ्यो वाऽ एष (अग्निः) प्रथममाजगाम । माश ६,७,४,४ ।।
३४७. अनाधृष्टाऽसि (°नाधृष्या (तैआ.J) पुरस्तादग्नेराधिपत्या (त्ये [तैआ.J) आयुर्मे दाः । मै ४, ९,३; तैआ ४,५,३ ।।
३४८. अनुष्टुब् वा अग्नेः प्रिया तनूः । काठ १९,५।।
३४९. अन्नादा (प्रजापतेर्या तनूः) तदग्निः । ऐ ५,२५ ।।
३५०. अन्नादोऽग्निः । माश २,१,४,२८; २,४,१ ।
३५१. अन्नादो वा एषोऽन्नपतिर्यदग्निः । ऐ १,८।।
३५२. अपरिमिता ह्यग्नेस्तन्वोऽग्निना वा अनीकेनेन्द्रो वृत्रमहन् । मै ३,९,५।
३५३. अपां ह्येष गर्भो यदग्निः । तैसं ५,१,५,८ ।
३५४. अप्सुयोनिर्वा अग्निः । तैसं ५,२,२,४।।
३५५. अप्सुषदसि श्येनसदसीत्याहैतद्वा अग्ने रूपम् । तैसं ५, ३,११,२ ।।
३५६. अप्स्वग्ने सधिष्टव सौषधीरनुरुध्यसे । तैसं ४,२,११,३।
३५७. अमृतो ह्यग्निस्तस्मादाहादब्धायविति । माश १,९,२,२० ।
३५८. अयं वाऽअग्निरर्कः (°निरुख्यः [माश ८, २, १, ४]) माश ८, ६, २, १९; ९, ४, १, १८; शांआ १,४ । ।
३५९. अयं वाऽअग्निर्ऋतमसावादित्यः सत्यं यदि वासावृतमयं सत्यमुभयम्वेतदयमग्निः । माश ६, ४,४, १० ।।
३६०. अयं वाऽग्निर्लोकः (°ग्निर्ब्रह्म च क्षत्रं च [माश ६,६, ३,१५] ) । माश १, ९,२,१३ ।
३६१. अयं वाव यः (वायुः) पवते सोऽग्निर्नाचिकेतः । तै ३,११,७,१ ।
३६२. अयं वाव लोकोऽग्निश्चितः । माश १०,१,२,२।।
३६३. अयं वै (पृथिवी-) लोकोऽग्निः । माश १४, ९,१,१४ ।
६४. अयं ते योनिर्ऋत्विय इत्यरण्योः समारोहयत्येष वा अग्नेर्योनिः । तैसं ३,४,१०,४-५ ।।
३६५. अयमग्निर्ब्रह्म । माश ९,२,१,१५ ।।
३६६. अयमग्निर्वैश्वानरो योऽयमन्तः पुरुषे येनेदमन्नं पच्यते यदिदमद्यते तस्यैष घोषो भवति यमेतत्कर्णावपिधाय शृणोति स यदोत्क्रमिष्यन्भवति नैतं घोषं शृणोति । माश १४,८,१०,१।।
३६७. अयमग्निः सहस्रयोजनम् (स्वर्विद् [माश ९,२,१,८)। माश ९,१,१,२९ ।
३६८. अया ते अग्ने समिधा विधेम । तैसं १,२,१४,६ ।।
३६९. अया वै नामैषाग्नेः प्रिया तनूः । मै १,४८।।
३७०. अरुणाश्वा इहागताः । वसवः पृथिवीक्षितः । अष्टौ दिग्वाससोऽग्नयः । तैआ १,१२,४,९ ।
३७१. अर्कोऽग्निः । मै ३,१,१; २,४; काठ १९,१; क २९, ८ ।।
३७२. अर्को ज्योतिस्तदयमग्निः । मै १,६,२ ।।
३७३. अर्को वा (+एष यद् तैसं ५,३,४,६]) अग्निः । तैसं ५,५,६, ३ ।
३७४. अर्चिषम् (प्राणम् [माश.]) अग्नेः (आदित्य आदत्त)। जै २,२६; माश ११,८,३,७।।
३७५. अवकामनूप दधात्येषा वा अग्नेर्योनिः । तैसं ५,४,२,१ ।।
३७६. अशिष्टो ह्यग्निस्तस्मादाहाशीतमेति । माश १,९,२,२० ।
३७७. अश्वो वै भूत्वाग्निर्देवेभ्योऽपाक्रामत् स यत्रातिष्ठत् तदश्वत्थस्समभवत्, तदश्वत्थस्याश्वत्थत्वम् । काठ ८, २ ।
३७८. असा आदित्योऽग्निः । काठसंक १२२ ।।
३७९. असौ वाऽआदित्य एषोऽग्निः । माश ६, ४,१,१; ३,९,१०।।
३८०. असौ वा आदित्योऽग्निरनीकवान् (त्योऽग्निः शुचिः [तै १,१,६,२])। तै १,६,६,२ ।
३८१. असौ वा आदित्योऽग्निर्वसुमान् (ग्निर्वैश्वानरः [मै.]। मै २,१,२; तैआ ५,७,१० । ३८२. अस्मिंस्तेन (पृथिवी-) लोके प्रतितिष्ठति, अग्निं ज्योतिरवरुन्द्धे । काठसंक ९। ३८३. अह्नोऽग्निः (वत्सः) । ताम्रो अरुणः । तैआ १,१०,५-६ ।
३८४. आकृत्यै प्रयुजे अग्नये स्वाहा, मेधायै मनसे अग्नये स्वाहा, दीक्षायै तपसे अग्नये स्वाहा, सरस्वत्यै पूष्णे अग्नये स्वाहा । तैसं १,२,२,१; मै १,२,२; काठ २,२ ।।
३८५ आत्मैव (आत्मा वा [माश ७,३,१,२] ) अग्निः । माश ६,७,१,२०; १०,१,२,४ । ३८६. आदित्योऽग्निः । काठसंक ८३।
३८७. आदित्यो वाऽअस्य (अग्नेः) दिवि वर्चः । माश ७,१,१,२३ ।।
३८८. आपं त्वाग्ने मनसा ••• तपसा ••• दीक्षया ••• उपसद्भिर् ••• सुत्यया. . दक्षिणाभिर् •••अवभृथेन'••वशया'''स्वगाकारेण '•• एनमाप्नोति । तैसं ५,५,७,५।। ३८९. आपो वरुणस्य पत्न्य आसन् , ता अग्निरभ्यध्यायत् , ताः समभवत् । तैसं ५,५,४,१; तै १,१,३,८ ।।
३९०. आपो वा अग्निः पावकः । तै १,१,६,२ ।
३९१. आपो वा अग्नेर्योनिः (°स्सपत्नः [मै ३,४,१०])। मै ३,२,२; ४,१०; काठ १९,१२; क ३१,२।
३९२, आयुर्दा अग्नेऽस्यायुर्मे देहि । वर्चोदा . . . तनूपा ••••• यन्मे तनुवा ऊनं तन्म आ पृण । तैसं १,५,५,३-४ ।
३९३. आयुर्वाऽग्निः । माश ६,७,३,७।।
३९४. आहुतयो वाऽअस्य (अग्नेः .मै.J) प्रियं धाम । मै १,८,५; माश २, ३,४, २४ । ३९५. इदमग्न आयुषे वर्चसे कृधि । काठ ३६, १५ ।।
३९६. इन्द्रतमेऽग्नौ स्वाहा । मै ४,९,९ ।।
३९७. इन्द्रो वा अधृतशिथिल इवामन्यत, सोऽग्नौ चैव बृहस्पतौ चानाथत । काठ ११, १ ।
३९८. इमं पशुं पशुपते ते अद्य बध्नाम्यग्ने । तैसं ३,१,४,१ ।।
३९९, इमाः प्रजा अर्कमभितो निविष्टा इममेवाग्निम् । ऐआ २,१,१ ।
४००. इमे वै लोको एषोऽग्निः । माश ६,७,१,१६; ७,३,१,१३ ।
४०१. इयं (पृथिवी) वाऽग्निः (+अपन्नगृहः [तै.. ) । तै ३,३,९,८; माश ७, ३,१,२२ । ४०२. इयं (पृथिवी) वा अग्निर्बृहन्नाकः । काठ ३१,२; क ४७,२ ।।
४०३. इयं वा अग्निर्वैश्वानरः । तैसं ५,६,६,४; मै १,४,१३: २,१,२; तै ३,८,६,२; ३,९,१७,३ ।
४०४, इयं (पृथिवी) वा अग्नेर्योनिः । मै ३,२,१ ।
४०५. इयं (पृथिवी) वावाग्निः । क ३५, ३ ।
४०६. इयं वै पृथिव्यग्निर्वैश्वानरः । माश ३,८,५,४ ।
४०७. इयं (पृथिवी) ह्यग्निः । माश ६,१.१,१४: २९ ।
४०८. इयं (पृथिवी) ह्यग्नेर्योनिः । काठ ७,४ ।
४०९. ईश्वरो वा एषो (अग्निः) ऽन्तरिक्षसद् ( विद्युत् ) भूत्वा प्रजा हिंसितोर्यदाह शिवो भव प्रजाभ्या इति, प्रजाभ्य एवैनं (अग्निम् ) शिवमकः । मै ३,१,६ ।।
४१०. उत्तरत उपचारोऽग्निः । तैसं ५,३,७,५।
४११. उत्तरार्धेऽग्नये जुहोति । तैसं २,६,२,१ ।
४१२. उदपुरा नामास्यन्नेन विष्टा•••••मनुष्यास्ते गोप्तारोऽग्निरधिपतिः । मै २,८,१४ ।
४१३. उदेह्यग्ने अधि मातुः पृथिव्याः । काठ ७,१२।।
४१४. उपोदको नाम लोको यस्मिन्नयमग्निः । जै १,३ ३४ ।
४१५. उभयं वाऽएतदग्निर्देवानां होता च दूतश्च । माश १,४,५,४ ।
४१६. उलूखलमुप दधात्येषा वा अग्नेर्नाभिः । तैसं ५,२,८,७।।
४१७. उशिक् पावको अरतिः सुमेधा मर्तेष्वग्निरमृतो नि धायि । तैसं ४,१,२,२ ।
४१८. ऊर्ध्वो ह्ययमग्निर्दीप्यते । जै १,२४७।
४१९. ऋग्वेद एवाग्नेः (उदैत् ) । जै १,३५७ ।।
४२०. ऋताषाड् ऋतधामाग्निर्गन्धर्वस्तस्यौषधयोऽप्सरस ऊर्जो (रसो मुदा मै., क.J, ) नाम । तैसं ३,४,७,१; मै २,१२,२; क २९,३ ।।
४२१. ऋषयो ह्येतम् (अग्निम् ) अस्तुवन् । तैसं २,५,९,१ ।।
४२२. एतद्वा अग्निधानं हस्तस्य यत्पाणिस्तस्मादेतो हस्तस्याग्निर्नतमां विदहति । मै १, ८,२ ।
४२३. एतद्वा अग्नेः प्रियं (प्रियतमं [माश.] ) धाम यद् घृतम् (आज्यम् ।तैसं.] ) । तैसं ५,१,९,५; काठ २०,७; २१,८; माश १,३,२,१७।।
४२४. एतद्वा अग्नेस्तेजो यद् घृतम् । तैसं २,५, २,७ ।।
४२५. एतद्वै यजमानस्य स्वं यदग्निः । एतदग्नेर्यद्यजमानः । मै १,५,११।।
४२६. एतम् (सूर्यम् ) अग्नावध्वर्यवः (मीमांसन्ते) । ऐआ ३,२,३ ।।
४२७. एतानि वै तेषामग्नीनां नामानि यद्भुवपतिर्भुवनपतिर्भूतानां पतिः । माश १, ३, ३, १७ ।
४२८. एतामग्नये प्राचीं दिशमरोचयन् । काठ ८,१ ।।
४२९. एतावन्तोऽग्नय (१. अन्वाहार्यपचनः, २. गार्हपत्यः, ३. आहवनीयः, ४. सभ्यः, ५. आवसथ्यः ) आधीयन्ते । तै १, १,१०,४ ।।
४३०. एते वै यज्ञस्यान्त्ये तन्वौ यदग्निश्च विष्णुश्च । ऐ १,१।
४३१. एष (अग्निः) उ वा इमाः प्रजाः प्राणो भूत्वा बिभर्ति तस्माद्वेवाह भारतेति (भरतवत् [माश १,५,१,८]) । माश १,४, २,२ ।।
४३२. एष उ ह वाव देवानां नेदिष्टमुपचर्यो ( महाशनतमः । जैउ २,५, ३, १J) यदग्निः ।
जैउ २,५,२,१ ।।
४३३. एष (अग्निः) एव महान् । माश १०,४,१,४।।
४३४. एष खलु वै देवरथो यदग्निः । तैसं ५,४,१०,१।।
४३५. एष रुद्रोः यदग्निः । तैसं २,६,६,६; ३, ५,५,२; तै १,१,५,८-९; ६,६; ८,४; ४,३,६ ।
४३६. एष वा अग्निः पाञ्चजन्यो यः पञ्चचितीकः । तैसं ५,३,११,३ ।।
४३७. एष वा अग्निर्वैश्वानरो य एष (आदित्यः) तपति । जै १,४५।।
४३८. एष (+ह (गो.]) वा अग्निर्वैश्वानरो यत् प्रदाव्यः ( प्रवर्ग्यः [तैआ. 1 ) । गो २, ४, ८; तै ३, ३,८,४; तैआ ५,१०,५।।
४३९. एष वा अग्निर्वैश्वानरो यदसा आदित्यः ( नरो यद् ब्राह्मणः (तैसं, तै.)। तैसं ५,२,८,१-२ ; मै १,६, ३; ६; तै २,१,४,५; ३,७,३,२ ।।
४४०. एष वै तुथो विश्ववेदा यदग्निः । मै ४, ८,२ ।
४४१. एष वै देवाननुविद्वान्यदग्निः । माश १,५,१,६ ।।
४४२. एष वै धुर्योऽग्निः (यज्ञो यदग्निः [माश.J) । तै ३,२,४,३; माश २,१,४,१९ । ४४३. एष वै मृत्युर्यदग्नी रिहन्नेव नाम । जै १,२६ ।
४४४. एष (अग्निः) हि देवेभ्यो हव्यं भरति तस्माद्भरतोऽग्निरित्याहुः । माश १, ४,१,१; ५,१,८ ।
४४५. एष हि यज्ञस्य सुक्रतुर्यदग्निः । माश १,४,१,३५।।
४४६. एष हि रुद्रो यदग्निः ([अग्निः] वाजानां पतिः .ऐ.J)। मै १,६,७; ११; ऐ २,५। ४४७. एष हि हव्यवाड् (हव्यवाहनो) यदग्निः । माश १,४,१,३९ ।।
४४८. एषा वा अग्नेः पशव्या तनूर्या दधिक्रावती । काठ ७,४ ।।
४४९. एषा वा अग्नेः प्रिया तनूर्यच्छन्दांसि (नूर्यत्क्रुमुकः [मै., तै.J) मै ३,१, ९; काठ २०,१; तै १,४,७,३ ।।
४५०. एषा वा अग्नेः प्रिया तनूर्यदजा । तैसं ५,१, ६,२; काठ १९,५; क ३०,३; तैआ ५,२, १३।।
४५१. एषा वा अग्नेः प्रिया तनूर्यद् घृतम् । मै ३,२,६; ७; ७,५; काठ २४,५; क ३७,६ ।
४५२. एषा वा अग्नेः प्रिया तनूर्यद् वैश्वानरः (तनूर्यावैश्वानरी [काठ,J) । तैसं ५,५, १, ५; मै ३, १,१०; ३,३; काठ १९,९ ।।
४५३. एषा वा अग्नेर्दधिक्रावती प्रिया तनूः पशव्या सर्वसमृद्धा । मै १,५, ६ ।
४५४. एषा वा अग्नेर्भिषज्या तनूर्या सुरभिमती अग्नये सुरभिमतेऽष्टाकपालं निर्वपेद्यं
प्रमीतं शृणुयुः पूतिर्वा एष श्रूयते यः प्रमीतश्श्रूयते । काठ १०,६ ।
४५५. एषा वा अग्नेर्भेषजा तनूर्यत् सुरभिः । मै २,१,३; १० ।।
४५६. एषा वा अस्य (अग्नेः) घोरा तनूर्यद् रुद्रः । तैसं २,२,२,३ ।
४५७. एषा वा अस्य (अग्नेः) जातवेदस्या तनूः क्रूरैतया वा एष पशूञ्शमायते । मै १,८,६ ।
४५८. एषा वा अस्य (अग्नेः) भेषज्या तनूर्यत् सुरभिमती । तैसं २,२,२,४ ।
४५९. एषा संवत्सरस्य क्रूरा तनूर्या वैश्वानरी तयैतदभितपन्नभिशोचयंस्तिष्ठति भागधेयमिच्छमानस्तामेवास्य (अग्निं) प्रीणाति साऽस्मै प्रीता वृष्टिं निनयति । काठ १०,१।
४६०. एषा ह वास्य (अग्नेः) सहस्रं भरता यदेनमेकं सन्तं बहुधा विहरन्ति । ऐ १,२८ ।
४६१. एषोऽग्निर्देवानां सेनानी । काठ ३६,८ ।
४६२. ओजो वा अग्निः । काठ २०,११; क ३१, १३ ।
४६३. ओषधयो वा अग्नेर्भागधेयम् (°वा एतस्य मातरः [क.J) । तैसं ५, १,५,९; क ३०,३।
४६४. कामा वा अग्नयः । तैसं ५,१,८,२; काठ १९,८; क ३०, ६।।
४६५. कृत्तिका नक्षत्रमग्निर्देवता । तैसं ४,४,१०,१; मै २,१३,२० ।
४६६. कृष्णो वै भूत्वाऽग्निरश्वं प्राविशत् । मै ३,१,४ ।।
४६७. केतो अग्निः । मैं १,९,१; तैआ ३,१,१।।
४६८. क्षुच्च तृष्णा च । अनुक्चानाहुतिश्च । अशनया च पिपासा च । सेदिश्चामतिश्च । एतास्ते अग्ने घोरास्तनुवः । तैआ ४,२२ ।
४६९. गन्धो हैवास्य (अग्नेः) सुगन्धितेजनम् । माश ३,५,२,१७ ।
४७०. गर्भो अस्योषधीनां गर्भो वनस्पतीनाम् । गर्भो विश्वस्य भूतस्याग्ने गर्भो अपामसि । तैसं ४,२,३,३; क २५,१।।
४७१. गायत्रछन्दा अग्निः (ह्यग्निः [तां ७,८,४])। तां १६,५,१९ ।
४७२. गायत्री छन्दोऽग्निर्देवता शिरः । माश १०,३,२,१ ।
४७३. गायत्री वा अग्निः । माश १,८,२,१३ ।
४७४. गायत्रोऽग्निः (°त्रो वा अग्निः कौ., तै.J)। तैसं ५, १,४,६; २,३,५; कौ १,१; ३,२; ९,२; १९,४; तै १,१,५,३ ।।
४७५. गायत्रो (यो जै. १,१३८J) ह्यग्निः । मै ३, ९,५; जै १, १४२ ।
४७६. घर्मः शिरस्तदयमग्निः । तैसं १,६,१,२; काठ ७,१४; तैआ ४,१७ ।
४७७. घृताहुतिर्ह्यस्य (अग्नेः) प्रियतमा । तैसं २,५,९,२ ।।
४७८. घृतेन त्वं (जातवेदः) तनुवो वर्धयस्व स्वाहाकृतं हविरदन्तु देवाः । तैसं ३,१,४,५।।
४७९. चत्वारो ह वाऽअग्नयः । आहित उद्धृतः प्रहृतो विहृतः । माश ११,८,२,१ ।। ४८०. चमसो ह्येष (अग्निः ) देवपानः । तैसं २,५,९,३ ।
४८१. चित्रोऽसीति सर्वाणि हि चित्राण्यग्निः । माश ६,१,३,२० ।
४८२. छन्दांसि खलु वा अग्नेः प्रिया तनूः । तैसं ५,१,५,३; २,१,२।।
४८३. छन्दांसि वा अग्नेर्योनिः । काठ १९,१०; २०,४ ।।
४८४. छन्दांसि वा अग्नेर्वासश् छन्दांस्येष वस्ते (°र्वासश् छन्दोभिरेवैनं परिदधाति [काठ.J) । मै ३,१,५; काठ १९,५।।
५८५. छन्दोभिर्वा अग्निरुत्तरवेदिमानशे । काठ २०,५ ।
४८६. जुहूर्ह्येष (अग्निः) देवानाम् । तैसं २,५,९,३ ।।
४८७. जुह्वेह्यग्निस्त्वाह्वयति (°यतु [.क.J) । तैसं १, १,१२,१; काठ १,१२; क १,१२ ।।
४८८. ज्योतिर्वा अग्निः । तैसं १,५,९,५।।
४८९. तं यद् घोरसंस्पर्शं सन्तं (अग्निं) मित्रकृत्येवोपासते तदस्य (अग्नेः) मैत्रं रूपम् । ऐ ३, ४ ।
४९०. त (अग्नीन्द्रसूर्याः) इमांल्लोकान् व्युपायन्नग्निरिमम् (पृथिवीलोकम् ) । काठ २९, ७ ।।
४९१. तऽएते सर्वे पशवो यदग्निः । माश ६,२,१,१२।।
४९२. ततो वा अग्निरुदतिष्ठत् । सा दक्षिणा दिक् । तैआ १,३३,५,७ ।
४९३. ततोऽस्मिन् (अग्नौ) एतद्वर्च आस । माश ४,५,४,३ ।
४९४. तदग्निर्वै प्राणः । जैउ ४,११,१,११ ।।
४९५. तद् (हिरण्यम् ) आत्मन्नेव हृदयेऽग्नौ वैश्वानरे प्रास्यत् । तै ३,११,८,७।।
४९६. तदेभ्यः (देवेभ्योऽग्निः) स्विष्टमकरोत्तस्मात् स्विष्टकृतऽइति । माश १,७,३,९। ४९७. तद्वाऽएनमेतद्ग्रे देवानाम् (प्रजापतिः) अजनयत । तस्मादग्निरग्रिर्ह वै नामैतद्यदग्निरिति । माश २,२,४,२।।
४९८. तं (अग्निं) नैव हस्ताभ्यां स्पृशेन्न पादाभ्यां न दण्डेन । जैउ २,५,२,३ ।
४९९. तपो मे तेजो मेऽन्नम्मे वाङ् मे । तन्मे त्वयि । तन्मे (अग्ने) पुनर्देहि । जैउ ३,५,१,१६ ।।
५००. तपो वाऽअग्निः । माश ३,४,३,२।।
५०१. तमग्निरब्रवीदहमेव त्वेतः पास्यामीति पृथिव्या अहमन्तरिक्षादिति वरुणः । मै ४,३, ४ ।।
५०२. तमु त्वा (अग्ने) पाथ्यो वृषा समीधे । मै २,७,३ ।।
५०३. तमु हैव पशुषु कामं रोहति य एवं विद्वान् रोहिण्याम् (अग्नी) आधत्ते । माश २,१,२,७।
५०४. तयोर् (द्यावापृथिव्योः) एष गर्भो यदग्निः । तैसं ५,१,५,४ ।
५०५. तव छन्दसेत्यग्निमब्रुवन् (देवाः)। जै १,२११ ।।
५०६. तस्मादग्नये सायं हूयते सूर्याय प्रातः । तै २,१,२,६ । ।
५०७. तस्माद् (प्रजापतेः) अग्निरध्यसृज्यत । सोऽस्य मूर्ध्न ऊर्ध्व उदद्रवत् । क ३, १२ ।
५०८. तस्य (अग्नेः) रथगृत्सश्च रथौजाश्च सेनानीग्रामण्याविति वासन्तिकौ तावृतू । माश ८,६,१,१६ ।।
५०९. तस्य (अग्नेः) रेतः पराऽपतत्, तदियम् (पृथिवी) अभवत् । तैसं ५,५,४,१ । ५१०. तस्य (अग्नेः) रेतः परापतत्तद्धिरण्यमभवत् । तै १,१,३,८ ।
५११. तस्या (श्रियः) अग्निरन्नाद्यमादत्त । माश ११, ४,३,३।।
५१२. तस्या (गायत्र्यै) अग्निस्तेजः प्रायछत्, सोऽजोऽभवत् । मै १,६,४। ।
तस्य (यज्ञस्य) अग्निर्होताऽऽसीत् । गो १,१,१३ ।।
५१३. ता इमाः प्रजा अर्कमभितो निविष्टा इममेवाग्निम् । ऐआ २,१,१ ।
५१४. तान् (पशून् ) अग्निस्त्रिवृता स्तोमेन नाप्नोत् । तै २, ७,१४, १।
५१५. तान् ( असुरान्) अग्निस्त्रेधाऽत्मानं कृत्वा प्रत्ययतताऽग्निरेवास्मिँल्लोके भूत्वा वरुणोऽन्तरिक्षे, रुद्रो दिवि । मै ४,३,४ ।
५१६. तान्यनृतमकर्तेति समन्तं देवान् पर्यविशँस्ते देवा अग्ना एवानाथन्त । काठ १०,७।
५१७. तिग्मशङ्गो वृषभः शोशुचानः...आतन्तुमग्निर्दिव्यं ततान । मै २,१३,२२।।
५१८. तूर्णिर्हव्यवाडित्याह, सर्वं ह्येष (अग्निः) तरति । तैसं २,५,९,३ ।।
५१९. तेऽङ्गिरस आदित्येभ्यः प्रजिघ्युः श्वःसुत्या नो याजयत न इति तेषां हाग्निर्दूत आस त आदित्या ऊचुरथास्माकमद्यसुत्या तेषां नस्त्वमेव (अग्ने) होतासि, बृहस्पतिर्ब्रह्माऽयास्य उद्गाता, घोर आङ्गिरसो अध्वर्य्युरिति । कौ ३०, ६ ।।
५२०. तेजसाऽग्निम् (आदित्योऽस्तं यन् प्रविशति) । जै १,७।।
५२१. तेजोऽग्निः (°ह्यग्निः _मै १,४,७) । मै ३, ३,६ ।।
५२२. तेजोऽवा अग्निः (°ऽग्नेर्वायुः [तैसं.J) । तैसं ५,५,१,१; मै १,६,८; ४,७,३; काठ १०, २; २२,६; तै ३,३,४,३; ९,५,२; माश २,५,४,८; ३,९,१, १९ ।।
५२३. ते देवा अब्रुवन्पशुर्वाऽअग्निः । माश ६,३,१,२२ ।।
५२४. ते वाऽएते प्राणा एव यद् अग्नयः (आहवनीयगार्हपत्यान्वाहार्यपचनाख्याः) । माश २,२,२,१८ ।
५२५. तेऽविदुः ( देवाः) । अयं (अग्निः) वै नो विरक्षस्तमः । माश ३,४,३,८। ।
५२६. तेषां नः (आदित्यानाम् अग्ने) त्वं होताऽसि । गौर् (घोर- [कौ..) आङ्गिरसोऽध्वर्युः, बृहस्पतिरुद्गाताऽयास्यो ब्रह्मा । कौ ३०,६; जै ३,१८८ ।।
५२७. तौ चक्षुषः प्रदातारौ (अग्निश्च विष्णुश्च) । काठ १०,१ ।।
५२८. त्रयोदशाग्नेश्चितिपुरीषाणि । माश ९,३,३,९।
५२९. त्रयो वा अग्नयो हव्यवाहनो देवानां कव्यवाहनः पितृणां सहरक्षा असुराणाम् । तैसं २,५,८,६।।
५३०. त्रिवृद्धयग्निः (°वृद° [माश.]) । मै ३,१,६; २,४; ३,६; माश ६, १,१, १।
५३१. त्रिवृद्वा अग्निः (+ अङ्गारा अर्चिर्धूम इति [कौ.J) । काठ १९,५; कौ २८,५; तैआ ५,९,६ ।।
५३२. त्वमग्ने व्रतपा असि। काठ ६,१० ।
५३३. त्वमग्ने सूर्यवर्चा असि (+ सं मामायुषा वर्चसा प्रजया सृज तैसं.J) । तैसं १, ५,५,४-५; मै १,५,८।।
५३४. त्वं (अग्ने ) पूषा विधतः पासि नु त्मना । तै ३,११,३,१ ।
५३५. त्वामग्ने पुष्करादध्यथर्वा निरमन्थत । मै २,७,३ ।।
५३६. ददा इति ह वा अयमग्निर्दीप्यते । जैउ ३,२,२,१ ।
५३७. दिशोऽग्निः । माश ६,२,२,३४; ३,१,२१;८,२, १० ।।
५३८. दीक्षायै च त्वा (अग्ने) तपसश्च तेजसे जुहोमि । तैसं ३,३,१,१ ।
५३९ . दीदायेव ह्यग्निर्वैश्वानरः । तां १३,११,२३ ।
५४०. देवपात्रं वाऽएष यदग्निः । माश १,४,२,१ ।।
५४१. देवरथो वा अग्नयः । कौ ५,१०।।
५४२. देवलोकं वा अग्निना यजमानोऽनु पश्यति । तैसं २,६,२,१ ।।
५४३. देवा असुरैर्विजयमुपयन्तोऽग्नौ प्रियास्तन्वः संन्यदधत । मै १,७,२।
५४४. देवान् ह्येष (अग्निः) परिभूः । तैसं २,५,९, ३ ।
५४५. देवानामेव एको योऽग्निमुपतिष्ठते । काठ ७,७ ।
५४६. देवायतनं वा अग्निर्वैश्वानरः । मै ३, १,१० ।
५४७. देवाश्च वा असुराश्च संयत्ता आसन्, सोऽग्निर्विजयमुपयत्सु त्रेधा तन्वो विन्यधत्त, पशुषु तृतीयमप्सु तृतीयममुष्मिन्नादित्ये तृतीयम् । काठ ८,८ ।
५४८, देवा ह्येतम् (अग्निम् ) ऐन्धत । तैसं २,५,९,१ ।।
५४९, द्यौर्वा अस्य (अग्नेः) परमं जन्म । माश ९,२,३,३९ । ।
५५०. द्वे वा अग्नेस्तन्वौ हव्यवाहन्या देवेभ्यो हव्यं वहति, कव्यवाहन्या पितृभ्यः । मै १,१०, १८; काठ ३६,१३।।
५५१. न ह स्म वै पुराऽग्निरपरशुवृक्णं दहति । तैसं ५,१,१०,१; काठ १९, १० । । ५५२. नाको नाम दिवि रक्षोहाग्निः । मै ४,१,९; काठ ३१,७ ।।
५५३. नेदुच्छिष्टमग्नौ जुहवाम । माश ४,४,३,१२ ।।
५५४. पञ्चचितिकोऽग्निः । माश ६,३,१,२५; ८,६,३,१२ ।
५५५. पञ्च वा एतेऽग्नयो यच्चितय उदधिरेव नाम प्रथमो दुध्रो द्वितीयो गह्यस्तृतीयः किंशिलश्चतुर्थो वन्यः पञ्चमः । तैसं ५, ५,९, १ (तु. काठ ४०,३) । ५५६. पर्जन्यो (पशवो [तै.J) वाऽअग्निः (+ पवमानः [तै.) । तै १,१,६,२; माश १४,९,१,१३ ।
५५७, पर्वैतदग्नेर्यदुखा । माश ६,२,२,२४ ।।
५५८. पशवो वा अग्नेः प्रियं धाम । काठ ७,६ ।।
५५९. पशवो वा आहुतयो, रुद्रोऽग्निः स्विष्टकृत् । मै १,४, १३ ।।
५६०. पशुर् (+ वा । मै., काठ., क.) अग्निः (ह्यग्निः [मै १,५,६; ३,२,१]) । तैसं ५,२,६, २; मै ३, ३,४; ४,७; काठ ७,४; २०,४; क ३१,६ । ।
५६१. पशुर् (+ वा [तैसं.J) एष यदग्निः । तैसं ५, ७, ६, १; माश ६, ४,१, २; ७, २,४, ३०; ३, २,१७ ।
५६२. पशूनेव प्रथमस्य तृचस्य प्रथमया स्तोत्रियया जयति, भूमिं द्वितीयया, अग्निं तृतीयया । जै १, २४५ ।
५६३. पाङ्क्तोऽग्निः । काठ २०, ५; २१, ९; क ३१, ७; तैआ १, २५, ३,७ ।।
५६४, पाहि माग्ने दुश्चरिताद् आ मा सुचरिते भज । तैसं १,१, १२,२; काठ १,१२; क १,१२।
५६५. पुञ्जिकस्थला च क्रतुस्थला चाप्सरसाविति दिक् चोपदिशा चेति ह स्माह माहित्थिः सेना च तु ते समितिश्च ( अग्नेः ) । माश ८, ६, १,१६ ।।
५६६. पुनरासद्य सदनमपश्च पृथिवीमग्ने शेषे मातुर्यथोपस्थे अन्तरस्यां शिवतमः । मै २,७,१०।
५६७. पुनरूर्जा नि वर्तस्व पुनरग्न इषाऽऽयुषा । पुनर्नः पाहि विश्वतः । तैसं ४,२,१,३।।
५६८. पुरीषायतनो वा एष यदग्निः । तैसं ५, १, २, ४ ।।
५६९. पुरुष एवाग्निर्वैश्वानरः । जै १, ४५ ।
५७०. पुरुषो(+वा [मा १४,९,१,१५] ऽग्निः । माश १०, ४, १, ६ ।।
५७१. पृथिवीं लोकानां जयत्यग्निं देवं देवानाम् । जै १, २६ ।।
५७२. पृथिवी समित् , तामग्निः समिन्द्धे । मै ४, ९,२३ ।।
५७३. पृथिव्यग्नेः (+पत्नी .गो. ]) । मै १, ९, २; काठ ९, १०; गो २, २, ९; तैआ ३,९,१।
५७४. पृथिव्येवाग्निर्वैश्वानरः । जै १, ४५ ।।
५७५. प्रजननं (+हि ॥ तैसं.]) वा अग्निः । तैसं १, ५, ९, १; तै १, ३, १, ४ ।।
५७६. प्रजननं वा ऋतवोऽग्निः प्रजनयिता । मै १, ७, ४; काठ ९,३ ।।
५७७. प्रजापतिरग्निः । माश ६, २, १,२३; ३०; ५, ३, ९; ७, २,२, १७ ।।
५७८. प्रजापतिरिमां ( पृथिवीं ) प्रथमां स्वयमातृण्णां चितिमपश्यत्.....। तमग्निरब्रवीत् । उपाहमायानीति, केनेति, पशुभिरिति । माश ६, २, ३, १-२ ।
५७९. प्रजापतिरेषो (°तिर्वा एष यद् तैसं.J) ऽग्निः । तैसं ५,६,९,२; माश ६,५, ३, ७; ८,१. ४ ।
५८०. प्रजापतिर्देवताः सृजमानः । अग्निमेव देवतानां प्रथममसृजत । तै २, ५, ६, ४ ।
५८१. प्रजापतिर्वा इदमासीत्तस्मादग्निरध्यसृज्यत । सोऽस्य मूर्ध्न ऊर्ध्व उदद्रवत् । क ३, १२ ।
५८२. प्रजापती रोहिण्यामग्निमसृजत तं देवा रोहिण्यामादधत ततो वै ते सर्वान्रोहानरोहन् । तै १, १, २, २ ।
५८३. प्रणीर्ह्येष ( अग्निः ) यज्ञानाम् । तैसं २,५,९,२ ।।
५८४. प्राची दिगग्निर्देवता । मै १, ५, ४; काठ ७, २; तै ३, ११,५, १।।
५८५. प्राची दिग् , वसन्त ऋतुरग्निर्देवता, ब्रह्म द्रविणं, गायत्री छन्दो रथन्तरं साम, त्रिवृत् स्तोमः, स उ पञ्चदशवर्तनिः, सानगा ऋषिस्त्र्यविर्वयः , कृतमयानां पुरोवातो वातः । मै २,७,२० (तु. तैसं ४, ३, ३, १; काठ ३९,७) ।।
५८६. प्राचीमेव दिशमग्निना प्राजानन् । माश ३,२,३,१६ ।।
५८७. प्राची हि दिगग्नेः । माश ६, ३, ३, २ ।।
५८८. प्राच्या त्या दिशा सादयाम्यग्निना देवेन देवतया गायत्रेण छन्दसाग्नेः शिरा उपदधामि । मै २, ८, ११ ।।
५८९. प्राजापत्यो (+ वा एषो । तैआ.J) ऽग्निः । मै ३, १, ७; तैआ १, २६, ४, ६ । ५९०. प्राणा अग्निः । माश ६, ३,१, २१; ८,२,१० ।
५९१. प्राणो वा (+इन्द्रतमः । तैआ.) अग्निः । माश २, २, २, १५; ९,५, १, ६८; तैआ ५,८,१२ ।
५९२. बाधस्व (अग्ने ) द्विषो रक्षसो अमीवाः । तैसं ४, १, ५, १ ।
५९३. बृहद्भाः पाहि माग्ने दुश्चरितादा मा सुचरिते भज । तैसं १, १,१२, २ ।
५९४. बृहस्पतिस्त्वा सादयतु पृथिव्याः पृष्ठे......अग्निस्तेऽधिपतिः । तैसं ४,४,६,१ ।। ५९५. ब्रह्म वा अग्निः (+क्षत्रं सोमः [कौ ९,५J)। कौ ९,१; ५; १२,८; जै १, १८२; तै ३, ९, १६,३; माश २,५,४,८; ५,३,५,३२ ।।
५९६. ब्रह्म ह्यग्निः (+ तस्मादाह ब्राह्मणेति [माश १, ४, २,२]) । माश १, ५,१,११ ।
५९७, ब्रह्म ( ब्रह्मवर्चसं वा .मै.J) अग्निः । मै ३, ८, ४; माश १, ३, ३, १९ ।। ५९८. भूरिति वा अग्निः । तैआ ७,५,२; तैउ १, ५, २ ।।
५९९. मन एवाग्निः । माश १०, १, २, ३ ।।
६००. मनुर्ह्येतम् ( अग्निम् ) उत्तरो देवेभ्य ऐन्ध । तैसं २, ५, ९, १ ।।
६०१. मनुष्या अग्नेरायुष्कृतः । काठ ११, ८ ।।
६०२. मय्यग्निस्तेजो दधातु । तैआ ४, ४२, ३ ।।
६०३. मरुतोऽद्भिरग्निमतमयन् तस्य तान्तस्य हृदयमाच्छिन्दन् साऽशनिरभवत् । तै १,१,३,१२ ।
६०४. महान् ह्येष यदग्निः.......ब्राह्मणो ह्येष भारतेत्याहैष हि देवेभ्यो हव्यं भरति । तैसं २,५,९,१ ।
६०५. मा छन्दस्तत्पृथि३व्यग्निर्देवता। मै २, १३, १४ ।
६०६. मिथुनं वा अग्निश्च सोमश्च सोमो रेतोधा अग्निः प्रजनयिता । काठ ८,१०; क ७, ६ ।।
६०७. मुखं ह्येतदग्नेर्यद् ब्रह्म । माश ६, १,१, १० ।
६०८. मुखम् (मृत्युर् ।काठ.J) अग्निः । काठ २१, ७; माश १२,९,१,११ ।
६०९. मुखाद् (पुरुषस्य) अग्निरजायत । काठसंक १०१ ।
६१०. मृत्युर्वा (+ एष यद् [तैसं.) अग्निः । तैसं ५,१,१०,३; ४, ४, ४; काठ १९,११; क ३१,१ ।
६११. मृत्योरेतद्रूपं यदग्निर्यत् पाशः । मै ३, २, १ ।।
६१२. य ( अग्निः ) एको रुद्र उच्यते । तैआ १, १२, १,२ ।।
६१३. य एवं विद्वानग्निमुप तिष्ठते पशुमान् भवति । तैसं १,५,९,१।
६१४. यच्छर्वो ऽग्निस्तेन, न ह वा एनं शर्वो हिनस्ति । कौ ६,३ ।
६१५, यजमानोऽग्निः । माश ६, ३,३,२१; ५, १,८; ७, ४, १,२१; ९,२,३,३३।।
६१६. यजमानो वा अग्नेर्योनिः । तैसं ३, ४,१०,५।।
६१७. यत्ते अग्ने तेजस्तेनाहं तेजस्वी भूयासं यत्ते अग्ने वर्चस्तेनाहं वर्चस्वी भूयासं यत्ते अग्ने हरस्तेनाहं हरस्वी भूयासम् । तैसं ३,५,३,२ ।
६१८. यत्ते वर्चो जातवेदः ...... तेन मा वर्चसा त्वमग्ने वर्चस्विनं कुरु । शांआ १२, १ ।
६१९. यत्राङ्गारेष्वग्निर्लेलायेव तदस्यास्यमाविर्नाम, तद् ब्रह्म, तस्मिन् होतव्यम् । काठ ६,७ ।
६२०, यत्स्नाव (अग्नेः) तत्सुगन्धितेजनम् । तां २४,१३,५।।
३२१. यथर्त्वेवाग्नेरर्चिर्वर्णविशेषाः । नीलार्चिश्च पीतकार्चिश्चेति । तैआ १,९,१,२ ।।
६२२. यथायमग्निः पृथिव्यामेवमिदमुपस्थे रेतः । ऐआ ३,१,२।।
६२३. यदग्नये प्रवते (देवाः ) निरवपन् , यान्येव पुरस्ताद्रक्षांस्यासन् , तानि तेन प्राणुदन्त । तैसं २,४,१, २-३ । ।
६२४. यदग्नये विबाधवते ( देवा निरवपन् ), यान्येवाभितो रक्षांस्यासन् तानि तेन व्यबाधन्त । तैसं २,४,१,३।।
६२५. यदग्निं (यजति) देवतास्तेन (यजति) । मै ३,७,१ ।
६२६. यदग्निर्घोरसंस्पर्शस्तदस्य वारुणं रूपम् । ऐ० ३,४ ।
६२७. यदग्नेरन्ते पश्यामस्तसुराणां चक्षुषा पश्यामः । मै ४,२,१।
६२८. यदग्नौ जुहोति तद्देवेषु जुहोति । माश ३,६,२,२५।।
६२९. यदस्थि (अग्नेरासीत् ) तत् पीतुदारु ( अभवत् ) । तां २४,१३,५ ।
६३०. यदहुत्वा वास्तोष्पतीयं प्रयायाद् रुद्र एनं भूत्वाऽग्निरनूत्थाय हन्यात् । तैसं ३,४,१०, ३ ।
६३१. यदाह श्येनोऽसीति सोमं वा एतदाहैष ह वा अग्निर्भूत्वाऽस्मिंल्लोके संश्यायति तस्माच्छयेनस्तच्छेनस्य श्येनत्वम् । गो १,५,१२ ।।
६३२. यदिदं घृते हुते प्रतीवार्चिरुज्ज्वलत्येषा वा अस्य (अग्नेः) सा तनूर्ययाऽपः प्राविशद्यदिदमप्सु परीव ददृशे यद्धस्तावनिज्य स्नात्वा श्रदिव धत्ते, य एवाप्स्वग्निः स एवैनं तत्पावयति स स्वदयति । काठ ८,९। ।
६३३. यदिन्द्राय राथन्तराय निर्वपति, यदेवाग्नेस्तेजस्तदेवावरुन्धे । तैसं २,३,७,२ । ६३४. यदेतत् स्त्रियां लोहितं भवति, अग्नेस्तद्रूपम् । ऐआ २, ३,७।।
६३५. यदेनं (अग्निं) द्यौरजनयत् सुरेताः । तैसं ४,२,२,४-५ ।
६३६. यदेवास्य (अग्नेः) क्रव्याद् यद्विश्वदाव्यं तञ्शमयति य एवं विद्वान् वारवन्तीयं गायते ।। मै १,६,७ ।।
६३७. यद् ( अग्ने रेतः) द्वितीयं पराऽपतत् तदसावभवत् (द्यौः)। तैसं ५,५,४,१ ।। ६३८, यद् द्वितीयेऽहन् प्रवृज्यते । अग्निभूत्वा देवानेति । तै ५,१२,१ ।
६३९. यद्रेता (अग्नेः) आसीत् सोऽश्वत्थ आरोहोऽभवत् , यदुल्बं सा शमी । मै १,६,१२ ।
६४०. यद्वा अग्नेर्वामं वसुस्तन्नभः । काठ २५,६; क ३९,३ ।
६४१. यद् वाजप्रसवीयं जुहोत्यग्निमेव तद्भागधेयेन समर्धयत्यथो अभिषेक एवास्य सः । तैसं ५,४,(,१।।
६४२. यद्वैवाह स्वर्णघर्मः स्वाहा स्वर्णार्कः स्वाहेत्यस्यैवैतानि अग्नेर्नामानि(घर्मः, अर्कः, शुक्रः, ज्योतिः, सूर्य इति) । माश ९,४, २,२५ ।
६४३. यन्मे अग्न ऊनं तन्वस्तन्म आपृण । क ५,५ ।
६४४. यं परिधिं पर्यधत्था अग्ने देव पणिभिरिध्यमानः । क ४७.११ ।
६४५. यया ते सृष्टस्याग्नेर्हेतिमशमयत्प्रजापतिस्तामिमामप्रदाहाय....हरामि। तै १, २, ३, ६ ।
६४६. यस्माद्गायत्रमुखः प्रथमः (त्रिरात्रः) तस्मादूर्ध्वोऽग्निर्दीदाय । तां १०,५,२ । ६४७. यां वनस्पतिष्ववसत्तां वेणा अवसत् (अग्निः)। मै ३,१,२। ।
६४८. या अस्य (अग्नेः) यज्ञियास्तन्व आसंस्ताभिरुदकामत ता एताः पवमाना, पावका, शुचिः । काठ ८,९ ।।
६४९. याऽग्नेराज्यभागस्य (आहुतिः ) सोत्तरार्धे होतव्या, ततो योत्तरा सा रक्षोदेवत्या । मै १,४,१२ ।
६५०. या ते अग्ने रुद्रिया तनूरिति व्रतयति स्वायामेव देवतायां हुतं व्रतयति । काठ २४,९।
६५१. या ते अग्ने रुद्रिया तनूरित्याह स्वयैवैनद्देवतया व्रतयति । तैसं ६,२,२,७-८ । ६५२. या ते अग्ने शुचिस्तनूर्दिवमन्वाविवेश, या सूर्ये या बृहति या जागते छन्दसि या सप्तदशे स्तोमे याप्सु तां त एतदवरुन्धे । काठ ७,१४; क ६,३ ।
६५३. या (वाक् ) पृथिव्यां साऽग्नौ, सा रथन्तरे । काठ १४,५ ।।
६५४. या वा अग्नेर्जातवेदास्तनूस्तयैष प्रजा हिनस्त्यग्निहोत्रे भागधेयमिच्छमानः । काठ ६,७ ।।
६५५. या वाक् सोऽग्निः । गो २,४,११।।
६५६. या वाजिन्नग्नेः पवमाना प्रिया तनूस्तामावह । मै १,६,२।।
६५७. या वाजिन्नग्नेः प्रिया तनूः पशुषु पवमाना (°सूर्ये शुक्रा शुचिमती) तामावह । काठ ७,१३ ।
६५८. यास्ते अग्न आर्द्रा योनयो याः कुलायिनीः । ये ते अग्न इन्दवो या उ नाभयः । यास्ते अग्ने तनुव ऊर्जो नाम । ताभिस्त्वमुभयीभिः संविदानः••••••सीद । तै ४,१८ ।।
६५९. यास्ते अग्ने सूर्ये रुच उद्यतो दिवमातन्वन्ति रश्मिभिस्ताभिः सर्वाभी रुचे । तैसं ५,७, ६, ३ ।
६६०. युनज्मि ते पृथिवीमग्निना सह । तां १,२,१ ।।
६६१. ये अग्नयः समनसः सचेतस ओषधीष्वप्सु प्रविष्टास्ते सम्राजमभिसंयन्तु । क ६, ३ ।
६६२. ये अग्नयः समनसा ओषधीषु प्रविष्टास्ते विराजमभिसंयन्तु । मै १,६,२ ।। ६६३. ये ग्राम्याः पशवो विश्वरूपाः.....अग्निस्तां अग्ने प्रमुमोक्तु देवः । तै ३,११,११ ।
६६४. ये मध्यमाः (तण्डुलाः) स्युस्तानग्नये दात्रे पुरोडाशमष्टाकपालं कुर्यात् । तैसं २,५,५,२ ।।
६६५. योऽग्निमृत्युस्सः (°ग्निर्वागेव सा [जै.J) । जै १,२४९; जैउ २,५,१,२ ।।
६६६. योनिरेषाग्नेर्यन्मुञ्जः । माश ६,६,१,२३ ।।
६६७. योनिर्वा अग्नेः ( एषोऽग्नेर्यत् .मै.J) पुष्करपर्णम् । तैसं ५,१,४,२; २, ६,५; मै ३,१,५; २,६ ।।
६६८. यो वा अग्निः स वरुणस्तदप्येतदृषिणोक्तं त्वमग्ने वरुणो जायसे यदिति । ऐ ६,२६ ।
६६९. यो वा अत्राग्निर्गायत्री स निदानेन । माश १,८,२,१५ ।
६७०. यो वै रुद्रः (वरुणः) सोऽग्निः । माश ५,२,४,१३ ।
६७१. योषा वाऽग्निः (°षा वै वेदिर्वृषाग्निः [माश १,२,५,१५J) । माश १४, ९,१,१६ । ६७२. योषा वाऽआपो वृषाग्निः (+ मिथुनमेवैतत्प्रजननं क्रियते [माश १, १,१,२०) । माश १, १, १,१८; २,१,१,४ । ।
६७३. रथीरध्वराणामित्याहैष (अग्निः ) हि देवरथः । तैसं २,५,९,२
६७४. रुद्रोऽग्निः (+स्विष्टकृत् ।तै..) । काठ ८,८; २४,६; क ४२, ६; तां १२, ४, २४; तै ३, ९, ११, ३-४ ।
६७५. रुद्रोऽग्निस्स प्रजनयिता । काठ ११,५।।
६७६. रेतो वा (रुद्रो वा एष यत् [तैसं.J) अग्निः । तैसं ५,४,३,१; १०,५; मै ३, २, १ । ।
६७७. रोहितेन त्वाऽग्निर्देवतां गमयतु । तैसं १,६,४,३; काठ ५,३।।
६७८. रोहितो हाग्नेरश्वः । माश ६,६,३,४ ।
६७९. रौद्रेणानीकेन पाहि माऽग्ने । तैसं १,३,३,१-२; क २,७।
६८०. वयो वा अग्निः । तैसं ५, ७, ६,१; मै ३,४,८।।
६८१. वाग् (+ एव [माश.J) अग्निः । माश ३,२,२,१३; ऐआ २,१, ५ ।।
६८२. वाग्वा अग्निः । माश ६,१, २, २८; जैउ ३, १, २, ५ ।।
६८३. वातः प्राणः (+तदयमग्निः [ मै १, ६,२]) । तैसं ७, ५,२५, १; मै ३, ९,७।। ६८४. वायुर्वा अग्निः सुषमिद्वायुर्हि स्वयमात्मानं समिन्धे, स्वयमिदं सर्वं यदिदं किञ्च। ऐ २,३४।।
६८५. वायुर्वा अग्नेस्तेजस्तस्माद् वायुमग्निरन्वेति ( °स्माद् यद्र्यङ् वातो वाति तदग्निरन्वेति [काठ.]) । मै ३, १, १०; काठ १९, ८ ।।
६८६. वायुर्वा अग्नेः स्वो महिमा । कौ ३, ३ ।।
६८७. वायोरग्निः । अग्नेरापः । तैआ ८,१; तैउ २, १।
६८८. वारुणं यवमयं चरु निर्वपेदग्नये वैश्वानराय । काठ १०, ४ ।
६८९. विक्ष्वग्निम् (वरुणोऽदधात् ) । तैसं १, २, ८, २; काठ २,६ ।
६९०. विदेदग्निर्नभो नामाग्ने ऽअङ्गिर आयुना नाम्नेहीति । माश ३,५, १, ३२ ।
६९१. विद्मा ते अग्ने त्रेधा त्रयाणि । तैसं ४, २,२,१ ।।
६९२. विद्युद् ( विराड् [माश.] ) अग्निः । माश ६, २, २, ३४; ३,१, ३१; ८,२, १२, ९, १, १,३१; तैआ २, १४, १ ।।
६९३. वि...बाधस्व रिपून् रक्षसो अमीवाः....अग्ने । मै २, ७, ५ ।।
६९४. विराट् सृष्टा प्रजापतेः । ऊर्ध्वारोहद्रोहिणी । योनिरग्नेः प्रतिष्ठितिः । तै १, २, २, २७ ।
६९५. विश्वकर्मायमग्निः । माश ९, २,२,२; ५,१, ४२ ।
६९६. विश्वानि देव ( अग्ने ) वयुनानि विद्वान् । तैसं १, ४,४३,१ ।
६९७. विश्वा हि रूपाण्यग्निः । मै ३, २, १ ।।
६९८. वीरहा वा एष देवानां योऽग्निमुत्सादयते ( °मुद्वासयते + न वा एतस्य ब्राह्मणा ऋतायवः पुराऽन्नमक्षन् तैसं.)। तैसं १,५,२,१; २,२,५,५; काठ ९, २० ।
६९९. वीर्य्यं वा (वैश्वदेवः [मैं.]) अग्निः । मै ३, ३, ८; तै १, ७, २, २; गो २,६,७ । ७००. वृषा (+वा । तैआ. J) अग्निः । तैसं ५,१,५,७; तैआ १, २६, ३, ४ ।।
७०१. वैश्वानर इति वा अग्नेः प्रियं धाम । तां १४,२, ३ ।
७०२. वैश्वानरो वै सर्वेऽग्नयः । माश ६, २, १,३५; ६,१, ५।
७०३. व्यृद्धा वा एषाहुतिर्यामनग्नौ जुहोति । काठ १२, १ ।
७०४. शिर एव (एतद् यज्ञस्य यत् [माश ९,२,३,३१]) अग्निः । माश १०,१,२,५।
७०५. शिवः शिव इति शमयत्येवैनम् ( अग्निम् ) एतदहिंसायै तथो हैष इमांल्लोकाञ्छान्तो न हिनस्ति । माश ६,७,३,१५ ।
७०६. शिशिरं वा अग्नेर्जन्म, :..सर्वासु दिक्ष्वग्निश्शिशिरे । काठ ८,१ ।।
७०७. शुग्वा अग्निरापः शान्तिः । मै ३, ४, १० ।
७०८. शुचिजिह्वो अग्निः । काठ १६, ३ ।
७०९. संयच्च प्रचेताश्चाग्नेः सोमस्य सूर्यस्य । तैसं ४,४, ११, २; काठ २२,५।।
७१०. संवत्सर एवाग्निः ( एषोऽग्निः ।माश ६, ७, १, १८])। माश १०, ४, ५, २ ।। ७११. संवत्सरः खलु वा अग्नेर्योनिः । तैसं २, २,५, ६ ।।
७१२. संवत्सरोऽग्निः (+वैश्वानरः [तैसं., मै., ऐ.J)। तैसं ५, १, ८,५; २,६,१; ४,७,६; मै १, ७, ३; ऐ ३, ४१; तां १०, १२,७; मा ६, ३, १, २५; ३,२,१०; ६,१,१४ ।।
७१३. संवत्सरो वा अग्निर्वैश्वानरः (°ग्निर्नाचिकेतः [तै ३,११,१०,२; ४]) । तैसं २,२,५,१; मै २,३,५; ५, ६; ३, १,१०; ३, ३; १०; १०, ७; ४, ३,७; काठ १०, ३; ४; ११, ८; क ८,४; तै १,७,२,५; माश ६,६,१,२०; ८,२,२,८ ।
७१४, संवत्सरो वा एष यदग्निः (रोऽग्नेर्योनिः [काठ.J)। तैसं ५, ६,९, २; काठ १९, ९ ।।
७१५. संवत्सरो वै प्रजननम् (+अग्निः प्रजनयिता [काठ., क.]) काठ ७, १५; क ६, ५; गो १,२, १५ ।
७१६. स ( अग्निः ) एताः तिस्रः तनूरेषु लोकेषु विन्यधत्त । माश २, २,१,१४ ।। ७१७, स एषोऽग्निरेव यत् कृमुकः । माश ६,६,२, ११ ।।
७१८, स एषो (अग्निः) ऽत्र वसुः । माश ९,३,२, १।।
७१९. स (अग्निः) गायत्रिया त्रिष्टुभा जगत्यो देवेभ्यो हव्यं वहतु प्रजानन् । तैसं २, २, ४, ८ ।
७२०. सत्पतिश्चेकितान इत्ययमग्निः सतां पतिश्चेतयमान इत्येतत् । माश ८, ६,३,२० ।
७२१. सत्यं पूर्वैर्ऋषिभिः संविदानो अग्निः । मै २, ७,१६ ।।
७२२. स नो भव शिवस्त्वं (अग्ने ) सुप्रतीको विभावसुः । काठ १६, ९ ।
७२३. सं नो देवो वसुभिरग्निः । तैसं २, १,११, २-३ ।
७२४. सप्तचितिकोऽग्निः । माश ६, ६, १, १४; ९, १,१,२६ ।।
७२५. सप्त ते अग्ने समिधः सप्त जिह्वाः (+सप्त ऋषयः सप्त धाम प्रियाणि । सप्त ऋत्विजः सप्तधा त्वा यजन्ति सप्त होत्रा ऋतुथानु विद्वान्त्सप्त योनीरापृणस्व घृतेन मै.J)( काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा। स्कुलिङ्गिनी विश्वरुची च देवी लेलायमाना इति सप्त जिह्वाः (तु. मुण्डक १,३,४) । । तैसं १,५,३, २-३; मै १,६,२; ३,३,९; काठ ७, १४; क ६,८; तै ३, ११, ९, ९।।
७२६. सप्त ते अग्ने समिधः सप्त जिह्वा इत्येतावतीर्वा अग्नेस्तन्वः षोढा सप्त सप्त । मै १,६,७।
७२७. स ( अग्निः ) प्राचीं दिशं प्राजानात् । कौ ७, ६ ।।
७२८. स ( प्रजापतिः ) भूरित्येवर्ग्वेदस्य रसमादत्त । सेयं पृथिव्यभवत् । तस्य यो रसः प्राणेदत् सोऽग्निरभवद्रसस्य रसः । जैउ १, १,१, ३ ।।
७२९. समग्निर्वसुभिर्नो अव्यात् । मै ४, १२, २; काठ १०,३७ ।
७३०. समाने वै योना आस्तां सूर्यश्चाग्निश्च । काठ ६, ३ ।।
७३१. समिधमातिष्ठ गायत्री त्वा छन्दसामवतु, त्रिवृत्स्तोमो, रथन्तरं सामाग्निर्देवता, ब्रह्म द्रविणम् । मै २, ६, १० ।
७३२. सम्राट् च स्वराट् चाग्ने ये ते तन्वौ ताभ्यां मा ऊर्जं यच्छ, विराट् च प्रभूश्चाग्ने ये ते तन्वौ....., विभूश्च परिभूश्चाग्ने ये ते तन्वौ••••। मै १, ६, २।। ७३३. स ( अग्निः ) यत्र यत्रावसत् तत् कृष्णमभवत् । तैसं ५, १, १, ४ ।
७३४. स यत्र ह वा एष (अग्निः ) प्रथमं संप्रधूप्य प्रज्वलति तद्ध वरुणो भवत्यथ यत्र संप्रज्वलितो भवत्यवरेणेव वर्षिमाणं तद्ध रुद्रो भवत्यथ यत्र वर्षिष्ठं ज्वलति तद्धेन्द्रो भवत्यथ अत्र नितरामर्चयो भवन्ति तद्ध मित्रो भवत्यथ यत्राङ्गारा मल्मलायन्तीव तद्ध ब्रह्म भवति । काश ३, १, १, १ ।।
७३५. स यथोच्छिष्टमग्नौ प्रास्येदेवं ह तत् । काश ५, ५,१,११ ।
७३६. स यदस्य सर्वस्याग्रमसृज्यत तस्मादग्निरग्रिर्ह वै तमग्निरित्याचक्षते परोऽक्षम् । माश ६, १,१,११।। -
७३७. स (अग्निः ) यदिहासीत्तस्यैतद् भस्म यत् सिकताः । मै १,६,३ ।
७३८. स यद्वैश्वदेवेन यजते । अग्निरेव तर्हि भवत्यग्नेरेव सायुज्यं सलोकतां जयति । माश २,६,४,८।।
७३९. स यो ह स मृत्युरग्निरेव सः । जै १,१२ ।।
७४०. स यो हैवमेतमग्निमन्नादं वेदान्नादो हैव भवति । माश २,२,४,१ ।
७४१. सर्वं वाऽइदमग्नेरन्नम् । माश १०,१,४,१३ ।
७४२. सर्वतोमुखोऽयमग्निः । यतो ह्येव कुतश्चाग्नावभ्यादधति तत एव प्रदहति तेनैष सर्वतोमुखस्तेनान्नादः । माश २,६,३,१५, ।
७४३. सर्वदेवत्योऽग्निः । माश ६,१,२,२८ ।
७४४. सर्वानृतून् पशवोऽग्निमभिसर्पन्ति । मै १,८,२ ।।
७४५. सर्वास्वोषधीष्वग्निः । मै ३,१,५।
७४६. सर्वेषां वा एष (अग्निः) भूतानामतिथिः । माश ६,७,३,११ ।
७४७. सर्वेषामु हैष देवानामात्मा यदग्निः । माश ७,४,१,२५; ९,५,१,७।
७४८. स (प्रजापतिः) वा अग्निमेवाग्रे मूर्धतोऽसृजत । मै १,८,१ ।
७४९. स ह सोऽभिजिदेव स्तोमः । अग्निरेव सः । स हीदं सर्वमभ्यजयत् । जै १, ३१२ ।
७५०. स (अग्निः) हि देवानां दूत आसीत् । माश १,४,१, ३४ ।
७५१. सा (पृथिवी)ऽग्निं गर्भमधत्थाः । मै २,१३,१५ ।
७५२. सा या सा वागग्निस्सः (वागासीत्सोऽग्निरभवत् [जैउ २,१,२,१]) । जैउ १, ९, १, ३ ।।
७५३. सिकता नि वपत्येतद्वा अग्नेर्वैश्वानरस्य रूपम् । तैसं ५,२,३,२।
७५४. सूपसदनोऽग्निः (अस्तु)। तैसं ७,५,२०,१ ।।
७५५. सूर्य्योऽग्नेर्योनिरायतनम् । तै ३,९,२१,२; ३ ।।
७५६. सैषा योनिरग्नेर्यद्वेणुः (ग्नेर्यन्मुञ्जः [माश ६,३,१,२६J) । माश ६,३,१,३२ । ७५७. सोऽग्नये तेजस्विनेऽजं कृष्णग्रीवमालभत तेन तेजस्व्यभवत् । मै २,५,११ । ७५८. सोऽग्निम् (प्रजापतिः) अब्रवीत्वं वै मे ज्येष्ठः पुत्राणामसि । त्वम्प्रथमो वृणीष्वेति । सोऽब्रवीन्मन्द्रं साम्रो वृणेऽन्नाद्यमिति । जैउ १, १६,२,५-६ ।।
७५९. सोऽग्निमेवाग्रेऽसृजत (प्रजापतिः)। काठ ७,५।
७६०. सोऽग्निरेव भूत्वा पृतना असहत (प्रजापतिः)। जै १,३१४ ।
७६१. सोऽग्निर्गायत्र्या स्वाराण्यसृजत । जै १,२९९।
७६२. सोऽपामन्नम् (अग्निः) । माश १४,६,२,१० ।
७६३. सोऽब्रवीद् (अग्निः) वरं वृणै यदेव गृहीतस्याहुतस्य बहिः परिधिः स्कन्दात् तन्मे भ्रातृणां (भूपति-भुवनपति-भूतानांपति-संज्ञानां) भागधेयमसदिति । तैसं २,६,६,२।।
७६४. सोमो रेतोधा (+अग्निः प्रजनयिता (काठ ८.१०)) । मै १.६.९ , ३.२.५, क ४६,२।।
७६५. स्तनयित्नुरेव (स्त्रियो वा ) अग्निर्वैश्वानरः । जै १,४५।।
७६६. स्त्रिक् च स्नीहितिश्च स्निहितिश्च । उष्णा च शीता च । उग्रा च भीमा च । सदाम्नी सेदिरनिरा। एतास्ते अग्ने घोरास्तनुवः । तैआ ४,२३ ।।
७६७. स्वाहाग्नये कव्यवाहनाय । मं २,३,२ ।।
७६८. हव्यवाहनो (+ वै [माश.J) देवानाम् (अग्निः) । तैसं २,५.८,६; माश २,६,१,३० ।
७६९. हिरण्यं वा अग्नेर्नाचिकेतस्य शरीरम् य एवं वेद सशरीर एव स्वर्गं लोकमेति । तै ३,११,७,३।
७७०. हिरण्यं वा अग्नेस्तेजः । मै १,६,४
७७१. हेतयो नाम स्थ तेषां वः पुरो गृहा अग्निर्व इषवः । तैसं ५,५,१०,३ ।
अग्ना-पूषन्-> आग्नापौष्ण
स आग्नापौष्णमेकादशकपालं पुरोडाशं निर्वपति । माश ५, २, ५, ५।
अग्ना-मरुत्->अग्निमारुत ( उक्थ)
१. अधिपत्न्यस्यूर्ध्वा दिग् , विश्वे ते देवा अधिपतयो बृहस्पतिर्हेतीनां प्रतिधर्ता
त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ त्वा स्तोमौ पृथिव्यां श्रयतां वैश्वदेवाग्निमारुते उक्थे अव्यथाथयै स्तभ्नुतां शाकररैवते सामनी । मै २, ८,९।।
२. शुकरूपा वाजिनाः कल्माषा आग्निमारुताः । मै ३, १३, ८ ।
अग्ना-विष्णु
१. अग्नाविष्णू (आमयाविनः ) आत्मा । तैसं २, ३, ११, १ ।।
२. अग्नाविष्णू इति वसोर्धारायाः (रूपम् )। तै ३, ११, ९,९।
३. अग्नाविष्णू वै देवानामन्तभाजौ । कौ १६, ८।।
४. अग्नाविष्णू ......सप्त रत्ना दधाना (आगच्छतम् )। काठ ४, १६ । आग्नावैष्णव
१. आग्नावैष्णव एकादशकपालः (+ अनड्वान् वामनो दक्षिणा [काठ.J) । मै २, ६, ४; ३, १,१०; ४, ३,१; काठ १५, १ ।
२. आग्नावैष्णवं घृते चरु निर्वपेच्चक्षुष्कामः । तैसं २, २, ९,३; मै २, १, ७। ।
३. आग्नावैष्णवं द्वादशकपालं निर्वपेत्तृतीयसवनस्याऽऽकाले । तैसं २, ३, ९, ६ । । ४. आग्नावैष्णवमष्टाकपालं निर्वपेत् प्रातः, ....एकादशकपालं मध्यन्दिने, ••• द्वादशकपालमपराह्णे । काठ १०, १। ।
५ आग्नावैष्णवमष्टाकपालं निर्वपेत् प्रातः सवनस्याऽऽकाले । तैसं २,३,४,५ ।
अग्नि
टिप्पणी : वेद में अग्नि की स्तुति में बहुत से सूक्त हैं। अग्नि का तत्त्व समझने के लिए ब्राह्मण ग्रन्थों में कुछ आख्यान रचे गए हैं। अग्नि पृथिवी पर था। देवताओं ने अग्नि से कहा – तुम स्वर्ग में चलो, हम तुम्हें अपना दूत बनाएंगे। तुम्हें तरह-तरह की आहुतियां मिलेंगी। यम स्वर्ग में था। यम से पितरों ने कहा – तुम पृथिवी पर चलो, हम तुम्हें राजा बनाएंगे। इस आख्यान का निहितार्थ यह है कि इस समय जो अग्नि कामाग्नि, जाठराग्नि आदि के रूप में उपस्थित है, जो पृथिवी पर रहने वाली है, इसका असली स्थान ॐ लोक है। साधना का लक्ष्य है इस अग्नि को पृथिवी से उठा कर ब्रह्म लोक में पहुंचा देना। यह तब हो सकता है जब पितर शक्तियों के रूप में उपस्थित हमारे आवेगों जैसे भूख, प्यास, निद्रा आदि, जो हमारा पालन करते हैं, के ऊपर यम का आधिपत्य हो जाए, यह आवेग अनियन्त्रित न रह कर हमारे नियन्त्रण में आ जाएं। - फतहसिंह
हम सभी ने अपनी आरम्भिक शिक्षा की पाठ्य पुस्तकों में यह पढा है कि प्राचीन काल में यह मान्यता थी कि पांच महाभूतों के द्वारा इस ब्रह्माण्ड की रचना हुई है और वह पांच महाभूत पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और आकाश हैं। इन पांच महाभूतों का स्रोत क्या है, यह कहना तो कठिन है, लेकिन वैदिक और पौराणिक साहित्य के दृष्टिकोण से इस कथन में सत्य का अंश बहुत है। ज्योतिष शास्त्र में मंगल ग्रह को पृथिवी का पुत्र माना जाता है। वैदिक साहित्य के अनुसार पृथिवी का सूक्ष्म रूप अग्नि है(अग्निः पृथिव्याः उदैत् – जैमिनीय ब्राह्मण १,३५७, अग्निमेवास्यै पृथिव्यै वत्सं प्रजापतिः प्रायच्छत् – जै.ब्रा. ३.१०७)। यह अग्नि ज्योतिष शास्त्र का मंगल ग्रह है (फिर अग्नि के सूक्ष्म रूप में वायु, वायु के सूक्ष्म रूप में आकाश का स्थान है)। ज्योतिष में मंगल कल्याणकारी भी है और विनाशकारी, रौद्र भी। पांच महाभूतों का एक दूसरा पक्ष भी है। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी, इन पांच महाभूतों की सूक्ष्म तन्मात्राओं को शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध नाम दिया गया है। डा. फतहसिंह कहा करते थे कि जैन समाज में एकसंज्ञी जीव जैसे चींटी, द्विसंज्ञी जीव इत्यादि कथन बहुत प्रचलित है। इसका तात्पर्य यह है कि जब समाधि से व्युत्थान होता है तो सर्वप्रथम एकसंज्ञी जीव की स्थिति होती है – शब्द मात्र। फिर जब व्युत्थान प्रबलतर होता है तो दो संज्ञाएं प्रकट होती हैं – शब्द व स्पर्श। फिर वह क्रमशः त्रिसंज्ञी आदि में बदलता जाता है और अन्त में पांचों संज्ञाएं – शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध प्राप्त हो जाती हैं। न्यूनाधिक रूप में यही स्थिति तो हम सबके साथ निद्रा से व्युत्थान पर भी होती है। और मूर्ति पूजा में इष्टदेव के जागने के पश्चात् कुछ कृत्य-विशेष सम्पन्न किए जाते हैं जिनको समझकर हम वास्तविक स्थिति का अनुमान लगा सकते हैं। यहां प्रश्न यह उठता है कि यदि पृथिवी की तन्मात्रा का नाम गन्ध है और पृथिवी का सूक्ष्म रूप अग्नि भी है, तो क्या गन्ध और अग्नि एक ही वस्तु हैं? इसका उत्तर अन्वेषणीय है। पुराणों के अनुसार पृथिवी तत्त्व में पांच तन्मात्राओं या गुणों का संघात है – शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध, जबकि अग्नि तत्त्व में केवल तीन तन्मात्राओं का संघात है – शब्द, स्पर्श व रूप।
वराह पुराण १८, कूर्म पुराण १.४ आदि में उपरोक्त तथ्यों को दूसरे रूप में प्रकट किया गया है। कहा गया है कि क्रीडा करती हुई सर्वज्ञ आत्मा को आत्मा द्वारा आत्मा का भोग करने की इच्छा हुई और तब महाभूत में क्षोभ उत्पन्न होने से विकार उत्पन्न करने में रुचि हुई। उस विकार को करते हुए महा अग्नि या महदहंकार या महत् मन या भूतादि उत्पन्न हुआ, उस अहंकार या भूतादि को विकृत करने पर शब्द उत्पन्न हुआ। शब्द से आकाश उत्पन्न हुआ। आकाश की विकृति करने पर स्पर्श तन्मात्र की उत्पत्ति हुई। उससे वायु उत्पन्न हुई। वायु को विकृत करने पर रूप या ज्योति उत्पन्न हुई। ज्योति को विकृत करने पर रस तन्मात्रा का जन्म हुआ जिससे आपः का जन्म हुआ। आपः को विकृत करने पर गन्ध तन्मात्रा का जन्म हुआ जिससे पृथिवी का जन्म हुआ। वायु में शब्द और स्पर्श दो गुण हैं। अग्नि में शब्द, स्पर्श और रूप तीन गुण हैं। आपः में शब्द, स्पर्श, रूप व रस चार गुण हैं। भूमि में शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध पांच गुण हैं। पुराणों के कथन से इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि यह कथन समाधि से व्युत्थान अथवा निद्रा से जागरण के समकक्ष ही है। आकाश के एक गुण, वायु के दो गुण, अग्नि के तीन गुण आदि का जो पुराणों का कथन है, इसका वैदिक प्रमाण अन्वेषणीय है।
वैदिक साहित्य में अग्नि को इस प्रकार समझा जा सकता है कि अग्नि का एक नाम जातवेदस् है। जातवेदस् से भी अग्नि के जिस रूप की प्रतीति होती है, वह यह है कि यह वेद, ज्ञान, चेतना के सर्वप्रथम जन्म लेने की, समाधि से व्युत्थान की, निद्रा से जागने की स्थिति है। इस सर्वप्रथम उत्पन्न हुई चेतना के परिष्कार की आवश्यकता पडती है और लगता है कि यहीं से सारा वैदिक कर्मकाण्ड आरम्भ हो जाता है। लेकिन यह ध्यान देने योग्य है कि एक ऐसी चेतना भी है जिसमें अन्य सारी चेतनाएं लीन हो जाती हैं। इसे समाधि की ओर प्रस्थान कहा जा सकता है। इसे रात्रि, निद्रा आदि भी कहा जा सकता है। अग्निहोत्र के संदर्भ में कहा गया है कि प्रातःकाल होने पर अग्नि का लय सूर्य में हो जाता है। इसी कारण दिन के सूर्य में दाहक शक्ति है। सायंकाल होने पर सूर्य का लय अग्नि में हो जाता है। इसी कारण रात्रि में अग्नि दूर से भी दिखाई देती है। इसका अर्थ यह हुआ कि अग्नि को केवल जातवेदा अग्नि तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता(अथर्ववेद १९६४.१)। अग्नि का रात्रि में कौन सा रूप होता है, दिन में कौन सा रूप होता है, इसका सूक्ष्म रूप से अन्वेषण करने की आवश्यकता है।
अग्नि का व्यावहारिक रूप : पौराणिक आख्यानों से संकेत मिलता है कि हमें अनुभव होने वाली कोई भी वेदना, भूख, प्यास, खुजली, दर्द, शकुन, अपशकुन आदि सब अग्नि के निम्नतर रूप हो सकते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि यह अग्नि बृहद् रूप धारण करे, देवों को हवि ले जाने वाली अग्नि बने। वैदिक दृष्टिकोण से, अनुभव की जाने वाली वेदना को हम वाक् कह सकते हैं। किसी भी रूप में प्रकट होने वाली वाक् को सुपर्ण का रूप देना है, उसे उडने वाली बनाना है। यदि वाक् के साथ प्राण और मन का संयोग हो जाए तो वह सुपर्ण रूप धारण कर सकती है। (वाग्वै माता, प्राणः पुत्रः - - - -एकः सुपर्णः समुद्रमाविवेश - - -तं (प्राणं) माता (वाक्) रेळिह, स(प्राणः) उ रेळिह मातरम् (वाचम्) – ऐ.आ. ३.१.६)। सुपर्ण का ही दूसरा नाम संवत्सर है। वैदिक साहित्य में संवत्सर को अग्नि का परिष्कृत रूप कहा गया है(संदर्भों के लिए ब्राह्मणोद्धार कोश में अग्नि संदर्भ की संख्याएं ७१०-७१४ द्रष्टव्य हैं, उदाहरण के लिए, शतपथ ब्राह्मण ६.७.१.१८, १०.४.५.२ इत्यादि) और वैदिक संवत्सर को भौतिक जगत के संवत्सर के आधार पर समझा जा सकता है। भौतिक संवत्सर का निर्माण पृथिवी, सूर्य व चन्द्रमा के एक-दूसरे के परितः भ्रमण करने से होता है। इसी प्रकार वैदिक संवत्सर का निर्माण क्रमशः वाक्, प्राण और मन के एक दूसरे के परितः भ्रमण करने से होता है। यदि यह तीन घटक एक दूसरे से स्वतन्त्र हो जाएं तो किसी भी संवत्सर का निर्माण नहीं हो पाएगा। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि संवत्सर रूपी अग्नि का परिष्कार करना है तो पहले तो वाक्, प्राण और मन का परिष्कार करना पडेगा और फिर इन तीनों का योग किस प्रकार हो, इसका उपाय करना पडेगा।
अग्नि के विभिन्न रूप : पुरूरवा द्वारा गन्धर्वों से जो अग्नि प्राप्त की गई, वह किस रूप में थी, इसका उल्लेख नहीं है। आपस्तम्ब श्रौत सूत्र ५.२.४ के अनुसार जो अग्नि देवों से छिपकर अश्वत्थ में छिपी, वह अश्व रूप थी (अग्नि का एक रूप अश्व से भी निम्नतर है जिसे आखु/मूषक कहा गया है)। ऐसा प्रतीत होता है कि अश्व रूप अग्नि का कार्य पाण्डित्य में प्रेम का प्रादुर्भाव करना है। फिर जब पुरूरवा ने अरणियों द्वारा मन्थन किया, तो अग्नि तीन रूपों में प्रकट हुई – आहवनीय, दक्षिण और गार्हपत्य। यह कहा जा सकता है कि अश्व अग्नि दिशाओं के अनुदिश अपना विस्तार करने वाली है, जबकि पुरूरवा द्वारा अरणि मन्थन से उत्पन्न अग्नि का विस्तार ऊर्ध्व दिशा में होता है।
जैसा कि नीचे संदर्भ में दिया गया है, आपस्तम्ब श्रौत सूत्र में अग्न्याधेय(यज्ञ हेतु अग्नि की स्थापना) के संदर्भ में तीन प्रकार की अग्नियों की स्थापना हेतु मन्त्रों का विनियोग दिया गया है – ब्राह्मण की अग्नि, राजन्य की अग्नि और वैश्य की अग्नि। इसका तात्पर्य यह हुआ कि किसी भी संवेदना को तीन रूपों में विभाजित किया जा सकता है – ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य। चौथी शूद्र प्रकार की संवेदना के लिए किसी मन्त्र का विधान नहीं है।
होमकाले तु संप्राप्ते न दद्यादासनं क्वचित्। दत्ते तृप्तो भवेद्वह्निः शापं दद्याच्च दारुणम्॥४५॥ आघारौ नासिके प्रोक्तौ आज्यभागौ च चक्षुषी। प्राजापत्यं मुखं प्रोक्तं कटिर्व्याहृतिभिः स्मृता॥४६॥ शीर्षहस्तौ च पादौ च पंचवारुणमीरितम्। तथा स्विष्टकृतं विप्र श्रोत्रे पूर्णाहुतिस्तथा॥४७॥ द्विमुखं चैकहृदयं चतुःश्रोत्रं द्विनासिकम्। द्विशीर्षकं च षण्नेत्रं पिंगलं सप्तजिह्वकम्॥४८॥ सव्यभागे त्रिहस्तं च चतुर्हस्तञ्च दक्षिणे। स्रुक्स्रुवौ चाक्षमाला च या शक्तिर्दक्षिणे करे॥४९॥ त्रिमेखलं त्रिपादं च घृतपात्रं द्विचामरम्। मेषारूढं चतुःशृंगं बालादित्यसमप्रभम्॥५०॥ उपवीतसमायुक्तं जटाकुंडलमंडिमम्। ज्ञात्वैवमग्निदेहं तु होमकर्मसमाचरेत्॥५१॥ - नारद पुराण १.५१.४५
नारद पुराण के उपरोक्त कथन में अग्नि को त्रिपाद कहा गया है जबकि गोपथ ब्राह्मण १.२.९ में षट्पाद (अग्निः षट्पादस्तस्य पृथिव्यन्तरिक्षं द्यौराप ओषधिवनस्पतय इमानि भूतानि पादाः तेषां सर्वेषां वेदा गतिरात्मा प्रतिष्ठिताः) कहा गया है। अग्नि के स्वरूप के विषय में ऋग्वेद ४.५८.३ की ऋचा को प्रमाण माना जाता है : च॒त्वारि॒ शृङ्गा॒ त्रयो॑ अस्य॒ पादा॒ द्वे शी॒र्षे स॒प्त हस्ता॑सो अस्य। त्रिधा॑ ब॒द्धो वृ॑ष॒भो रो॑रवीति म॒हो दे॒वो मर्त्याँ॒ आ वि॑वेश॥ जिस सूक्त की यह ऋचा है, उसके आरम्भिक शब्द यह हैं – समुद्रादूर्मिर्मधुमाँ उदारत् इत्यादि। और इस सूक्त का देवता अग्नि या सूर्य या आपः या गावः या घृतस्तुति कहे गए हैं। सायण भाष्य के अनुसार ऋचा का विनियोग द्वादश अह नामक सोमयाग के सप्तम दिन में किया जाता है(आश्वलायन श्रौत सूत्र ८.९)। सातवें दिन से लेकर नवें दिन तक दिवसों की संज्ञा छन्दोम होती है। यह छठें दिन वृत्र मरण के पश्चात् आनन्द समुद्र की स्थिति है। इन तीन दिवसों में नाम-रूप की प्रधानता रहती है। इसका अर्थ यह हुआ कि पहले ६ दिन अन्तर्जगत की साधना के हैं, बाद के तीन दिन बाह्यजगत की साधना के। सूक्त/ऋचा के विभिन्न देवताओं का उल्लेख यह स्पष्ट करता है कि इस स्थिति में अग्नि का स्वरूप केवल अग्नि तक ही सीमित नहीं रहेगा, अपितु वह सूर्य, आपः, गावः, घृत आदि का रूप भी धारण कर सकता है, क्योंकि यह आनन्द समुद्र की स्थिति है।
यह सूक्त यद्यपि शौनकीय अथर्ववेद में उपलब्ध नहीं है, किन्तु पैप्पलाद संहिता ८.१३ में उपलब्ध है और अथर्ववेद के गोपथ ब्राह्मण १.२.१६ में इसका स्पष्टीकरण भी उपलब्ध है। इस स्पष्टीकरण के अनुसार अग्नि के चार शृङ्गों के उल्लेख से तात्पर्य पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्यौ, आपः इन चार लोकों से, या अग्नि, वायु, आदित्य व चन्द्रमा नामक चार देवों से या ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद इन चार वेदों से या होता, अध्वर्यु, उद्गाता व ब्रह्मा इन होताओं से हो सकता है। तीन पादों से तात्पर्य सोमयाग के तीन सवनों से हो सकता है, दो शीर्षों से तात्पर्य ब्रह्मौदन व प्रवर्ग्य से हो सकता है, सात हाथों से तात्पर्य सात छन्दों से हो सकता है, वृषभ के तीन बन्धनों से तात्पर्य मन्त्र, कल्प व ब्राह्मण से हो सकता है।
गोपथ ब्राह्मण १.२.१६ में अग्नि के तीन पादों के रूप में तीन सवनों का उल्लेख किया गया है। पादों से तात्पर्य होता है जो भूतों को, जड जगत को पद प्रदान करता है, गति देता है। सोमयाग के एक दिन में सोम का शोधन तीन चरणों में होता है जिन्हें सवन कहा जाता है। सोम को शुद्ध करके देवों को अर्पित किया जाता है। यद्यपि सोम को अमृत कहा गया है, लेकिन प्रकृति में अवतरित होकर वह जडीभूत हो जाता है। अतः देवों को अर्पित करने से पहले उसका शोधन करना पडता है। प्रातःसवन में जो सोम प्राप्त होता है, वह गायत्री का रूप होता है। हो सकता है कि साधना के क्षेत्र में यह प्रेम का प्रतीक हो। प्रातःसवन में जो सामगान होता है, उसे आज्यस्तोत्र कहा जाता है। आज्य अर्थात् आ-ज्योति। व्यवहार में आज्य उस घृत को कहते हैं जो दूध के ऊपर अपने आप तिर आता है, उसके लिए किसी परिश्रम की आवश्यकता नहीं पडती। जो सोम इतना शुद्ध नहीं हो सकता, उसको अगले सवनों के लिए छोड दिया जाता है। फिर माध्यन्दिन सवन में जो सोम देवों को प्रस्तुत किया जाता है, वह त्रिष्टुप् छन्द का रूप होता है। माध्यन्दिन सवन दक्षता प्राप्ति के लिए, दक्षिणा देने आदि के लिए होता है। जहां प्रेम से काम चल जाता है, वहां दक्षता सौ प्रतिशत होती है। लेकिन जहां प्रेम नहीं होता, वहां दक्षता में न्यूनता आ ही जाती है। जड प्रकृति में प्रेम के लिए कोई स्थान नहीं है, सब कार्य बिना दक्षता के ही चलता है। और आधुनिक विज्ञान के नियमों द्वारा हम जानते हैं कि किसी भी कार्य में सौ प्रतिशत दक्षता प्राप्त करना संभव नहीं है। कुछ न कुछ ऊर्जा व्यर्थ चली ही जाती है। इस बेकार ऊर्जा का, बेकार सोम का शोधन तीसरे सवन में किया जाता है। तीसरे सवन में जगती छन्द की प्रतिष्ठा होती है। इस प्रकार कोई भी सोम बिना देवों की आहुति के शेष नहीं बचना चाहिए। यह तो सोमयाग के प्रतीकों से जो समझ में आता है, उसका उल्लेख है। इस कथन को और अधिक व्यावहारिक रूप में समझने के लिए नारद पुराण १.५०.२० में संगीत के संदर्भ में तीन सवनों का उल्लेख हमारी सहायता करता है। तीन सवनों को उर, कण्ठ व शिर का रूप दिया गया है। स्वरों का उदय प्रायः उर से होता है और फिर वह स्वर उठ कर कण्ठ और शीर्ष से टकराते हैं। संगीत विज्ञान में इन्हें मन्द्र, मध्यम और तार स्वर नाम दिया गया है(विष्णुधर्मोत्तर पुराण ३.१८.१)। किसी भी राग में मुख्य प्रयोग वाद्य के मध्यम स्वरों का ही होता है, मन्द्र और तार स्वरों का प्रयोग बहुत कम होता है। इस प्रकार विभिन्न स्वरों का उदय होता कहा गया है। उर/हृदय प्रेम का स्थान होता है, जबकि शीर्ष तर्क-वितर्क का। अग्नि के तीन पादों का विष्णु के तीन पादों (उरुक्रमों) से क्या साम्य हो सकता है, यह अन्वेषणीय है।
नारद पुराण के उपरोक्त कथन में अग्नि को सप्तजिह्व कहा गया है। महानारायणोपनिषद ८.४/२.१२.२ का कथन है कि जन्तु की आत्मा से ही सात जिह्वाएं निकलती हैं(अणोरणीयान्महतो महीयानात्मा गुहायां निहितोऽस्य जन्तोः। - - - -सप्त प्राणाः प्रभवन्ति तस्मात्सप्तार्चिषः समिधः सप्त जिह्वाः)।
गोपथ ब्राह्मण के स्पष्टीकरण में दो शीर्षों ब्रह्मौदन और प्रवर्ग्य को आगे समझने की आवश्यकता है। शीर्ष का निर्माण उदान प्राण से होता है। इसीलिए इसे ब्रह्म-ओदन/उदान कहा गया है। सारी देह को पकाकर जो फल निकलता है, शीर्ष उसका प्रतीक होता है। ऐसा अनुमान है कि ब्रह्मौदन ब्रह्माण्ड की वह ऊर्जा है जिसका उपयोग दैवी नियमों के अनुसार हो रहा है, वह नियम जिनके अनुसार ऊर्जा का क्षय नहीं होता, प्रेम। हो सकता है कि ब्रह्मौदन गौ का रूप हो। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रवर्ग्य ब्रह्माण्ड की वह ऊर्जा है जिसका उपयोग प्रकृति कर रही है और वह ऊर्जा लगातार ऋणात्मकता की ओर जा रही है, उसकी अव्यवस्था में, एण्ट्रांपी में लगातार वृद्धि हो रही है। उसे उच्छिष्ट भी कहा गया है। प्रवर्ग्य शीर्ष की यह विशेषता है कि वह देह से कट कर सारे ब्रह्माण्ड में फैल जाता है। एक आख्यान आता है कि विष्णु अपने धनुष की डोरी/गुण/ज्या पर सिर रखकर सोए हुए थे और वम्रियों/दीमकों(साधना के क्षेत्र में वर्म, कवच, सारी देह पर देवों की स्थापना, वर्म=वम्रि) ने धनुष के गुण को काट डाला जिससे विष्णु का सिर कट कर अदृश्य हो गया। विष्णु ही यज्ञ है। ऐसा अनुमान है कि जब सारी देह दिव्य वर्म/कवच से बंध जाएगी तो देह की रक्षा करने वाली प्रवर्ग्य ऊर्जा की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी। जब देवों ने कुरुक्षेत्र में यज्ञ किया तो वह यज्ञ पूरा ही नहीं हो पाया क्योंकि उसका शीर्ष नहीं था। आख्यान में आगे वर्णन है कि दधीचि ऋषि ने अश्विनौ को मधु विद्या का उपदेश दिया जिसके द्वारा वे यज्ञ का शीर्ष पुनः जोड सके (इ॒च्छन्नश्व॑स्य॒ यच्छिरः॒ पर्व॑ते॒ष्वप॑श्रितम्। तद् वि॑दच्छर्य॒णाव॑ति – ऋ. १.८४.१४)। इसका अर्थ हुआ कि प्रवर्ग्य शीर्ष किसी प्रकार से मधुविद्या से सम्बन्धित है। सोमयाग सम्पन्न करने हेतु सबसे पहले प्रवर्ग्य सम्भरण कृत्य सम्पन्न किया जाता है और उसके पश्चात् ही सोमलता का उपयोग देवों को आहुति देने हेतु शोधन के लिए किया जा सकता है। प्रवर्ग्य सम्भरण का अर्थ होगा कि सभी दिशाओं से ऊर्जा की प्राप्ति जिस रूप में भी सम्भव हो, उसे प्राप्त करना। कर्मकाण्ड में प्रवर्ग्य सम्भरण इस प्रकार किया जाता है कि कच्ची मिट्टी से बने महावीर नामक पात्र में घृत भर कर उसे अग्नि पर तपाया जाता है और फिर तपते हुए घृत में गौ पयः और अज पयः का सिंचन किया जाता है जिससे बडी ऊंची ज्वालाएं उठती हैं। जब संवत्सर-पर्यन्त प्रवर्ग्य संभरण हो जाए, उसके पश्चात् ही अतिथि सोम का उपयोग देवों को आहुति देने हेतु किया जाता है। इसका अर्थ होगा कि जो भी ऊर्जा प्राप्त हो, उसका संवत्सर से एकीकरण होना चाहिए।
अग्नि देवता की जो मूर्तियां प्राप्त हो रही हैं, उनमें अग्नि द्विमुखी भी है और एकमुखी भी। इसका निहितार्थ अपेक्षित है। दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में अग्नि की जो एकमुखी मूर्तियां रखी हुई हैं, उनको अग्नि के रूप में चिह्नित करने के पीछे क्या तर्क है, यह अभी स्पष्ट नहीं है।
गोपथ ब्राह्मण में अग्नि के चार शृङ्गों के रूप में पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्यौ व आपः का उल्लेख है। फिर अथवा कहकर इन्हें अग्नि, वायु, आदित्य और चन्द्रमा कह दिया गया है। फिर अथवा कहकर इन्हें ऋग्वेद, यजु, साम और अथर्व कह दिया गया है। फिर अथवा कहकर इन्हें होता, अध्वर्यु, उद्गाता व ब्रह्मा कह दिया गया है। यह कथन संकेत करता है कि स्थूल रूप में अग्नि के चार शृङ्ग पृथिवी, अन्तरिक्ष आदि हैं। सूक्ष्म रूप में प्रवेश करने पर पृथिवी की ज्योति अग्नि शृङ्ग बन जाती है, अन्तरिक्ष की ज्योति वायु है इत्यादि। इससे भी सूक्ष्म स्थिति में प्रवेश करने पर वह ऋक्, यजु आदि बन जाते हैं। इससे भी सूक्ष्म स्थिति में प्रवेश करने पर वह होता, अध्वर्यु आदि बन जाते हैं। वैदिक साहित्य में शृङ्ग का कार्य राक्षसों को नष्ट करना कहा गया है। नाद के एक प्रकार में शृङ्ग नाद होता है जिसका विनियोग शत्रु के विरुद्ध अभिचार हेतु किया गया है(शिव पुराण)। यदि शृङ्ग को शिखा के तुल्य मान लिया जाए(पर्वत शृङ्ग को शिखर कहते ही हैं) तो कथासरित्सागर में अग्निशिख की कथाओं के आधार पर अग्नि के चार शृङ्ग परा, पश्यन्ती, मध्यमा व वैखरी वाक् हो सकते हैं। जब व्यवहार में उतरते हैं तो यह शृङ्ग गड्ढे में धंस जाते हैं, सारा कार्य बिना शृङ्गों के ही सम्पन्न होता है। इन्हें उबारने की आवश्यकता है। गोपथ ब्राह्मण में इन शृङ्गों के क्रमिक विकास की क्या स्थिति होगी, इसका कथन है। ऋक् का अर्थ है वह वाक् जो किसी कार्य को सम्पन्न करने से पहले ही भूत और भविष्य का ज्ञान करा देती हो। शृङ्ग के संदर्भ में एकमात्र सूचना नृसिंहोत्तरतापनीयोपनिषद में उपलब्ध होती है जहां प्रतीत होता है कि प्रणव के अक्षरों को शृङ्ग कहा गया है?
रक्तं जटाधरं वह्निं कुर्याद्वै धूम्रवाससम्। ज्वालामालाकुलं सौम्यं त्रिनेत्रं श्मश्रुधारिणम्॥१॥ चतुर्बाहुं चतुर्दंष्ट्रं देवेशं वातसारथिम्। चतुर्भिश्च शुकैर्युक्तं धूमचिह्नरथे स्थितम्॥२॥ वामोत्सङ्गगता स्वाहा शक्रस्येव शची भवेत्। रत्नपात्रकरा देवी वह्नेर्दक्षिणहस्तयोः॥३॥ ज्वालात्रिशूलौ कर्तव्यौ चाक्षमाला तु वामके। रक्तं हि तेजसो रूपं रक्तवर्णं ततः स्मृतम्॥४॥ वातसारथिता तस्य प्रत्यक्षं धूम्रक्षेत्रता। प्रत्यक्षा च तथा प्रोक्ता यागधूम्राभवस्त्रता॥५॥ अक्षमालां त्रिशूलं च जटाजूटत्रिनेत्रता। सर्वाभरणधारित्वं व्याख्यातं तस्य शम्भुना॥६॥ ज्वालाकारं परं धाम हुतं तेन प्रतीच्छति। गृहीत्वा सर्वदेवेभ्यो ततो नयति शत्रुहन्॥७॥ वाग्दण्डमथ धिग्दण्डं धनदण्डं तथैव च। चतुर्थं वधदण्डं च दंष्ट्रास्तस्य प्रकीर्तिताः॥८॥ श्मश्रु तस्य विनिर्दिष्टं दर्भाः परमपावनम्। ये वेदास्ते शुकास्तस्य रथयुक्ता महात्मनः॥९॥ आग्नेयमेतत्तव रूपमुक्तं पापापहं सिद्धिकरं नराणाम्। ध्येयं तवैतन्नृप होमकाले सर्वाग्निकर्मण्यपराजितेन॥१०॥ - विष्णुधर्मोत्तर पुराण ३.५६
प्रथम प्रकाशन : १९९४ ई., संशोधन : २८-१२-२०१२ई.(मार्गशीर्ष पूर्णिमा, विक्रम संवत् २०६९)
संदर्भ
*अग्ने॑ स॒मिध॒माहा॑र्षं बृहते जा॒तवे॑दसे। स मे॑ श्र॒द्धां च॑ मे॒धां च॑ जा॒तवे॑दाः॒ प्र य॑च्छतु॥ - शौ.अ. १९.६४.१
*संवत्सर एवाग्निः – मा.श. १०.४.५.२
*संवत्सर एषोऽग्निः – मा.श. ६.७.१.१८
*संवत्सरः खलु वा अग्नेर्योनिः – तै.सं. २.२.५.६
*संवत्सरोऽग्निः – तां.ब्रा. १०.१२.७, मा.श. ६.३.१.२५, ६.३.२.१०, ६.६.१.१४
*संवत्सरोऽग्निः वैश्वानरः – तै.सं. ५.१.८.५, ५.२.६.१, ५.४.७.६, मै.सं. १.७.३, ऐ.ब्रा. ३.४१
*संवत्सरो वा अग्निर्वैश्वानरः – तै.सं. २.२.५.१, मै.सं. २.३.५, २.५.६, ३.१.१०, ३.३.३, ३.१०.७, ४.३.७, काठ.सं. १०.३, १०.४, ११.८, कपि.क.सं. ८.४, तै.सं. १.७.२.५, मा.श. ६.६.१.२०, ८.२.२.८
*संवत्सरो वा अग्निर्नाचिकेतः – तै.ब्रा. ३.११.१०.२, ३.११.१०.४
*संवत्सरो वा एष यदग्निः – तै.सं. ५.६.९.२
*संवत्सरोऽग्नेर्योनिः – काठ.सं. १९.९
*यदिदं घृते हुते प्रतीवार्चिरुज्ज्वलत्येषा वा अस्य (अग्नेः) सा तनूर्ययापः प्राविशत्। - काठ.सं. ८.९
*यदिदं घृते हुते शोणमिवार्चिरुज्ज्वलत्येषा वा अस्य सा तनूर्ययामुमादित्यं प्राविशत् – काठ.सं. ८.९
*अग्निं गृह्णामि सुरथं यो मयोभूर्य उद्यन्तमारोहति सूर्यमह्ने। - आप.श्रौ.सू. ४.१.८
*इदमहमग्निज्येष्ठेभ्यो वसुभ्यो यज्ञं प्रब्रवीमि। - आप.श्रौ.सू. ४.२.२
*अग्न्याधेयम् – अथादधाति घृतवतीभिराग्नेयीभिर्गायत्रीभिर्ब्राह्मणस्य त्रिष्टुग्भी राजन्यस्य जगतीभिर्वैश्यस्य। समिधाग्निं दुवस्यतेत्येषा। उप त्वाग्ने हविष्मतीर्घृताचीर्यन्तु हर्यत। जुषस्व समिधो मम॥ तं त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्धयामसि। बृहच्छोचा यविष्ठ्येति ब्राह्मणस्य॥ समिध्यमानः प्रथमो नु धर्मः समक्तुभिरज्यते विश्ववारः। शोचिष्केशो घृतनिर्णिक् पावकः सुयज्ञो अग्निर्यजथाय देवान्। घृतप्रतीको घृतयोनिरग्निर्घृतैः समिद्धो घृतमस्यान्नम्। घृतप्रुषस्त्वा सरितो वहन्ति घृतं पिबन्सुयजा यक्षि देवान्॥ आयुर्दा अग्न इति राजन्यस्य॥ त्वामग्ने समिधानं यविष्ठ देवा दूतं चक्रिरे हव्यवाहम्। उरुज्रयसं घृतयोनिमाहुतं त्वेषं चक्षुर्दधिरे चोदयन्वति। त्वामग्ने प्रदिव आहुतं घृतेन सुम्नायवः सुषमिधा समीधिरे। स वावृधान ओषधीभिरुक्षित उरु ज्रयांसि पार्थिवा वितिष्ठसे॥ घृतप्रतीकं व ऋतस्य धूर्षदमग्निं मित्रं न समिधान ऋञ्जते। इन्धानो अक्रो विदथेषु दीद्यच्शुक्रवर्णामुदु नो यंसते धियमिति वैश्यस्य। - आप.श्रौ.सू. ५.६.२
अग्नि
१. अग्न आयुःकारायुष्मांस्त्वं तेजस्वान् देवेष्वेध्यायुष्मन्तं मां तेजस्वन्तं मनुष्येषु कुरु । मै ४,७,३
२. अग्न आयूंषि पवसे । तैसं १,६,६,२ ।।
३. अग्नय आयुष्मते पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपेद्यः कामयेत सर्वमायुरियामिति । तैसं २,२,३,२ ।
४. अग्नयेँऽहोमुचेऽष्टाकपालः (पुरोडाशः) । काठ ४५, १८।।
५. अग्नये कव्यवाहनाय मन्थः । काठ ९,६; क ८,९ ।।
६. अग्नये कामाय पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपेद्यं कामो नोपनमेत् । तैसं २,२,३,१ । ७. अग्नये कुटरूनालभते । मै ३,१४,४ ।।
८. अग्नये क्षमवतेऽष्टाकपालं निर्वपेद् यर्ह्ययं (अग्निः) देवः प्रजा अभिमन्येत । काठ १०,७ ।
९. अग्नये क्षामवते पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपेत् संग्रामे संयत्ते । तैसं २,२,२,४ ।। १०. अग्नये गायत्राय त्रिवृते रथन्तराय वासन्तायाष्टाकपालः (वासन्तिकाय पुरोडाशमष्टाकपालं
निर्वपति [मै.J) मै ३,१५,१०; काठ ४५, १० । ।
११. अग्नये गृहपतय आपतन्तानामष्टाकपालं (चरुं) निर्वपेत् । मै २,६,६ ।।
१२. अग्नये गृहपतये पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपति कृष्णानां व्रीहीणाम् । तैसं १,८,१०,१ ।
१३. अग्नये चैव सायं (जुहोमि), प्रजापतये च । काठ ६,६ ।।
१४. अग्नये जातवेदसे पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपद् भूतिकामः । तैसं २,२,३,३ ।
१५. अग्नये ज्योतिष्मतेऽष्टाकपालं (पुरोडाशं) निर्वपेत् । मै १,८,८।।
१६. अग्नये तेजस्विनेऽजं कृष्णग्रीवमालभते । काठ १३, १३ ।।
१७. अग्नये त्वा तेजस्वत एष ते योनिः । तैसं १,४,२९,१; काठ ४,११; क ३,९।।
१८. अग्नये त्वाऽऽयुष्मत एष ते योनिः । मै १, ३,३१।।
१९. अग्नये त्वा वसुमते स्वाहा । मै ४, ९,८ ।।
२०. अग्नये नमो गायत्र्यै नमस्त्रिवृते नमो रथन्तराय नमो वसन्ताय नमः प्राच्यै दिशे नमः प्राणाय नमो वसुभ्यो नमः । काठ ५१,१।।
२१. अग्नयेऽनीकवते पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपति साकं सूर्येणोद्यता । तैसं १,८,४,१ ।
२२. अग्नयेऽनीकवते रोहिताञ्जिरनड्वान् । काठ ४८,३ ।।
२३. अग्नये पथिकृते पुरोडाशमष्टाकपालं निवेपेद्यो दर्शपूर्णमासयाजी सन्नमावास्यां वा पौर्णमासीं वाऽतिपादयेत् । तैसं २,२,२,१ ।
२४. अग्नये पथिकृतेऽष्टाकपालं निर्वपेद्यस्य पौर्णमासी वामावस्या वातिपद्येत । काठ १०,५।
२५. अग्नये यविष्ठाय त्रयो नकुलाः । काठ ४९,५।
२६. अग्नये यविष्ठाय पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपेत् स्पर्धमानः क्षेत्रे वा सजातेषु वाग्निमेव यविष्ठं स्वेन भागधेयेनोपधावति तेनैवेन्द्रियं वीर्यं भ्रातृव्यस्य युवते । तैसं २,२,३,१-२ ।
२७. अग्नये यविष्ठाय पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपेदभिचर्यमाणः स (अग्निः) एवास्माद्रक्षांसि यवयति, नैनमभिचरन्त्स्तृणुते । तैसं २,२, ३,२ ।।
२८. अग्नये रक्षोघ्ने स्वाहा । तैसं १,८,७,२ ।।
२९. अग्नये रसवतेऽजक्षीरे चरुं निर्वपेद्यः कामयेत रसवान्त्स्यामिति । तैसं २,२,४,४ ।
३०. अग्नये रुक्मते पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपेद्रुक्कामः । तैसं २,२,३,३।।
३१. अग्नये वसुमते पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपेद्यः कामयेत वसुमान्त्स्यामिति । तैसं २,२, ४,५ ।
३२. अग्नये वाजसृते पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपेत् संग्रामे संयत्ते । तैसं २,२,४,५।
३३. अग्नये वैश्वानराय द्वादशकपालः (पुरोडाशः) । तैसं ७,५,२२,१; मै ३,१,१०; काठ ४५,१० ।
३४. अग्नये वैश्वानराय द्वादशकपालं (पुरोडाशं ) निर्वपेत् (+योऽनन्नमद्यात् ।काठ.])। मै १, ४,१३; काठ १०,३ ।
३५. अग्नये वैश्वानराय द्वादशकपालमामयाविनं याजयेत् । मै २,३,५।।
३६. अग्नये व्रतपतये पुरोडाशमष्टाकपालं निवपेद्य आहिताग्निः सन्नव्रत्यमिव चरेत् । तैसं २,२,२,१२ ।
३७. अग्नये साहन्त्याय पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपेत् सीक्षमाणः । तैसं २,२,३,४ । ३८. अग्नये सुरभिमते पुरोडाशमष्टाकपालं निर्वपेद्यस्य गावो वा पुरुषा वा प्रमीयेरन्, यो वा बिभीयात् । तैसं २,२,२,३-४ ।।
३९. अग्नये हिरण्यम् (+अनयन् (मै.J; तेनामृतत्वमश्याम् [तैआ.J) । मै १,९,४; काठ ९,९; क ८,१२; तैआ ३,१०,१ ।।
४०. अग्नयो वै छन्दांसि । तैसं ५,७,९,३ ।।
४१. अग्निं यजतेत्यब्रवीत् तेन दक्षिणां (दिशं प्रज्ञास्यथ) । काठ २३,८ ।।
४२. अग्निं या गर्भं दधिरे विरूपास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु । मै २,१३,१।।
४३ अग्निं वा एतस्य (आमयाविनः) शरीरं गच्छति । तैसं २,३,११,१ ।।
१४. अग्निं वै जातं रक्षांस्यधूर्वंस्तान्येनमभिसमलभन्त, तान्यश्वेनापाहत । काठ ८, ५।।
४५. अग्निं वै पशवः प्रविशन्त्यग्निः पशून् । मै १,८,२। ।
४६. अग्निं वै पशवोऽनुप्रजायन्ते । काठ ३६, २ ।।
४७. अग्निं वै पशवोऽनूपतिष्ठन्ते पशूनग्निः । काठ ६,२ ।
४८. अग्निं वै पुरुषस्य प्रमीतस्य मांसानि गच्छन्ति । काठ ११,८ ।
४९. अग्निं वै वरुणानीरभ्यकामयन्त तास्समभवद्, आपो वरुणानीर, यदग्ने रेतोऽसिच्यत तद्धरितम् (सुवर्णम् ) अभवत् । काठ ८,५।।
५०. अग्निं वै विभाजं नाशक्नुवंस्तमश्वेन व्यभजन् । काठ ८,५।।
५१. अग्निं वैश्वानरं गच्छ स्वाहेत्याह, प्रजा एव प्रजाता अस्यां (पृथिव्यां) प्रतिष्ठापयति । तैसं ६, ४,१,४।।
५२. अग्निं वै सृष्टं प्रजापतिस्तं शम्याग्रे समैन्द्ध । काठ ८,२ ।
५३. अग्निं शरीरम् (गच्छति ज्योगामयाविनः) । तैसं २,२,१०,४ ।
५४. अग्निं समुद्रवाससम् (हुवे)। काठ ४०,१४ (तु. ऋ ८,१०२,४)।
५५. अग्निं हृदयेन (प्रीणामि) । तैसं १,४,३६,१; तैआ ३,२१,१ ।।
५६. अग्निः पञ्च (+होतॄणां तै २,३,५,६]) होता । तै २,३,१,१ ।।
५७. अग्निः पृथिव्याः (उदैत् )। जै १,३५७ ।।
५८. अग्निः पृथिव्याम् (उपदधातु) । तैआ १,२०,२ ।।
५९. अग्निः प्रजननम् । गो १,२,१५।।
६०. अग्निः (प्रजानां तै.J) प्रजनयिता । काठ ६, ७, २७, ८; क ६,५; तै १,७,२,३
६१. अग्निः प्रजापतिः । काठ २२,७; १० ।
६२. अग्निः प्रथम इज्यते । मै ३,८,१ ।।
६३. अग्निः प्रथमो वसुभिर्नो अव्यात् । तैसं २,१,११,२; मै ४,१२,२; काठ १०,१२ । ६४. अग्निः प्रवापयिता (प्रस्तावः [जैउ.) । क ४,४; जैउ १,११,१,५।।
६५. अग्निः प्रस्तोता (प्रातः सवनम् [तैआ.J) । तैसं ३, ३,२,१; तैआ ५,१, ६ ।
६६. अग्निं खलु वै पशवोऽनूपतिष्ठन्ते । तैसं ५, ७, ९, २।।
६७. अग्निना तपोऽन्वाभवत् । काठ ३५, १५; ४३, ४; क ४८, १३ ।।
६८. अग्निना दक्षिणा (प्राजानन्) । तैसं ६,१,५,२ ।।
६९. अग्निनानीकेन स वृत्रमभीत्य •••‘अतिष्ठत् । काठ ३६,८।।
७०. अग्निना वा अनीकेनेन्द्रो वृत्रमहन् । मै १,१०,५ ३,९,५; काठ ३५,२०; क ४८,१८ ।।
७१. अग्निना वा अयं लोको ज्योतिष्मान् । जै १,२३२ ।
७२. अग्निना विश्वाषाट् (यज्ञं दाधार)। तैसं ४, ४, ८, १ ।
७३. अग्निना वै देवा अन्नमदन्ति । काठ ८, ४ ।
७४. अग्निना वै मुखेन देवा असुरानुक्थेभ्यो निर्जघ्नुः । ऐ ६, १४ ।।
७५. अग्निं देवतानां दीक्षमाणा अनुनिषीदन्त्यादित्यमनूत्तिष्ठन्तीति । जै २, २२ । ७६. अग्निं देवतानां प्रथमं यजेत् । क ४८, १६ ।।
७७. अग्नि देवताम् (प्रजापतिः शीर्षत एव मुखतः असृजत) । जै १, ६८ ।
७८. अग्निमतिथिं जनानाम् । तै २, ४, ३, ६ ।।
७९. अग्निमुपदिशन् वाचायमर्क इति । जै १, २५।।
८०. अग्निमुपदिशन् वाचेदं यश इति'••°चेदं सत्यमिति । जै १,२३ ।
८१. अग्निमुपदिशन् वाचेयमितिरिति । जै १, २५ ।
८२. अग्निमेवास्यै (पृथिव्यै वत्सं प्रजापतिः) प्रायच्छत् । जै ३, १०७ ।
८३. अग्निमेवेतरेण (बल-प्राण-ब्रह्मवर्चस-व्यतिरिक्तेन) सर्वेण (अवकीर्णः प्रविशति)। जै १, ३६२ ।
८४. अग्निमेवोपद्रष्टारं कृत्वान्तं प्राणस्य गच्छन्ति । मै १, १०, १९॥
८५. अग्निरजरोऽभवत् सहोभिर्यदेनं द्यौरजनयत् सुरेताः । मै २, ७, ८ ।
८६. अग्निरनीकम् (उपसदेवतारूपाया इषोः) । ऐ १, २५। ।
८७. अग्निरन्नस्यान्नपतिः (°ग्निरन्नादोऽन्न ।तै.J) । काठ ५, १; तै २, ५, ७, ३ । ८८. अग्निरन्नाद्यस्य प्रदाता । तां १७, ९, २।।
८९. अग्निरमुष्मिंल्लोक आसीद्यमोऽस्मिन् (पृथिवीलोके) ते देवा अब्रुवन्नेतेमौ विपयूहामेत्यन्नाद्येन देवा अग्निमुपामन्त्रयन्त, राज्येन पितरो यमं तस्मादग्निर्देवानामन्नादो यमः पितृणां राजा । तैसं २, ३, ६, ४-५ ।।
९०. अग्निरमृतो (अग्निरजिरो मै.J) अभवत् सहोभिर्यदेनं द्यौरजनयत् सुरेताः । मै २, ७, ८; काठ १६, ९ ।।
९१. अग्निरवमो देवतानां विष्णुः परमः । तैसं ५, ५, १, ४ ।
९२. अग्निरसि पृथिव्यां श्रितः । अन्तरिक्षस्य प्रतिष्ठा । तै ३, ११, १, ७ ।
९३. अग्निराग्नीध्रे (सोमः) । तैसं ४, ४, ९, १ ।।
९४. अग्निरायुष्मान्त्स वनस्पतिभिरायुष्मान् । तैसं २, ३,१०,३; काठ ११,७।।
९५. अग्निरायुस्तस्य मनुष्या आयुष्कृतः । मै २, ३, ४ ।
९६. अग्निरित ऊर्ध्वो भाति । काठ २९, ७ ।।
९७. अग्निरिवानाधृष्यः भूयासम् । ऐआ ५, १, १ ।।
९८. अग्निरु देवानां प्राणः । माश १०, १, ४, १२ ।।
९९. अग्निरु वै ब्रह्म (यज्ञः [माश ५,२,३,६]) । माश ८,५,१,१२ ।
१००. अग्निरु सर्वे कामाः । माश १०, २, ४, १ ।।
१०१. अग्निरु सर्वेषां पाप्मनामपहन्ता । माश ७, ३, २, १६ ।
१०२. अग्निर् ऋषिः । मै १,६,१।।
१०३. अग्निरेकाक्षरया मामुदजयदिमां पृथिवीम् । काठ १४,४ ।
१०४. अग्निरेकाक्षरया (°क्षरेण [तैसं.J) वाचमुदजयत् । तैसं १, ७, ११, १; मै १, ११,१०; काठ १४,४ ।
१०५. अग्निरेकाक्षरयोदजयन्मामिमां पृथिवीम् । मै १,११,१०।।
१०६. अग्निरेव दध्याथर्वणः । तैस ५,६,६,३ ।।
१०७. अग्निरेव देवानां दूत आस । माश ३,५,१,२१ ।
१०८. अग्निरेव पुरः । माश १०,३,५,३ ।
१०९. अग्निरेव प्रावापयत् सोमो (+वै .मै.J) रेतोऽदधान् मिथुनं वा अग्निश्च सोमश्च । मै १,१०,५; काठ ३५,२०; क ४८,१८ ।।
११०. अग्निरेव ब्रह्म (भर्गः (गो.J)। गो १,५,१५; माश १०,४,१,५।
१११. अग्निरेव रथन्तरस्य (अधिपतिः)। जै १,२९२।
११२. अग्निरेव सविता । गो १,१,३३; जैउ ४,१२,१,१ ।।
११३. अग्निरेवावमो मृत्युः । तैआ १,८,४,११ ।
११४. अग्निरेवास्मै प्रजां प्रजनयति वृद्धामिन्द्रः प्रयच्छति । तैसं २,५,५,२ ।
११५. अग्निरेवैनं गार्हपत्येनावति । तै १,७,६,६ ।।
११६. अग्निरेवैनं गृहपतीनां सुवते । तै १,७,४,१ ।।
११७. अग्निरेवैष यत् त्रिवृत् स्तोमः । जै २,९० ।
११८. अग्निरेष यत्पशवः (यद्रथन्तरम् [जै.J) । जै १,३३०; ३३२; माश ६,३,२,६ ।
११९. अग्निर्गायत्रछन्दाः । काठ ९,१३ ।
१२०. अग्निर्गार्हपत्यानाम् (°गृहपतीनाम् ।तैसं.J) (देवः) । तैसं १,८,१०,१; काठ १५,५ ।।
१२१. अग्निर्गृहपतिः । तैसं २,४,५,२।।
१२२. अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निरिति तदिमं लोकं लोकानामाप्नोति प्रातःसवनं यज्ञस्य । कौ १४, १ ।
१२३. अग्निर्दीक्षितः, पृथिवी दीक्षा । जै २,५३ ।।
१२४. अग्निर्देवता गायत्री छन्द उपांशोः पात्रमसि । तैसं ३,१,६,२ ।
१२५. अग्निर्देवतानां ज्योतिः । जै १,६६ ।।
१२६. अग्निर्देवतानाम् (मुखम् ) । मै १,६,९; तां ४,८,१०।।
१२७. अग्निर्देवानां रक्षोहा (वसुमान् [काठ १०,६]) । काठ १०,५; काठसंक १२।।
१२८. अग्निर्देवानां क्षमवाँस्तमेव भागधेयेनोपधावति, सोऽस्मै प्रीतः क्षमत एव । काठ १०,७ ।
१२९. अग्निर्देवानां जठरम् (नां दूत आसीत् तैसं.J) । तैसं २,५,११,८ । तै २,७,१२,३ ।।
१३०. अग्निर्देवानामभवत् पुरोगाः । काठ १६,२० ।।
१३१. अग्निर्देवेभ्य उदक्रामत्स मुञ्जं ( वेणुं [माश ६,३,१,३१] प्राविशत्तस्मात्स सुषिरः । माश ६,३,१,२६ ।।
१३२. अग्निर्देवेभ्यो निलायत, अश्वो रूपं कृत्वा सोऽश्वत्थे संवत्सरमतिष्ठत् । तै १,१,३,९।।
१३३. अग्निर्देवेभ्यो निलायत, आखूरूपं कृत्वा स पृथिवीं प्राविशत् । तै १,१,३,३ ।। १३४. अग्निर्देवेभ्यो निलायत, स क्रमुकं प्राविशत् । तैसं ५,१,९,५।।
१३५. अग्निर्देवेभ्यो निलायत, स दिशोऽनुप्राविशज्जुह्वन्मनसा दिशो ध्यायेद् दिग्भ्य एवैनमवरुन्धे । तैसं ५,४,७,६।।
१३६. अग्निर्देवेभ्यो निलायत, स वेणुं प्राविशत्, स एतामूतिमनु समचरद् यद् वेणोः सुषिरम् ।तैसं ५,१,१,४।।
१३७. अग्निर्द्विहोता, स भर्ता । तै ३,७,१,२ ।।
१३८. अग्निर्नेता स वृत्रहेति वार्त्रघ्नमिन्द्ररूपम् । ऐआ १,२,१।।
१३९. अग्निर्ब्रह्म (+अग्निर्यज्ञः [माश.) । काठ ८,४; माश ३.२,२,७ ।
१४०. अग्निर्भूतानामधिपतिः । तैसं ३,४,५,१ ।।
१४१. अग्निर्मुखम् (+प्रथमो देवतानां संगतानामुत्तमो विष्णुरासीत् [काठ.J) । तैसं ७,५,२५,१; काठ ४,१६ ।।
१४२. अग्निर्मे दुरिष्टात् पातु । तैसं १,६, ३,१ ।
१४३. अग्निर्मे वाचि श्रितः । तै ३,१०,८,४ ।।
१४४. अग्निर्मे होता । ष २,५ ।।
१४५. अग्निर्यजुर्भिः (सहागच्छतु) । मै १,९,२;८; काठ ९,१०; क ४८,३; तैआ ३,८,१ । १४६. अग्निर्यजुषाम् (समुद्रः) । माश ९,५,२,१२ ।
१४७. अग्निर्वसुभिः (+ उदक्रामत् [ऐ.J)। मै २,२,६; ऐ १,२४ ।
१४८. अग्निर्वा अग्रे हिरण्यमविन्दत् । मै २,२,७ ।।
१४९. अग्निर्वा अन्नपतिः (अन्नादः [ऐआ.J) । तैसं ५,२,२,१; ऐआ १,१,२ ।
१५०. अग्निर्वा अन्नानां शमयिता । कौ ६,१४ ।।
१५१. अग्निर्वा अपामायतनम्. . . .आपो वा अग्नेरायतनम् । तैआ १,२२,१-२ ।
१५२. अग्निर्वा अरुषः (अर्वा [तै १, ३, ६,४]) । तै ३,९,४,१ ।।
१५३. अग्निर्वाऽअर्कः । माश २,५,१,४; १०,६,२,५; ऐआ १,४,१।।
१५४. अग्निर्वा अश्वमेधस्य योनिरायतनम् । तै ३,९,२१,२; ३।।
१५५. अग्निर्वा अश्वं प्राविशत् कृष्णो भूत्वा सोऽत्रागच्छद्यत्रैष मृगशफ इव । काठ ८,५।
१५६. अग्निर्वाऽअहः सोमो रात्रिः । माश ३,४,४,१५ ।
१५७. अग्निर्वाऽआयुः । माश ६,७,३,७; ७,२,१,१५ ।
१५८. अग्निर्वाऽआयुष्मानायुष ईष्टे । माश १३, ८,४,८ ।
१५९. अग्निर्वा इतो वृष्टिमीट्टे मरुतोऽमुतश्च्यावयन्ति ( + तां सूर्यो रश्मिभिर्वर्षति [मै २,४,८]) एते वृष्ट्याः प्रदातारः । मै २,१,८ ।
१६०. अग्निर्वा इतो वृष्टिमुदीरयति । तैसं २,४,१०,२ ।।
१६१. अग्निर्वा उपद्रष्टा (ऋतम् । तै..) । तैसं ३,३,८,५; ७,५,४; तै २,१,११,१; गो २,४,९ ।
१६२. अग्निर्व एतासां(गवां) योनिरग्निः कुलायम् । मै ४,२,१०।।
१६३. अग्निर्वाऽएष धुर्यः । माश १,१,२,१० ।
१६४. अग्निर्वा एष वैश्वानरो यद् यज्ञः (यद् यज्ञायज्ञीयम् (जै १,१७३])। जै १, १७० ।
१६५. अग्निर्वाग् भूत्वा मुखं प्राविशत् । ऐआ २,४,२; ऐउ १,२,४ ।।
१६६. अग्निर्वाचि (हुतः) । शांआ १०,१।
१६७. अग्निर्वाव देवयजनम् (+ अग्नौ हि सर्वा देवता इज्यन्ते [काठ.J)। मै ३,८,४; काठ २५, ३; क ३८, ६ ।
१६८. अग्निर्वाव पवित्रम् ( पुरोहितः [ऐ.J) । तै ३,३,७,१०; ऐ ८,२७ ।
१६९. अग्निर्वाव यमः (+ इयं यमी [तैसं.J)। तैसं ३,३,८,३; गो २,४,८ । (
१७०. अग्निर्वाव वाजी । तैसं ५,५,१०,७ ।।
१७१. अग्निर्विजयमुपयत्सु त्रेधा तन्वो विन्यधत्त पशुषु तृतीयमप्सु तृतीयममुष्मिन्नादित्ये तृतीयम् । का ७,३ ।।
१७२. अग्निर्विभ्राष्टिवसनः । तैआ १,१२,३,७।
१७३. अग्निर्वृत्राणि जङ्घनत् । काठ २०,१४ ।।
१७४. अग्निर्वै कामो देवानामीश्वरः । कौ १९,२ ।
१७५. अग्निर्वै गायत्री (धर्मः [माश ११,६,२,२]) । माश ३,४,१,१९; ९,४,१०; ६,६,२,७।
१७६. अग्निर्वै ज्योती रक्षोहा । माश ७,४,१,३४ ।
१७७. अग्निर्वै तत् पक्षी भूत्वा स्वर्गं लोकमपतत् । काठ २१,४; क ३१,१९ ।
१७८. अग्निर्वै त्रिवृत् (दर्भस्तम्बः [काठ.]) । काठ ९,१६; जै १,२४०; तै १,५,१०,४ । १७९. अग्निर्वै दाता (+स एवास्मै यज्ञं ददाति [कौ.J)। कौ ४,२; माश ५,२,५,२ । १८०. अग्निर्वै दीक्षितः । काठ २३,६; २४,९।।
१८१. अग्निर्वै दीक्षितस्य देवता । तैसं ३,१,१,३ ।।
१८२. अग्निर्वै देवतानामनीकं सेनाया वै सेनानीरनीकं, तस्मादग्नयेऽनीकवते (पुरोडाशं
निर्वपति) । माश ५,३,१,१।।
१८३. अग्निर्वै देवतानां मुखं प्रजनयिता स प्रजापतिः । माश २,५,१,८; ३,९,१,६ । १८४. अग्निर्वै देवयोनिः । ऐ १,२२,२,३ । ।
१८५. अग्निर्वै देवानां यष्टा (रक्षोहा (मै.J)। मै २,१,११; तै ३,३,७,६ ।
१८६. अग्निर्वै देवानां वसिष्ठः ( सेनानी ।मै.J) । मै १,१०,१४; ऐ १,२८ ।
१८७. अग्निर्वै देवानां व्रतपतिः (व्रतभृत् [गो २,१,१५.) । तैसं १,६, ७, २; मै १,८,९; ३,६,९; काठ ३२,६; माश १, १,१,२; ३,२,२,२२; गो २,१, १४ ।
१८८. अग्निर्वै देवानां होता (गोपाः [ऐ १,२८]) । ऐ १,२८; ३,१४।।
१८९. अग्निर्वै देवानां नेदिष्टम् । माश १,६,२,११ ।
१९०. अग्निर्वै देवानामद्धातमाम् । माश १,६,२,९।।
१९१. अग्निर्वै देवानामन्नपतिः (°नामन्नवान् [मै.; काठ १०,६J) । मै २,१,१०; काठ १०,६ ।
१९२. अग्निर्वै देवानामन्नादः (नामभिषिक्तः तैसं.J)। तैसं ५,४,९,२; काठ १०,६; तै ३,१,४,१ ।
१९३. अग्निर्वै देवानामवमो विष्णुः परमः । काठ २२,१३; ऐ १, १ ।
१९४. अग्निर्वै देवानामवरार्ध्यो विष्णुः परार्ध्यः । कौ ७,१।
१९५. अग्निर्वै देवानां पथिकृत् (मनोता [ऐ., कौ.J)। मै १,८,९; २,१,१; ऐ २,१०; कौ १०,६।
१९६. अग्निर्वै देवानां मुखम् (ब्रह्मा [जै.)। कौ ३,६; ५,५; गो २,१,२३; जै १,९३; तां ६,१,६ ।
१९७. अग्निर्वै देवानां मृदुहृदयतमः । माश १,६,२,१०।।
१९८. अग्निर्वै देवेभ्योऽपाक्रामत् स प्रत्यङ्ङुदद्रवत् तस्मादध्वर्युः प्रत्यङ्मुखोऽग्निं मन्थति । काठसंक २०
१९९. अग्निर्वै द्रष्टा (धाता [तै.J) । काठसंक १२२; गो २,२,१९; तै ३,३,१०,२ ।
२००. अग्निर्वै नभसस्पतिः (नभसा पुरः [तैसं.J) । तैसं ३,३,८,६; गो २,४,९।।
२०१. अग्निर्वै पथः कर्ता (पथिकृत् [कौ.J)। कौ ४,३; माश ११,१,५,६ ।।
२०२. अग्निर्वै पथिकृद् देवतानां येन वै केन चाग्निरेति पन्थानमेव कुर्वन्नेति । जै १, ३०३ ।
२०३. अग्निर्वै पथोऽतिवोढा । माश १३,८,४,६ ।।
२०४. अग्निर्वै परिक्षित् । ऐ ६, ३२; गो २,६,१२ ।
२०५. अग्निर्वै पशूनां योनिः (पशूनामीष्टे [माश.J)। मै २,५,९; माश ४,३,४,११ । २०६. अग्निर्वै पाप्मनोऽपहन्ता । माश २,३,३,१३ ।
२०७. अग्निर्वै पुरस्तद्यत्तमाह पुरः इति प्राञ्चं ह्यग्निमुद्धरन्ति प्राञ्चमुपचरन्ति । माश ८, १,१,४ ।
२०८. अग्निर्वै प्रजापतिः (+ तस्याश्वश्चक्षुः ।काठ.]) । मै ३,४,६; काठ ८,५ ।
२०९. अग्निर्वै प्रथमा विश्वज्योतिः (इष्टका) । माश ७,४,२, २५ ।।
२१०. अग्निर्वै प्राङुदेतुं नाकामयत तमश्वेनोदवहन्यत् पूर्वमुदवहँस्तत् पूर्ववाहः पूर्ववाट्त्वम् । काठ ८,५।।
२११. अग्निर्वै बृहद्रथन्तरे (वैभ्रजश्छन्दः [माश.J) । जै १,३२७; माश ८,५,२,५ ।
२१२. अग्निर्वै ब्राह्मणः (ब्रह्मा [ष.]) । काठ ६,६; काठसंक ८३; ष १,१ ।।
२१३. अग्निर्वै भरतः स वै देवेभ्यो हव्यं भरति । कौ ३,२ ।।
२१४. अग्निर्वै भर्गः । माश १२,३,४,८; जैउ ४,१२,२,२ ।।
२१५. अग्निर्वै भुवोऽग्नेर्हीदं सर्वं भवति । माश ८,१,१,४।।
२१६. अग्निर्वै मध्यमस्य दाता । मै २,२,१३ ।।
२१७. अग्निर्वै मनुष्याणां चक्षुषः (आयुषः [मै २,३,५]) प्रदाता । मै २,१,७ ।
२१८. अग्निर्वै महान् (महिषः [माश.J) । माश ७, ३,१, २३; ३४; शांआ १,५; जैउ ३,१,४,७ ।।
२१९. अग्निर्वै मिथुनस्य कर्त्ता प्रजनयिता । माश ३,४,३,४।।
२२०. अग्निर्वै मृत्युः (यज्ञमुखम् [तै..) । माश १४,६,२,१०; कौ १३,३; जै १,३३२; तै १,६,१,८ ।
२२१. अग्निर्वै यज्ञः (यज्ञस्य पवित्रम् । मै.)। मै ३,६,१; तां ११,५,२; माश ३,४,३,१९ ।
२२२. अग्निर्वै यज्ञस्यान्तोऽवस्ताद् , विष्णुः परस्तात् (पुरस्तात् [मै ३, ६,१])। मै ४,३,१ ।।
२२३. अग्निर्वै यज्ञस्यावरार्ध्यो विष्णुः परार्ध्यः । माश ३,१,३,१; ५,२,३,६ ।।
२२४. अग्निर्वै यम इयं (पृथिवी) यम्याभ्यां हीदं सर्वं यतम् । माश ७,२,१, १० । २२५. अग्निर्वै योनिर्यज्ञस्य । माश १, ५,२,११; ३,१,३,२८; ११,१,२,२।।
२२६. अग्निर्वै रक्षसामपहन्ता । कौ ८,४,१०,३ ।।
२२७. अग्निर्वै रथन्तरम्। ऐ ५,३०; जै १,३३५ ।।
२२८. अग्निर्वै रात्रिरसा आदित्योऽहः । मै १,५,९ ।
२२९. अग्निर्वै रुद्रः । मै २,१,१०; काठ १०,६:२४,९; क ३५.५; माश ५,३,१,१०; ६,१,३,१०।।
२३०. अग्निर्वै रूरः ( रेतोधाः [तैसं., तै.) । तैसं ६,५,८,४; तां ७,५,१०: १२,४,२४; तै २,१,२,११; ३,७,३,७ ।।
२३१. अग्निर्वै रूरुरेतत् (रौरवं) सामापश्यत् । जै १,१२२ ।।
२३२. अग्निर्वै वनस्पतिः (वयस्कृच्छन्दः ।माश.J) । कौ १०,६; माश ८,५, २,६ ।।
२३३. अग्निर्वै वरुणं ब्रह्मचर्यमागच्छत् प्रवसन्तं तस्य जायां समभवत् । मै १,६,१२ ।
२३४. अग्निर्वै वरुणानीरभ्यकामयत, तस्य तेजः ( रेतः [काठ १९,३J) परापतत् तद्धिरण्यमभवत् । काठ ८,५; क ३०,१।।
२३५. अग्निर्वै वरेण्यम् (वसुः (मै.J)। मैं ३,४,२; जैउ ४,१२,२,१ ।।
२३६. अग्निर्वै वसुमान् (वसुवनिः [माश.J)। मै ४,१,१४; माश १,८,२,१६ ।
२३७. अग्निर्वै वाक् (विराट् [काठ.J) । काठ १८,१९; जै २,५४ ।
२३८. अग्निर्वै स देवस्तस्यैतानि नामानि शर्व इति यथा प्राच्या आचक्षते भव इति यथा वाहीकाः पशूनां पती रुद्रोऽग्निरिति तान्यस्याशान्तान्येवेतराणि नामान्यग्निरित्येव शान्ततमम् । माश १,७,३,८ ।।
२३९. अग्निर्वै समिष्टिरग्निः प्रतिष्ठितिः । मै १,१०,१५ ।।
२४०. अग्निर्वै सर्वा देवताः। मै १,४,१३, १४; ६,८; २,१,४; ३, १; ५; ३,१,१०; ७,८; ९,७; ४,४,७; ७,८; ८,५; काठ ११,८; ऐ १,१; गो २, १,१२; १६; जै १,३४२; तां ९, ४,५; १८, १,८; माश १,६,२,८; ३,१,३,१; ष ३,७ । ।
२४१. अग्निर्वै सर्वेषां देवानामात्मा । माश १४,३,२, ५।
२४२. अग्निर्वै स्वर्गस्य लोकस्याधिपतिः । ऐ ३,४२।।
२४३. अग्निर्वै ( °र्हि [माश.J) स्विष्टकृत् । कौ १०,५; माश १,५,३,२३ ।।
२४४. अग्निर्वै हिमस्य भेषजम् । तै ३,९,५,४ ।
२४५. अग्निर्वै होता (+अधिदैवं वागध्यात्मम् [माश १२,१, १,४]) । गो १,२, २४; माश १, ४, १,२४; ६,४,२,६ ।।
२४६. अग्निर्वै होता वेदिषत् । माश ६,७,३,११ ।
२४७. अग्निर्ह वाऽअपोऽभिदध्यौ मिथुन्याभिः स्यामिति ताः सम्बभूव तासु रेतः प्रासिञ्चत्तद्धिरण्यमभवत्तस्मादेतदग्निसंकाशमग्नेर्हि रेतस्तस्मादप्सु विन्दन्त्यप्सु हि (रेतः ) प्रासिञ्चत् । माश २, १,१,५।।
२४८. अग्निर्ह वा अबन्धुः । जैउ ३,२,१,७।
२४९. अग्निर्ह वाव राजन् गायत्रीमुखम् । जैउ ४, ६,३,२ ।
२५०. अग्निर्ह वै ब्रह्मणो वत्सः । जैउ २,५,१,१ ।
२५१. अग्निर्हि देवानां पशुः । ऐ १,१५।।
२५२. अग्निर्हि देवानां पात्नीवतः (ग्रहः) । कौ २८,३ ।
२५३. अग्निर्हि रक्षसामपहन्ता । माश १,२,१,६| ९; २,१३ ।।
२५४. अग्निर्हि वै धूः । माश १,१,२,९।।
२५५. अग्निर्होता (+पञ्च होतॄणाम् [तै..)। मै १,९,१; काठ ९,८; तै ३,१२,५,२; तैआ ३,३,१ ।।
२५६. अग्निर्ह्येष यत्पशवः । माश ६,२,१,१२ ।
२५७. अग्निश्च जातवेदाश्च सहोजा अजिरा प्रभुः । वैश्वानरो नर्यापाश्च पङ्क्तिराधाश्च सप्तमः । विसर्पेवाष्टमोऽग्नीनाम् । एतेऽष्टौ वसवः क्षिता इति । तैआ १,९,१,१ ।।
२५८. अग्निश्च म आपश्च मे (यज्ञेन कल्पन्ताम्) । तैसं ४,७,५,१ ।।
२५९. अग्निश्च ह वा आदित्यश्च रौहिणावेताभ्यां हि देवताभ्यां यजमानाः स्वर्गं लोकं रोहन्ति । माश १४,२,१,२।।
२६०. अग्निष्ट्वा वसुभिः पुरस्ताद् रोचयतु (+ गायत्रेण छन्दसा [तैआ.J)। मै ४,९,५; तैआ ४,६,१ ।
२६१. अग्निः षट्पादस्तस्य पृथिव्यन्तरिक्ष द्यौराप ओषधिवनस्पतय इमानि भूतानि पादाः । गो १,२,९ ।
२६२. अग्निस्सर्वा अन्वोषधीः (°र्वा दिश आभाति [मै.J) । मै ३,१,८; काठ १९,५ । २६३. अग्निस्सर्वा दिशो (+अनु [तैसं., तैआ.J) विभाति । तैसं ५,१,७,४; ८,६; काठ १९,७: २२,१; क ३०,५; तैआ ५,३,७ ।
२६४. अग्निः सर्वा देवताः । तैसं २,२,९,१; ३; ३,११,२; ५, ५,१,४; काठ १२,१; काठसंक ११८; १२२; ऐ २,३; तै १, ४, ४, १०; माश १, ६, ३, २०; तैआ ५,४,५।।
२६५. अग्निस्सूर्यस्य (योनिः) । काठ ७,४ ।।
२६६. अग्निः सृष्टो नोददीप्यत तं प्रजापतिरेतेन साम्नोपाधमत् स उददीप्यत दीप्तिश्च वा एतत्साम ब्रह्मवर्चसञ्च दीप्तिञ्चैवैतेन ब्रह्मवर्चसञ्चावरुन्धे । तां १३, ३,२२ ।
२६७. अग्नी रात्र्यसा आदित्योऽहः । काठ ७,६ ।।
२६८. अग्नी रुद्रः । मै २,३,७; ३,१,३; ७,७; ९,१; ४,२,१०; ६,९ ।
२६२. अग्नेः पक्षतिः । मै ३,१५,४; काठ ५३,११ ।
२६३. अग्नेः पूर्वदिश्यस्य. . . .स्थाने स्वतेजसा भानि । तैआ १,१८ ।
२७१. अग्नेः पूर्व्वाहुतिः । तै २,१,७,१।।
२७२. अग्ने कह्याग्ने किंशिलाग्ने दुध्राग्ने वन्याऽग्ने कक्ष्य या ता इषुर्युवा नाम तया
विधेम । मै २,१३,१२ (तु. तैसं ५,५,९,१-२; काठ ४०,३) ।
२७३. अग्ने गृहपते यस्ते घृत्यो भागस्तेन सह ओज आक्रममाणाय धेहि । तैसं २,४,५,२।।
२७४. अग्ने गृहपते सुगृहपतिरहं त्वया गृहपतिना भूयासम् । मै १,५,१४; काठ ५,५; ७,३ ।
२७५. अग्ने. . .जातवेदः शिवो भव । मै २,७,८।।
२७६. अग्ने दुःशीर्ततनो जुषस्व. . . एषा वा अस्य (अग्नेः) शृणती तनूः क्रूरैतया वा एष पशूञ्शमायते । मै १,८,६ ।।
२७७. अग्ने पृथिवीपते (ऊर्जं नो धेहि)। तै ३,११,४,१ ।।
२७८. अग्ने ब्रह्म गृहीष्व (गृह्णीष्व [मै., क.])। मै १,१,९; काठ १,८; क १,८ ।
२७९. अग्नेऽभ्यावर्तिन्नभि न आ वर्तस्वाऽऽयुषा वर्चसा सन्या मेधया प्रजया धनेन । तैसं ४,२,१,२॥
२८०. अग्ने महाँ असि ब्राह्मण भारत । कौ ३,२; तै ३,५,३,१; माश १,४, २,२ ।। २८१. अग्ने यत्ते तपस्तेन तं प्रतितप (“त्ते हरस्तेन तं प्रतिहर) योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः । काठ ६,९ ।
२८२. अग्ने रथन्तरम् (इन्द्रोऽन्वपाक्रामत्) । मै २, ३,७ ।।
२८३. अग्नेरहं देवयज्ययान्नादो भूयासम् । तैसं १,६,२,३ ।
२८४. अग्नेरहं स्विष्टकृतो देवयज्ययायुःप्रतिष्ठां गमेयम् । काठ ५, १ ।
२८५, अग्नेरायुरसि तस्य (+ ते [काठ.J) मनुष्या आयुष्कृतः । मै २,३,४; काठ ११,७ ।
२८६. अग्ने रुचां पते नमस्ते । काठ ६,९; ७,६ ।।
२८७. अग्ने रूपं स्पर्शाः। ऐ ३,२,५।।
२८८. अग्नेर् ऋग्वेदः (अजायत) । माश ११,५,८,३ ।
२८९. अग्नेरेतद्वैश्वानरस्य भस्म (रेतो [माश ७,१,१,१०]) यत्सिकताः। माश ७,१,१, ९ ।
२९०. अग्नरेतास्तन्वो यद् धिष्ण्याः । मै ४,६,९ ।
२९१. अग्ने रेतो हिरण्यम् । माश २,२,३,२८ ।।
२९२. अग्नेर्घृतम् । तैसं ५,५,१,५।।
२९३. अग्नेर्भागोऽसि दीक्षाया आधिपत्यं ब्रह्मस्पृतं त्रिवृत् स्तोमः । तैसं ४,३,९,१; मै २,८,५।
२९४. अग्नेर्यद्रेतः सिच्यते तद्धिरण्यमभवत् । काठसंक १३९ ।
२९५. अग्नेर्वाऽएतद्रेतो यद्धिरण्यम् । जै १,५६; माश १४,१,३,२९; ।
२९६. अग्नेर्वा एतद्वैश्वानरस्य भस्म यत् सिकताः । मै ३,२,३; ७; माश ३,५,१,३६ ।।
२९७. अग्नेर्वा एतद्वैश्वानरस्य (श्नौष्टं) साम। तां १३,११,२३ ।
२९८. अग्नेर्वा एताः सर्वास्तन्वो यदेता (वाय्वादयः) देवताः । ऐ ३,४ ।
२९९. अग्नेर्वा एषा तनूर्यदोषधयः । तै ३,२,५,७ ।
३००. अग्नेर्वा एषा वैश्वानरस्य प्रिया तनूर्यत्सिकताः । काठ २०, १ ।।
३०१. अग्नेर्वा एषा वैश्वानरस्य योनिर्यदवका । काठ २१,३ ।।
३०२. अग्नेर् (वत्सः) वृत्रः । तैआ १,१०,६,१३ ।।
३०३. अग्नेर्वै गुप्त्या अग्निहोत्रं हूयते । काठ ६,२ ।
३०४. अग्नेर्वै चक्षुषा मनुष्या विपश्यन्ति । तैसं २,२,९,३; ३,८,१-२ ।।
३०५. अग्नेर्वै प्रात:सवनम् (°र्वै भागः पुनराधेयः .मै.J) । मै १,७,२; कौ १२,६: १४,५; २८,५।।
३०६. अग्नेर्वै मनुष्या नक्तं चक्षुषा पश्यन्ति, सूर्यस्य दिवैतौ वै (°र्यस्य दिवा तौ [काठ.J) चक्षुषः प्रदातारौ । मै २,३,६; काठ ११,१ ।।
३०७. अग्नेर्वै मनुष्याश्चक्षुषा पश्यन्ति, विष्णोर्देवताः। काठ १०,१ ।
३०८. अग्नेर्वै सर्वमाद्यम् । तां २५,९,३ ।
३०९. अग्नेर्वै सृष्टस्य तेजा उददीप्यत, तदश्वत्थं प्राविशत् । मै १,६,५।।
३१०. अग्नेर्वै सृष्टस्य भा अपाक्रामत्, तद् विकङ्कतं प्राविशत् । मै ३.१,९।
३११. अग्नेर्वै सृष्टस्य विकङ्कतं भा आर्छत् । काठ १९,१०: २१,९; क ३०,१०।
३१२. अग्नेर्हिरण्यं प्रतिजगृहुषस्तृतीयमिन्द्रियस्यापाक्रामत् । काठ ९,१२ ।
३१३. अग्नेष्ट्वास्येन प्राश्नामि । गो २,१,२।।
३१४. अग्ने .. . स नो भव शिवस्त्वम् । मै २,७,१० ।
३१५. अग्ने सहस्राक्ष शतमूर्धञ्छततेजश्शतं ते प्राणास्सहस्रं व्यानाः । त्वं साहस्रस्य राय ईशिषे । काठ ७,३ ।
३१६. अग्नेस्तूषः (वासः) । काठ २३, १ ।।
३१७. अग्नेस्तेजसा सूर्यस्य वर्चसा (बृहस्पतिर्वो युनक्तु) । मै २,७,१२; तैआ ६,३,३ । ३१८. अग्नेस्तेजसेन्द्रस्येन्द्रियेण (+सूर्य्यस्य वर्चसा [ तां. 1)। मै २, ६, ११; ४, ४, ५; तां १,३,५; ७,३ ।।
३१९. अग्नेस्त्रयो ज्यायांसो भ्रातर आसन् ते देवेभ्यो हव्यं वहन्तः प्रामीयन्त । तैसं २,६,६,१; ६,२,८,४ ।।
३२०. अग्नेस्त्वा मात्रयेत्याहात्मानमेवास्मिन् (आमयाविनि) एतेन दधाति । तैसं २,३,११,४।।
३२१. अग्नेस्त्वाऽऽस्येन प्राश्नामि । तैसं २,६,८,६ ।।
३२२. अग्नेः समिदस्यभिशस्त्या मा पाहि । क ४,८।
३२३. अग्नेः स्विष्टकृतोऽहं देवयज्ययाऽऽयुष्मान् यज्ञेन प्रतिष्ठां गमेयम् । तैसं १,६,२,४ ।
३२४. अग्ने हव्यं रक्षस्व । तैसं १,१,४,२।।
३२५. अग्नौ हि सर्वाभ्यो देवताभ्यो जुह्वति । माश १,६,२,८ ।
३२६ अङ्गिरसां वा एकोऽग्निः । ऐ ६,३४ ।
३२७. अङ्गिरसो धिष्णियैरग्निभिः (सहागच्छन्तु) । तैआ ३,८,१ ।
३२८. अजरं वा अमृतमग्नेरायुः । काश ३,१,१०,४ ।
३२९. अजा ह्यग्नेरजनिष्ट गर्भात् । तैसं ४,२,१०,४ ।।
३३०. अजो ह्यग्नेरजनिष्ट शोकात् । मै २,७,१७; काठ १६,१७ ।।
३३१. अतूर्तो होतेत्याह न ह्येतं (अग्निं) कश्चन तरति । तैसं २,५,९,२-३ ।
३३२. अत्र वैश्यस्यापि (अग्निः) देवता । मै २,३,१।।
३३३. अथ यत्रैतत्प्रतितरामिव तिरश्चीवार्चिः संशाम्यतो भवति तर्हि हैष (अग्निः) भवति मित्रः । माश २,३,२,१२ ।।
३३४. अथ यत्रैतत्प्रथमं समिद्धो भवति, धूप्यतऽएव तर्हि हैष भवति रुद्रः। माश २,३,२,९ ।
३३५. अथ यत्रैतत्प्रदीप्ततरो भवति, तर्हि हैष (अग्निः) भवति वरुणः । माश २,३,२,१० ।
३३६. अथ यत्रैतत्प्रदीप्तो भवति, उच्चैर्धूमः परमया जूत्या बल्बलीति, तर्हि हैष (अग्निः) भवतीन्द्रः । माश २,३,२,११ ।।
३३७. अथ यत्रैतदङ्गाराश्चाकाश्यन्तऽ इव । तर्हि हैष (अग्निः) भवति ब्रह्म । माश २,३, २,१३ ।
३३८. अथ (अग्निः) यदुच्च हृष्यति नि च हृष्यति तदस्य मैत्रावरुणं रूपम् । ऐ ३, ४ ।
३३९. अथ योऽग्निर्मृत्युस्सः । जैउ १,८,१,८; २,५,१,२ ।।
३४०. अथर्वा त्वा प्रथमो निरमन्थदग्ने । मै २,७,३ ।
३४१. अथ ह वै त्रयः पूर्वेऽग्नय आसुर्भूपतिर्भुवनपतिर्भूतानां पतिः । जै २,४१ ।
३४२. अथाग्नेरष्टपुरुषस्य (महिमा कथ्यते) । तैआ १,८,८,२२ ।
३४३. अथातो दक्षिणः पक्षः सोऽयं लोकः सोऽयमग्निः सा वाक्तद्रथन्तरं स वसिष्ठः । ऐआ १,४,२।
३४४. अथैषोऽग्नये वैश्वानराय द्वादशकपालः (पुरोडाशः) । मै ३,३,१०।
३४५. अथोऽग्निर्वै सुक्षितिरग्निवास्मिँल्लोके सर्वाणि भूतानि क्षियति । माश १४,१, २,२४ ।
३४६. अद्भ्यो वाऽ एष (अग्निः) प्रथममाजगाम । माश ६,७,४,४ ।।
३४७. अनाधृष्टाऽसि (°नाधृष्या (तैआ.J) पुरस्तादग्नेराधिपत्या (त्ये [तैआ.J) आयुर्मे दाः । मै ४, ९,३; तैआ ४,५,३ ।।
३४८. अनुष्टुब् वा अग्नेः प्रिया तनूः । काठ १९,५।।
३४९. अन्नादा (प्रजापतेर्या तनूः) तदग्निः । ऐ ५,२५ ।।
३५०. अन्नादोऽग्निः । माश २,१,४,२८; २,४,१ ।
३५१. अन्नादो वा एषोऽन्नपतिर्यदग्निः । ऐ १,८।।
३५२. अपरिमिता ह्यग्नेस्तन्वोऽग्निना वा अनीकेनेन्द्रो वृत्रमहन् । मै ३,९,५।
३५३. अपां ह्येष गर्भो यदग्निः । तैसं ५,१,५,८ ।
३५४. अप्सुयोनिर्वा अग्निः । तैसं ५,२,२,४।।
३५५. अप्सुषदसि श्येनसदसीत्याहैतद्वा अग्ने रूपम् । तैसं ५, ३,११,२ ।।
३५६. अप्स्वग्ने सधिष्टव सौषधीरनुरुध्यसे । तैसं ४,२,११,३।
३५७. अमृतो ह्यग्निस्तस्मादाहादब्धायविति । माश १,९,२,२० ।
३५८. अयं वाऽअग्निरर्कः (°निरुख्यः [माश ८, २, १, ४]) माश ८, ६, २, १९; ९, ४, १, १८; शांआ १,४ । ।
३५९. अयं वाऽअग्निर्ऋतमसावादित्यः सत्यं यदि वासावृतमयं सत्यमुभयम्वेतदयमग्निः । माश ६, ४,४, १० ।।
३६०. अयं वाऽग्निर्लोकः (°ग्निर्ब्रह्म च क्षत्रं च [माश ६,६, ३,१५] ) । माश १, ९,२,१३ ।
३६१. अयं वाव यः (वायुः) पवते सोऽग्निर्नाचिकेतः । तै ३,११,७,१ ।
३६२. अयं वाव लोकोऽग्निश्चितः । माश १०,१,२,२।।
३६३. अयं वै (पृथिवी-) लोकोऽग्निः । माश १४, ९,१,१४ ।
६४. अयं ते योनिर्ऋत्विय इत्यरण्योः समारोहयत्येष वा अग्नेर्योनिः । तैसं ३,४,१०,४-५ ।।
३६५. अयमग्निर्ब्रह्म । माश ९,२,१,१५ ।।
३६६. अयमग्निर्वैश्वानरो योऽयमन्तः पुरुषे येनेदमन्नं पच्यते यदिदमद्यते तस्यैष घोषो भवति यमेतत्कर्णावपिधाय शृणोति स यदोत्क्रमिष्यन्भवति नैतं घोषं शृणोति । माश १४,८,१०,१।।
३६७. अयमग्निः सहस्रयोजनम् (स्वर्विद् [माश ९,२,१,८)। माश ९,१,१,२९ ।
३६८. अया ते अग्ने समिधा विधेम । तैसं १,२,१४,६ ।।
३६९. अया वै नामैषाग्नेः प्रिया तनूः । मै १,४८।।
३७०. अरुणाश्वा इहागताः । वसवः पृथिवीक्षितः । अष्टौ दिग्वाससोऽग्नयः । तैआ १,१२,४,९ ।
३७१. अर्कोऽग्निः । मै ३,१,१; २,४; काठ १९,१; क २९, ८ ।।
३७२. अर्को ज्योतिस्तदयमग्निः । मै १,६,२ ।।
३७३. अर्को वा (+एष यद् तैसं ५,३,४,६]) अग्निः । तैसं ५,५,६, ३ ।
३७४. अर्चिषम् (प्राणम् [माश.]) अग्नेः (आदित्य आदत्त)। जै २,२६; माश ११,८,३,७।।
३७५. अवकामनूप दधात्येषा वा अग्नेर्योनिः । तैसं ५,४,२,१ ।।
३७६. अशिष्टो ह्यग्निस्तस्मादाहाशीतमेति । माश १,९,२,२० ।
३७७. अश्वो वै भूत्वाग्निर्देवेभ्योऽपाक्रामत् स यत्रातिष्ठत् तदश्वत्थस्समभवत्, तदश्वत्थस्याश्वत्थत्वम् । काठ ८, २ ।
३७८. असा आदित्योऽग्निः । काठसंक १२२ ।।
३७९. असौ वाऽआदित्य एषोऽग्निः । माश ६, ४,१,१; ३,९,१०।।
३८०. असौ वा आदित्योऽग्निरनीकवान् (त्योऽग्निः शुचिः [तै १,१,६,२])। तै १,६,६,२ ।
३८१. असौ वा आदित्योऽग्निर्वसुमान् (ग्निर्वैश्वानरः [मै.]। मै २,१,२; तैआ ५,७,१० । ३८२. अस्मिंस्तेन (पृथिवी-) लोके प्रतितिष्ठति, अग्निं ज्योतिरवरुन्द्धे । काठसंक ९। ३८३. अह्नोऽग्निः (वत्सः) । ताम्रो अरुणः । तैआ १,१०,५-६ ।
३८४. आकृत्यै प्रयुजे अग्नये स्वाहा, मेधायै मनसे अग्नये स्वाहा, दीक्षायै तपसे अग्नये स्वाहा, सरस्वत्यै पूष्णे अग्नये स्वाहा । तैसं १,२,२,१; मै १,२,२; काठ २,२ ।।
३८५ आत्मैव (आत्मा वा [माश ७,३,१,२] ) अग्निः । माश ६,७,१,२०; १०,१,२,४ । ३८६. आदित्योऽग्निः । काठसंक ८३।
३८७. आदित्यो वाऽअस्य (अग्नेः) दिवि वर्चः । माश ७,१,१,२३ ।।
३८८. आपं त्वाग्ने मनसा ••• तपसा ••• दीक्षया ••• उपसद्भिर् ••• सुत्यया. . दक्षिणाभिर् •••अवभृथेन'••वशया'''स्वगाकारेण '•• एनमाप्नोति । तैसं ५,५,७,५।। ३८९. आपो वरुणस्य पत्न्य आसन् , ता अग्निरभ्यध्यायत् , ताः समभवत् । तैसं ५,५,४,१; तै १,१,३,८ ।।
३९०. आपो वा अग्निः पावकः । तै १,१,६,२ ।
३९१. आपो वा अग्नेर्योनिः (°स्सपत्नः [मै ३,४,१०])। मै ३,२,२; ४,१०; काठ १९,१२; क ३१,२।
३९२, आयुर्दा अग्नेऽस्यायुर्मे देहि । वर्चोदा . . . तनूपा ••••• यन्मे तनुवा ऊनं तन्म आ पृण । तैसं १,५,५,३-४ ।
३९३. आयुर्वाऽग्निः । माश ६,७,३,७।।
३९४. आहुतयो वाऽअस्य (अग्नेः .मै.J) प्रियं धाम । मै १,८,५; माश २, ३,४, २४ । ३९५. इदमग्न आयुषे वर्चसे कृधि । काठ ३६, १५ ।।
३९६. इन्द्रतमेऽग्नौ स्वाहा । मै ४,९,९ ।।
३९७. इन्द्रो वा अधृतशिथिल इवामन्यत, सोऽग्नौ चैव बृहस्पतौ चानाथत । काठ ११, १ ।
३९८. इमं पशुं पशुपते ते अद्य बध्नाम्यग्ने । तैसं ३,१,४,१ ।।
३९९, इमाः प्रजा अर्कमभितो निविष्टा इममेवाग्निम् । ऐआ २,१,१ ।
४००. इमे वै लोको एषोऽग्निः । माश ६,७,१,१६; ७,३,१,१३ ।
४०१. इयं (पृथिवी) वाऽग्निः (+अपन्नगृहः [तै.. ) । तै ३,३,९,८; माश ७, ३,१,२२ । ४०२. इयं (पृथिवी) वा अग्निर्बृहन्नाकः । काठ ३१,२; क ४७,२ ।।
४०३. इयं वा अग्निर्वैश्वानरः । तैसं ५,६,६,४; मै १,४,१३: २,१,२; तै ३,८,६,२; ३,९,१७,३ ।
४०४, इयं (पृथिवी) वा अग्नेर्योनिः । मै ३,२,१ ।
४०५. इयं (पृथिवी) वावाग्निः । क ३५, ३ ।
४०६. इयं वै पृथिव्यग्निर्वैश्वानरः । माश ३,८,५,४ ।
४०७. इयं (पृथिवी) ह्यग्निः । माश ६,१.१,१४: २९ ।
४०८. इयं (पृथिवी) ह्यग्नेर्योनिः । काठ ७,४ ।
४०९. ईश्वरो वा एषो (अग्निः) ऽन्तरिक्षसद् ( विद्युत् ) भूत्वा प्रजा हिंसितोर्यदाह शिवो भव प्रजाभ्या इति, प्रजाभ्य एवैनं (अग्निम् ) शिवमकः । मै ३,१,६ ।।
४१०. उत्तरत उपचारोऽग्निः । तैसं ५,३,७,५।
४११. उत्तरार्धेऽग्नये जुहोति । तैसं २,६,२,१ ।
४१२. उदपुरा नामास्यन्नेन विष्टा•••••मनुष्यास्ते गोप्तारोऽग्निरधिपतिः । मै २,८,१४ ।
४१३. उदेह्यग्ने अधि मातुः पृथिव्याः । काठ ७,१२।।
४१४. उपोदको नाम लोको यस्मिन्नयमग्निः । जै १,३ ३४ ।
४१५. उभयं वाऽएतदग्निर्देवानां होता च दूतश्च । माश १,४,५,४ ।
४१६. उलूखलमुप दधात्येषा वा अग्नेर्नाभिः । तैसं ५,२,८,७।।
४१७. उशिक् पावको अरतिः सुमेधा मर्तेष्वग्निरमृतो नि धायि । तैसं ४,१,२,२ ।
४१८. ऊर्ध्वो ह्ययमग्निर्दीप्यते । जै १,२४७।
४१९. ऋग्वेद एवाग्नेः (उदैत् ) । जै १,३५७ ।।
४२०. ऋताषाड् ऋतधामाग्निर्गन्धर्वस्तस्यौषधयोऽप्सरस ऊर्जो (रसो मुदा मै., क.J, ) नाम । तैसं ३,४,७,१; मै २,१२,२; क २९,३ ।।
४२१. ऋषयो ह्येतम् (अग्निम् ) अस्तुवन् । तैसं २,५,९,१ ।।
४२२. एतद्वा अग्निधानं हस्तस्य यत्पाणिस्तस्मादेतो हस्तस्याग्निर्नतमां विदहति । मै १, ८,२ ।
४२३. एतद्वा अग्नेः प्रियं (प्रियतमं [माश.] ) धाम यद् घृतम् (आज्यम् ।तैसं.] ) । तैसं ५,१,९,५; काठ २०,७; २१,८; माश १,३,२,१७।।
४२४. एतद्वा अग्नेस्तेजो यद् घृतम् । तैसं २,५, २,७ ।।
४२५. एतद्वै यजमानस्य स्वं यदग्निः । एतदग्नेर्यद्यजमानः । मै १,५,११।।
४२६. एतम् (सूर्यम् ) अग्नावध्वर्यवः (मीमांसन्ते) । ऐआ ३,२,३ ।।
४२७. एतानि वै तेषामग्नीनां नामानि यद्भुवपतिर्भुवनपतिर्भूतानां पतिः । माश १, ३, ३, १७ ।
४२८. एतामग्नये प्राचीं दिशमरोचयन् । काठ ८,१ ।।
४२९. एतावन्तोऽग्नय (१. अन्वाहार्यपचनः, २. गार्हपत्यः, ३. आहवनीयः, ४. सभ्यः, ५. आवसथ्यः ) आधीयन्ते । तै १, १,१०,४ ।।
४३०. एते वै यज्ञस्यान्त्ये तन्वौ यदग्निश्च विष्णुश्च । ऐ १,१।
४३१. एष (अग्निः) उ वा इमाः प्रजाः प्राणो भूत्वा बिभर्ति तस्माद्वेवाह भारतेति (भरतवत् [माश १,५,१,८]) । माश १,४, २,२ ।।
४३२. एष उ ह वाव देवानां नेदिष्टमुपचर्यो ( महाशनतमः । जैउ २,५, ३, १J) यदग्निः ।
जैउ २,५,२,१ ।।
४३३. एष (अग्निः) एव महान् । माश १०,४,१,४।।
४३४. एष खलु वै देवरथो यदग्निः । तैसं ५,४,१०,१।।
४३५. एष रुद्रोः यदग्निः । तैसं २,६,६,६; ३, ५,५,२; तै १,१,५,८-९; ६,६; ८,४; ४,३,६ ।
४३६. एष वा अग्निः पाञ्चजन्यो यः पञ्चचितीकः । तैसं ५,३,११,३ ।।
४३७. एष वा अग्निर्वैश्वानरो य एष (आदित्यः) तपति । जै १,४५।।
४३८. एष (+ह (गो.]) वा अग्निर्वैश्वानरो यत् प्रदाव्यः ( प्रवर्ग्यः [तैआ. 1 ) । गो २, ४, ८; तै ३, ३,८,४; तैआ ५,१०,५।।
४३९. एष वा अग्निर्वैश्वानरो यदसा आदित्यः ( नरो यद् ब्राह्मणः (तैसं, तै.)। तैसं ५,२,८,१-२ ; मै १,६, ३; ६; तै २,१,४,५; ३,७,३,२ ।।
४४०. एष वै तुथो विश्ववेदा यदग्निः । मै ४, ८,२ ।
४४१. एष वै देवाननुविद्वान्यदग्निः । माश १,५,१,६ ।।
४४२. एष वै धुर्योऽग्निः (यज्ञो यदग्निः [माश.J) । तै ३,२,४,३; माश २,१,४,१९ । ४४३. एष वै मृत्युर्यदग्नी रिहन्नेव नाम । जै १,२६ ।
४४४. एष (अग्निः) हि देवेभ्यो हव्यं भरति तस्माद्भरतोऽग्निरित्याहुः । माश १, ४,१,१; ५,१,८ ।
४४५. एष हि यज्ञस्य सुक्रतुर्यदग्निः । माश १,४,१,३५।।
४४६. एष हि रुद्रो यदग्निः ([अग्निः] वाजानां पतिः .ऐ.J)। मै १,६,७; ११; ऐ २,५। ४४७. एष हि हव्यवाड् (हव्यवाहनो) यदग्निः । माश १,४,१,३९ ।।
४४८. एषा वा अग्नेः पशव्या तनूर्या दधिक्रावती । काठ ७,४ ।।
४४९. एषा वा अग्नेः प्रिया तनूर्यच्छन्दांसि (नूर्यत्क्रुमुकः [मै., तै.J) मै ३,१, ९; काठ २०,१; तै १,४,७,३ ।।
४५०. एषा वा अग्नेः प्रिया तनूर्यदजा । तैसं ५,१, ६,२; काठ १९,५; क ३०,३; तैआ ५,२, १३।।
४५१. एषा वा अग्नेः प्रिया तनूर्यद् घृतम् । मै ३,२,६; ७; ७,५; काठ २४,५; क ३७,६ ।
४५२. एषा वा अग्नेः प्रिया तनूर्यद् वैश्वानरः (तनूर्यावैश्वानरी [काठ,J) । तैसं ५,५, १, ५; मै ३, १,१०; ३,३; काठ १९,९ ।।
४५३. एषा वा अग्नेर्दधिक्रावती प्रिया तनूः पशव्या सर्वसमृद्धा । मै १,५, ६ ।
४५४. एषा वा अग्नेर्भिषज्या तनूर्या सुरभिमती अग्नये सुरभिमतेऽष्टाकपालं निर्वपेद्यं
प्रमीतं शृणुयुः पूतिर्वा एष श्रूयते यः प्रमीतश्श्रूयते । काठ १०,६ ।
४५५. एषा वा अग्नेर्भेषजा तनूर्यत् सुरभिः । मै २,१,३; १० ।।
४५६. एषा वा अस्य (अग्नेः) घोरा तनूर्यद् रुद्रः । तैसं २,२,२,३ ।
४५७. एषा वा अस्य (अग्नेः) जातवेदस्या तनूः क्रूरैतया वा एष पशूञ्शमायते । मै १,८,६ ।
४५८. एषा वा अस्य (अग्नेः) भेषज्या तनूर्यत् सुरभिमती । तैसं २,२,२,४ ।
४५९. एषा संवत्सरस्य क्रूरा तनूर्या वैश्वानरी तयैतदभितपन्नभिशोचयंस्तिष्ठति भागधेयमिच्छमानस्तामेवास्य (अग्निं) प्रीणाति साऽस्मै प्रीता वृष्टिं निनयति । काठ १०,१।
४६०. एषा ह वास्य (अग्नेः) सहस्रं भरता यदेनमेकं सन्तं बहुधा विहरन्ति । ऐ १,२८ ।
४६१. एषोऽग्निर्देवानां सेनानी । काठ ३६,८ ।
४६२. ओजो वा अग्निः । काठ २०,११; क ३१, १३ ।
४६३. ओषधयो वा अग्नेर्भागधेयम् (°वा एतस्य मातरः [क.J) । तैसं ५, १,५,९; क ३०,३।
४६४. कामा वा अग्नयः । तैसं ५,१,८,२; काठ १९,८; क ३०, ६।।
४६५. कृत्तिका नक्षत्रमग्निर्देवता । तैसं ४,४,१०,१; मै २,१३,२० ।
४६६. कृष्णो वै भूत्वाऽग्निरश्वं प्राविशत् । मै ३,१,४ ।।
४६७. केतो अग्निः । मैं १,९,१; तैआ ३,१,१।।
४६८. क्षुच्च तृष्णा च । अनुक्चानाहुतिश्च । अशनया च पिपासा च । सेदिश्चामतिश्च । एतास्ते अग्ने घोरास्तनुवः । तैआ ४,२२ ।
४६९. गन्धो हैवास्य (अग्नेः) सुगन्धितेजनम् । माश ३,५,२,१७ ।
४७०. गर्भो अस्योषधीनां गर्भो वनस्पतीनाम् । गर्भो विश्वस्य भूतस्याग्ने गर्भो अपामसि । तैसं ४,२,३,३; क २५,१।।
४७१. गायत्रछन्दा अग्निः (ह्यग्निः [तां ७,८,४])। तां १६,५,१९ ।
४७२. गायत्री छन्दोऽग्निर्देवता शिरः । माश १०,३,२,१ ।
४७३. गायत्री वा अग्निः । माश १,८,२,१३ ।
४७४. गायत्रोऽग्निः (°त्रो वा अग्निः कौ., तै.J)। तैसं ५, १,४,६; २,३,५; कौ १,१; ३,२; ९,२; १९,४; तै १,१,५,३ ।।
४७५. गायत्रो (यो जै. १,१३८J) ह्यग्निः । मै ३, ९,५; जै १, १४२ ।
४७६. घर्मः शिरस्तदयमग्निः । तैसं १,६,१,२; काठ ७,१४; तैआ ४,१७ ।
४७७. घृताहुतिर्ह्यस्य (अग्नेः) प्रियतमा । तैसं २,५,९,२ ।।
४७८. घृतेन त्वं (जातवेदः) तनुवो वर्धयस्व स्वाहाकृतं हविरदन्तु देवाः । तैसं ३,१,४,५।।
४७९. चत्वारो ह वाऽअग्नयः । आहित उद्धृतः प्रहृतो विहृतः । माश ११,८,२,१ ।। ४८०. चमसो ह्येष (अग्निः ) देवपानः । तैसं २,५,९,३ ।
४८१. चित्रोऽसीति सर्वाणि हि चित्राण्यग्निः । माश ६,१,३,२० ।
४८२. छन्दांसि खलु वा अग्नेः प्रिया तनूः । तैसं ५,१,५,३; २,१,२।।
४८३. छन्दांसि वा अग्नेर्योनिः । काठ १९,१०; २०,४ ।।
४८४. छन्दांसि वा अग्नेर्वासश् छन्दांस्येष वस्ते (°र्वासश् छन्दोभिरेवैनं परिदधाति [काठ.J) । मै ३,१,५; काठ १९,५।।
५८५. छन्दोभिर्वा अग्निरुत्तरवेदिमानशे । काठ २०,५ ।
४८६. जुहूर्ह्येष (अग्निः) देवानाम् । तैसं २,५,९,३ ।।
४८७. जुह्वेह्यग्निस्त्वाह्वयति (°यतु [.क.J) । तैसं १, १,१२,१; काठ १,१२; क १,१२ ।।
४८८. ज्योतिर्वा अग्निः । तैसं १,५,९,५।।
४८९. तं यद् घोरसंस्पर्शं सन्तं (अग्निं) मित्रकृत्येवोपासते तदस्य (अग्नेः) मैत्रं रूपम् । ऐ ३, ४ ।
४९०. त (अग्नीन्द्रसूर्याः) इमांल्लोकान् व्युपायन्नग्निरिमम् (पृथिवीलोकम् ) । काठ २९, ७ ।।
४९१. तऽएते सर्वे पशवो यदग्निः । माश ६,२,१,१२।।
४९२. ततो वा अग्निरुदतिष्ठत् । सा दक्षिणा दिक् । तैआ १,३३,५,७ ।
४९३. ततोऽस्मिन् (अग्नौ) एतद्वर्च आस । माश ४,५,४,३ ।
४९४. तदग्निर्वै प्राणः । जैउ ४,११,१,११ ।।
४९५. तद् (हिरण्यम् ) आत्मन्नेव हृदयेऽग्नौ वैश्वानरे प्रास्यत् । तै ३,११,८,७।।
४९६. तदेभ्यः (देवेभ्योऽग्निः) स्विष्टमकरोत्तस्मात् स्विष्टकृतऽइति । माश १,७,३,९। ४९७. तद्वाऽएनमेतद्ग्रे देवानाम् (प्रजापतिः) अजनयत । तस्मादग्निरग्रिर्ह वै नामैतद्यदग्निरिति । माश २,२,४,२।।
४९८. तं (अग्निं) नैव हस्ताभ्यां स्पृशेन्न पादाभ्यां न दण्डेन । जैउ २,५,२,३ ।
४९९. तपो मे तेजो मेऽन्नम्मे वाङ् मे । तन्मे त्वयि । तन्मे (अग्ने) पुनर्देहि । जैउ ३,५,१,१६ ।।
५००. तपो वाऽअग्निः । माश ३,४,३,२।।
५०१. तमग्निरब्रवीदहमेव त्वेतः पास्यामीति पृथिव्या अहमन्तरिक्षादिति वरुणः । मै ४,३, ४ ।।
५०२. तमु त्वा (अग्ने) पाथ्यो वृषा समीधे । मै २,७,३ ।।
५०३. तमु हैव पशुषु कामं रोहति य एवं विद्वान् रोहिण्याम् (अग्नी) आधत्ते । माश २,१,२,७।
५०४. तयोर् (द्यावापृथिव्योः) एष गर्भो यदग्निः । तैसं ५,१,५,४ ।
५०५. तव छन्दसेत्यग्निमब्रुवन् (देवाः)। जै १,२११ ।।
५०६. तस्मादग्नये सायं हूयते सूर्याय प्रातः । तै २,१,२,६ । ।
५०७. तस्माद् (प्रजापतेः) अग्निरध्यसृज्यत । सोऽस्य मूर्ध्न ऊर्ध्व उदद्रवत् । क ३, १२ ।
५०८. तस्य (अग्नेः) रथगृत्सश्च रथौजाश्च सेनानीग्रामण्याविति वासन्तिकौ तावृतू । माश ८,६,१,१६ ।।
५०९. तस्य (अग्नेः) रेतः पराऽपतत्, तदियम् (पृथिवी) अभवत् । तैसं ५,५,४,१ । ५१०. तस्य (अग्नेः) रेतः परापतत्तद्धिरण्यमभवत् । तै १,१,३,८ ।
५११. तस्या (श्रियः) अग्निरन्नाद्यमादत्त । माश ११, ४,३,३।।
५१२. तस्या (गायत्र्यै) अग्निस्तेजः प्रायछत्, सोऽजोऽभवत् । मै १,६,४। ।
तस्य (यज्ञस्य) अग्निर्होताऽऽसीत् । गो १,१,१३ ।।
५१३. ता इमाः प्रजा अर्कमभितो निविष्टा इममेवाग्निम् । ऐआ २,१,१ ।
५१४. तान् (पशून् ) अग्निस्त्रिवृता स्तोमेन नाप्नोत् । तै २, ७,१४, १।
५१५. तान् ( असुरान्) अग्निस्त्रेधाऽत्मानं कृत्वा प्रत्ययतताऽग्निरेवास्मिँल्लोके भूत्वा वरुणोऽन्तरिक्षे, रुद्रो दिवि । मै ४,३,४ ।
५१६. तान्यनृतमकर्तेति समन्तं देवान् पर्यविशँस्ते देवा अग्ना एवानाथन्त । काठ १०,७।
५१७. तिग्मशङ्गो वृषभः शोशुचानः...आतन्तुमग्निर्दिव्यं ततान । मै २,१३,२२।।
५१८. तूर्णिर्हव्यवाडित्याह, सर्वं ह्येष (अग्निः) तरति । तैसं २,५,९,३ ।।
५१९. तेऽङ्गिरस आदित्येभ्यः प्रजिघ्युः श्वःसुत्या नो याजयत न इति तेषां हाग्निर्दूत आस त आदित्या ऊचुरथास्माकमद्यसुत्या तेषां नस्त्वमेव (अग्ने) होतासि, बृहस्पतिर्ब्रह्माऽयास्य उद्गाता, घोर आङ्गिरसो अध्वर्य्युरिति । कौ ३०, ६ ।।
५२०. तेजसाऽग्निम् (आदित्योऽस्तं यन् प्रविशति) । जै १,७।।
५२१. तेजोऽग्निः (°ह्यग्निः _मै १,४,७) । मै ३, ३,६ ।।
५२२. तेजोऽवा अग्निः (°ऽग्नेर्वायुः [तैसं.J) । तैसं ५,५,१,१; मै १,६,८; ४,७,३; काठ १०, २; २२,६; तै ३,३,४,३; ९,५,२; माश २,५,४,८; ३,९,१, १९ ।।
५२३. ते देवा अब्रुवन्पशुर्वाऽअग्निः । माश ६,३,१,२२ ।।
५२४. ते वाऽएते प्राणा एव यद् अग्नयः (आहवनीयगार्हपत्यान्वाहार्यपचनाख्याः) । माश २,२,२,१८ ।
५२५. तेऽविदुः ( देवाः) । अयं (अग्निः) वै नो विरक्षस्तमः । माश ३,४,३,८। ।
५२६. तेषां नः (आदित्यानाम् अग्ने) त्वं होताऽसि । गौर् (घोर- [कौ..) आङ्गिरसोऽध्वर्युः, बृहस्पतिरुद्गाताऽयास्यो ब्रह्मा । कौ ३०,६; जै ३,१८८ ।।
५२७. तौ चक्षुषः प्रदातारौ (अग्निश्च विष्णुश्च) । काठ १०,१ ।।
५२८. त्रयोदशाग्नेश्चितिपुरीषाणि । माश ९,३,३,९।
५२९. त्रयो वा अग्नयो हव्यवाहनो देवानां कव्यवाहनः पितृणां सहरक्षा असुराणाम् । तैसं २,५,८,६।।
५३०. त्रिवृद्धयग्निः (°वृद° [माश.]) । मै ३,१,६; २,४; ३,६; माश ६, १,१, १।
५३१. त्रिवृद्वा अग्निः (+ अङ्गारा अर्चिर्धूम इति [कौ.J) । काठ १९,५; कौ २८,५; तैआ ५,९,६ ।।
५३२. त्वमग्ने व्रतपा असि। काठ ६,१० ।
५३३. त्वमग्ने सूर्यवर्चा असि (+ सं मामायुषा वर्चसा प्रजया सृज तैसं.J) । तैसं १, ५,५,४-५; मै १,५,८।।
५३४. त्वं (अग्ने ) पूषा विधतः पासि नु त्मना । तै ३,११,३,१ ।
५३५. त्वामग्ने पुष्करादध्यथर्वा निरमन्थत । मै २,७,३ ।।
५३६. ददा इति ह वा अयमग्निर्दीप्यते । जैउ ३,२,२,१ ।
५३७. दिशोऽग्निः । माश ६,२,२,३४; ३,१,२१;८,२, १० ।।
५३८. दीक्षायै च त्वा (अग्ने) तपसश्च तेजसे जुहोमि । तैसं ३,३,१,१ ।
५३९ . दीदायेव ह्यग्निर्वैश्वानरः । तां १३,११,२३ ।
५४०. देवपात्रं वाऽएष यदग्निः । माश १,४,२,१ ।।
५४१. देवरथो वा अग्नयः । कौ ५,१०।।
५४२. देवलोकं वा अग्निना यजमानोऽनु पश्यति । तैसं २,६,२,१ ।।
५४३. देवा असुरैर्विजयमुपयन्तोऽग्नौ प्रियास्तन्वः संन्यदधत । मै १,७,२।
५४४. देवान् ह्येष (अग्निः) परिभूः । तैसं २,५,९, ३ ।
५४५. देवानामेव एको योऽग्निमुपतिष्ठते । काठ ७,७ ।
५४६. देवायतनं वा अग्निर्वैश्वानरः । मै ३, १,१० ।
५४७. देवाश्च वा असुराश्च संयत्ता आसन्, सोऽग्निर्विजयमुपयत्सु त्रेधा तन्वो विन्यधत्त, पशुषु तृतीयमप्सु तृतीयममुष्मिन्नादित्ये तृतीयम् । काठ ८,८ ।
५४८, देवा ह्येतम् (अग्निम् ) ऐन्धत । तैसं २,५,९,१ ।।
५४९, द्यौर्वा अस्य (अग्नेः) परमं जन्म । माश ९,२,३,३९ । ।
५५०. द्वे वा अग्नेस्तन्वौ हव्यवाहन्या देवेभ्यो हव्यं वहति, कव्यवाहन्या पितृभ्यः । मै १,१०, १८; काठ ३६,१३।।
५५१. न ह स्म वै पुराऽग्निरपरशुवृक्णं दहति । तैसं ५,१,१०,१; काठ १९, १० । । ५५२. नाको नाम दिवि रक्षोहाग्निः । मै ४,१,९; काठ ३१,७ ।।
५५३. नेदुच्छिष्टमग्नौ जुहवाम । माश ४,४,३,१२ ।।
५५४. पञ्चचितिकोऽग्निः । माश ६,३,१,२५; ८,६,३,१२ ।
५५५. पञ्च वा एतेऽग्नयो यच्चितय उदधिरेव नाम प्रथमो दुध्रो द्वितीयो गह्यस्तृतीयः किंशिलश्चतुर्थो वन्यः पञ्चमः । तैसं ५, ५,९, १ (तु. काठ ४०,३) । ५५६. पर्जन्यो (पशवो [तै.J) वाऽअग्निः (+ पवमानः [तै.) । तै १,१,६,२; माश १४,९,१,१३ ।
५५७, पर्वैतदग्नेर्यदुखा । माश ६,२,२,२४ ।।
५५८. पशवो वा अग्नेः प्रियं धाम । काठ ७,६ ।।
५५९. पशवो वा आहुतयो, रुद्रोऽग्निः स्विष्टकृत् । मै १,४, १३ ।।
५६०. पशुर् (+ वा । मै., काठ., क.) अग्निः (ह्यग्निः [मै १,५,६; ३,२,१]) । तैसं ५,२,६, २; मै ३, ३,४; ४,७; काठ ७,४; २०,४; क ३१,६ । ।
५६१. पशुर् (+ वा [तैसं.J) एष यदग्निः । तैसं ५, ७, ६, १; माश ६, ४,१, २; ७, २,४, ३०; ३, २,१७ ।
५६२. पशूनेव प्रथमस्य तृचस्य प्रथमया स्तोत्रियया जयति, भूमिं द्वितीयया, अग्निं तृतीयया । जै १, २४५ ।
५६३. पाङ्क्तोऽग्निः । काठ २०, ५; २१, ९; क ३१, ७; तैआ १, २५, ३,७ ।।
५६४, पाहि माग्ने दुश्चरिताद् आ मा सुचरिते भज । तैसं १,१, १२,२; काठ १,१२; क १,१२।
५६५. पुञ्जिकस्थला च क्रतुस्थला चाप्सरसाविति दिक् चोपदिशा चेति ह स्माह माहित्थिः सेना च तु ते समितिश्च ( अग्नेः ) । माश ८, ६, १,१६ ।।
५६६. पुनरासद्य सदनमपश्च पृथिवीमग्ने शेषे मातुर्यथोपस्थे अन्तरस्यां शिवतमः । मै २,७,१०।
५६७. पुनरूर्जा नि वर्तस्व पुनरग्न इषाऽऽयुषा । पुनर्नः पाहि विश्वतः । तैसं ४,२,१,३।।
५६८. पुरीषायतनो वा एष यदग्निः । तैसं ५, १, २, ४ ।।
५६९. पुरुष एवाग्निर्वैश्वानरः । जै १, ४५ ।
५७०. पुरुषो(+वा [मा १४,९,१,१५] ऽग्निः । माश १०, ४, १, ६ ।।
५७१. पृथिवीं लोकानां जयत्यग्निं देवं देवानाम् । जै १, २६ ।।
५७२. पृथिवी समित् , तामग्निः समिन्द्धे । मै ४, ९,२३ ।।
५७३. पृथिव्यग्नेः (+पत्नी .गो. ]) । मै १, ९, २; काठ ९, १०; गो २, २, ९; तैआ ३,९,१।
५७४. पृथिव्येवाग्निर्वैश्वानरः । जै १, ४५ ।।
५७५. प्रजननं (+हि ॥ तैसं.]) वा अग्निः । तैसं १, ५, ९, १; तै १, ३, १, ४ ।।
५७६. प्रजननं वा ऋतवोऽग्निः प्रजनयिता । मै १, ७, ४; काठ ९,३ ।।
५७७. प्रजापतिरग्निः । माश ६, २, १,२३; ३०; ५, ३, ९; ७, २,२, १७ ।।
५७८. प्रजापतिरिमां ( पृथिवीं ) प्रथमां स्वयमातृण्णां चितिमपश्यत्.....। तमग्निरब्रवीत् । उपाहमायानीति, केनेति, पशुभिरिति । माश ६, २, ३, १-२ ।
५७९. प्रजापतिरेषो (°तिर्वा एष यद् तैसं.J) ऽग्निः । तैसं ५,६,९,२; माश ६,५, ३, ७; ८,१. ४ ।
५८०. प्रजापतिर्देवताः सृजमानः । अग्निमेव देवतानां प्रथममसृजत । तै २, ५, ६, ४ ।
५८१. प्रजापतिर्वा इदमासीत्तस्मादग्निरध्यसृज्यत । सोऽस्य मूर्ध्न ऊर्ध्व उदद्रवत् । क ३, १२ ।
५८२. प्रजापती रोहिण्यामग्निमसृजत तं देवा रोहिण्यामादधत ततो वै ते सर्वान्रोहानरोहन् । तै १, १, २, २ ।
५८३. प्रणीर्ह्येष ( अग्निः ) यज्ञानाम् । तैसं २,५,९,२ ।।
५८४. प्राची दिगग्निर्देवता । मै १, ५, ४; काठ ७, २; तै ३, ११,५, १।।
५८५. प्राची दिग् , वसन्त ऋतुरग्निर्देवता, ब्रह्म द्रविणं, गायत्री छन्दो रथन्तरं साम, त्रिवृत् स्तोमः, स उ पञ्चदशवर्तनिः, सानगा ऋषिस्त्र्यविर्वयः , कृतमयानां पुरोवातो वातः । मै २,७,२० (तु. तैसं ४, ३, ३, १; काठ ३९,७) ।।
५८६. प्राचीमेव दिशमग्निना प्राजानन् । माश ३,२,३,१६ ।।
५८७. प्राची हि दिगग्नेः । माश ६, ३, ३, २ ।।
५८८. प्राच्या त्या दिशा सादयाम्यग्निना देवेन देवतया गायत्रेण छन्दसाग्नेः शिरा उपदधामि । मै २, ८, ११ ।।
५८९. प्राजापत्यो (+ वा एषो । तैआ.J) ऽग्निः । मै ३, १, ७; तैआ १, २६, ४, ६ । ५९०. प्राणा अग्निः । माश ६, ३,१, २१; ८,२,१० ।
५९१. प्राणो वा (+इन्द्रतमः । तैआ.) अग्निः । माश २, २, २, १५; ९,५, १, ६८; तैआ ५,८,१२ ।
५९२. बाधस्व (अग्ने ) द्विषो रक्षसो अमीवाः । तैसं ४, १, ५, १ ।
५९३. बृहद्भाः पाहि माग्ने दुश्चरितादा मा सुचरिते भज । तैसं १, १,१२, २ ।
५९४. बृहस्पतिस्त्वा सादयतु पृथिव्याः पृष्ठे......अग्निस्तेऽधिपतिः । तैसं ४,४,६,१ ।। ५९५. ब्रह्म वा अग्निः (+क्षत्रं सोमः [कौ ९,५J)। कौ ९,१; ५; १२,८; जै १, १८२; तै ३, ९, १६,३; माश २,५,४,८; ५,३,५,३२ ।।
५९६. ब्रह्म ह्यग्निः (+ तस्मादाह ब्राह्मणेति [माश १, ४, २,२]) । माश १, ५,१,११ ।
५९७, ब्रह्म ( ब्रह्मवर्चसं वा .मै.J) अग्निः । मै ३, ८, ४; माश १, ३, ३, १९ ।। ५९८. भूरिति वा अग्निः । तैआ ७,५,२; तैउ १, ५, २ ।।
५९९. मन एवाग्निः । माश १०, १, २, ३ ।।
६००. मनुर्ह्येतम् ( अग्निम् ) उत्तरो देवेभ्य ऐन्ध । तैसं २, ५, ९, १ ।।
६०१. मनुष्या अग्नेरायुष्कृतः । काठ ११, ८ ।।
६०२. मय्यग्निस्तेजो दधातु । तैआ ४, ४२, ३ ।।
६०३. मरुतोऽद्भिरग्निमतमयन् तस्य तान्तस्य हृदयमाच्छिन्दन् साऽशनिरभवत् । तै १,१,३,१२ ।
६०४. महान् ह्येष यदग्निः.......ब्राह्मणो ह्येष भारतेत्याहैष हि देवेभ्यो हव्यं भरति । तैसं २,५,९,१ ।
६०५. मा छन्दस्तत्पृथि३व्यग्निर्देवता। मै २, १३, १४ ।
६०६. मिथुनं वा अग्निश्च सोमश्च सोमो रेतोधा अग्निः प्रजनयिता । काठ ८,१०; क ७, ६ ।।
६०७. मुखं ह्येतदग्नेर्यद् ब्रह्म । माश ६, १,१, १० ।
६०८. मुखम् (मृत्युर् ।काठ.J) अग्निः । काठ २१, ७; माश १२,९,१,११ ।
६०९. मुखाद् (पुरुषस्य) अग्निरजायत । काठसंक १०१ ।
६१०. मृत्युर्वा (+ एष यद् [तैसं.) अग्निः । तैसं ५,१,१०,३; ४, ४, ४; काठ १९,११; क ३१,१ ।
६११. मृत्योरेतद्रूपं यदग्निर्यत् पाशः । मै ३, २, १ ।।
६१२. य ( अग्निः ) एको रुद्र उच्यते । तैआ १, १२, १,२ ।।
६१३. य एवं विद्वानग्निमुप तिष्ठते पशुमान् भवति । तैसं १,५,९,१।
६१४. यच्छर्वो ऽग्निस्तेन, न ह वा एनं शर्वो हिनस्ति । कौ ६,३ ।
६१५, यजमानोऽग्निः । माश ६, ३,३,२१; ५, १,८; ७, ४, १,२१; ९,२,३,३३।।
६१६. यजमानो वा अग्नेर्योनिः । तैसं ३, ४,१०,५।।
६१७. यत्ते अग्ने तेजस्तेनाहं तेजस्वी भूयासं यत्ते अग्ने वर्चस्तेनाहं वर्चस्वी भूयासं यत्ते अग्ने हरस्तेनाहं हरस्वी भूयासम् । तैसं ३,५,३,२ ।
६१८. यत्ते वर्चो जातवेदः ...... तेन मा वर्चसा त्वमग्ने वर्चस्विनं कुरु । शांआ १२, १ ।
६१९. यत्राङ्गारेष्वग्निर्लेलायेव तदस्यास्यमाविर्नाम, तद् ब्रह्म, तस्मिन् होतव्यम् । काठ ६,७ ।
६२०, यत्स्नाव (अग्नेः) तत्सुगन्धितेजनम् । तां २४,१३,५।।
३२१. यथर्त्वेवाग्नेरर्चिर्वर्णविशेषाः । नीलार्चिश्च पीतकार्चिश्चेति । तैआ १,९,१,२ ।।
६२२. यथायमग्निः पृथिव्यामेवमिदमुपस्थे रेतः । ऐआ ३,१,२।।
६२३. यदग्नये प्रवते (देवाः ) निरवपन् , यान्येव पुरस्ताद्रक्षांस्यासन् , तानि तेन प्राणुदन्त । तैसं २,४,१, २-३ । ।
६२४. यदग्नये विबाधवते ( देवा निरवपन् ), यान्येवाभितो रक्षांस्यासन् तानि तेन व्यबाधन्त । तैसं २,४,१,३।।
६२५. यदग्निं (यजति) देवतास्तेन (यजति) । मै ३,७,१ ।
६२६. यदग्निर्घोरसंस्पर्शस्तदस्य वारुणं रूपम् । ऐ० ३,४ ।
६२७. यदग्नेरन्ते पश्यामस्तसुराणां चक्षुषा पश्यामः । मै ४,२,१।
६२८. यदग्नौ जुहोति तद्देवेषु जुहोति । माश ३,६,२,२५।।
६२९. यदस्थि (अग्नेरासीत् ) तत् पीतुदारु ( अभवत् ) । तां २४,१३,५ ।
६३०. यदहुत्वा वास्तोष्पतीयं प्रयायाद् रुद्र एनं भूत्वाऽग्निरनूत्थाय हन्यात् । तैसं ३,४,१०, ३ ।
६३१. यदाह श्येनोऽसीति सोमं वा एतदाहैष ह वा अग्निर्भूत्वाऽस्मिंल्लोके संश्यायति तस्माच्छयेनस्तच्छेनस्य श्येनत्वम् । गो १,५,१२ ।।
६३२. यदिदं घृते हुते प्रतीवार्चिरुज्ज्वलत्येषा वा अस्य (अग्नेः) सा तनूर्ययाऽपः प्राविशद्यदिदमप्सु परीव ददृशे यद्धस्तावनिज्य स्नात्वा श्रदिव धत्ते, य एवाप्स्वग्निः स एवैनं तत्पावयति स स्वदयति । काठ ८,९। ।
६३३. यदिन्द्राय राथन्तराय निर्वपति, यदेवाग्नेस्तेजस्तदेवावरुन्धे । तैसं २,३,७,२ । ६३४. यदेतत् स्त्रियां लोहितं भवति, अग्नेस्तद्रूपम् । ऐआ २, ३,७।।
६३५. यदेनं (अग्निं) द्यौरजनयत् सुरेताः । तैसं ४,२,२,४-५ ।
६३६. यदेवास्य (अग्नेः) क्रव्याद् यद्विश्वदाव्यं तञ्शमयति य एवं विद्वान् वारवन्तीयं गायते ।। मै १,६,७ ।।
६३७. यद् ( अग्ने रेतः) द्वितीयं पराऽपतत् तदसावभवत् (द्यौः)। तैसं ५,५,४,१ ।। ६३८, यद् द्वितीयेऽहन् प्रवृज्यते । अग्निभूत्वा देवानेति । तै ५,१२,१ ।
६३९. यद्रेता (अग्नेः) आसीत् सोऽश्वत्थ आरोहोऽभवत् , यदुल्बं सा शमी । मै १,६,१२ ।
६४०. यद्वा अग्नेर्वामं वसुस्तन्नभः । काठ २५,६; क ३९,३ ।
६४१. यद् वाजप्रसवीयं जुहोत्यग्निमेव तद्भागधेयेन समर्धयत्यथो अभिषेक एवास्य सः । तैसं ५,४,(,१।।
६४२. यद्वैवाह स्वर्णघर्मः स्वाहा स्वर्णार्कः स्वाहेत्यस्यैवैतानि अग्नेर्नामानि(घर्मः, अर्कः, शुक्रः, ज्योतिः, सूर्य इति) । माश ९,४, २,२५ ।
६४३. यन्मे अग्न ऊनं तन्वस्तन्म आपृण । क ५,५ ।
६४४. यं परिधिं पर्यधत्था अग्ने देव पणिभिरिध्यमानः । क ४७.११ ।
६४५. यया ते सृष्टस्याग्नेर्हेतिमशमयत्प्रजापतिस्तामिमामप्रदाहाय....हरामि। तै १, २, ३, ६ ।
६४६. यस्माद्गायत्रमुखः प्रथमः (त्रिरात्रः) तस्मादूर्ध्वोऽग्निर्दीदाय । तां १०,५,२ । ६४७. यां वनस्पतिष्ववसत्तां वेणा अवसत् (अग्निः)। मै ३,१,२। ।
६४८. या अस्य (अग्नेः) यज्ञियास्तन्व आसंस्ताभिरुदकामत ता एताः पवमाना, पावका, शुचिः । काठ ८,९ ।।
६४९. याऽग्नेराज्यभागस्य (आहुतिः ) सोत्तरार्धे होतव्या, ततो योत्तरा सा रक्षोदेवत्या । मै १,४,१२ ।
६५०. या ते अग्ने रुद्रिया तनूरिति व्रतयति स्वायामेव देवतायां हुतं व्रतयति । काठ २४,९।
६५१. या ते अग्ने रुद्रिया तनूरित्याह स्वयैवैनद्देवतया व्रतयति । तैसं ६,२,२,७-८ । ६५२. या ते अग्ने शुचिस्तनूर्दिवमन्वाविवेश, या सूर्ये या बृहति या जागते छन्दसि या सप्तदशे स्तोमे याप्सु तां त एतदवरुन्धे । काठ ७,१४; क ६,३ ।
६५३. या (वाक् ) पृथिव्यां साऽग्नौ, सा रथन्तरे । काठ १४,५ ।।
६५४. या वा अग्नेर्जातवेदास्तनूस्तयैष प्रजा हिनस्त्यग्निहोत्रे भागधेयमिच्छमानः । काठ ६,७ ।।
६५५. या वाक् सोऽग्निः । गो २,४,११।।
६५६. या वाजिन्नग्नेः पवमाना प्रिया तनूस्तामावह । मै १,६,२।।
६५७. या वाजिन्नग्नेः प्रिया तनूः पशुषु पवमाना (°सूर्ये शुक्रा शुचिमती) तामावह । काठ ७,१३ ।
६५८. यास्ते अग्न आर्द्रा योनयो याः कुलायिनीः । ये ते अग्न इन्दवो या उ नाभयः । यास्ते अग्ने तनुव ऊर्जो नाम । ताभिस्त्वमुभयीभिः संविदानः••••••सीद । तै ४,१८ ।।
६५९. यास्ते अग्ने सूर्ये रुच उद्यतो दिवमातन्वन्ति रश्मिभिस्ताभिः सर्वाभी रुचे । तैसं ५,७, ६, ३ ।
६६०. युनज्मि ते पृथिवीमग्निना सह । तां १,२,१ ।।
६६१. ये अग्नयः समनसः सचेतस ओषधीष्वप्सु प्रविष्टास्ते सम्राजमभिसंयन्तु । क ६, ३ ।
६६२. ये अग्नयः समनसा ओषधीषु प्रविष्टास्ते विराजमभिसंयन्तु । मै १,६,२ ।। ६६३. ये ग्राम्याः पशवो विश्वरूपाः.....अग्निस्तां अग्ने प्रमुमोक्तु देवः । तै ३,११,११ ।
६६४. ये मध्यमाः (तण्डुलाः) स्युस्तानग्नये दात्रे पुरोडाशमष्टाकपालं कुर्यात् । तैसं २,५,५,२ ।।
६६५. योऽग्निमृत्युस्सः (°ग्निर्वागेव सा [जै.J) । जै १,२४९; जैउ २,५,१,२ ।।
६६६. योनिरेषाग्नेर्यन्मुञ्जः । माश ६,६,१,२३ ।।
६६७. योनिर्वा अग्नेः ( एषोऽग्नेर्यत् .मै.J) पुष्करपर्णम् । तैसं ५,१,४,२; २, ६,५; मै ३,१,५; २,६ ।।
६६८. यो वा अग्निः स वरुणस्तदप्येतदृषिणोक्तं त्वमग्ने वरुणो जायसे यदिति । ऐ ६,२६ ।
६६९. यो वा अत्राग्निर्गायत्री स निदानेन । माश १,८,२,१५ ।
६७०. यो वै रुद्रः (वरुणः) सोऽग्निः । माश ५,२,४,१३ ।
६७१. योषा वाऽग्निः (°षा वै वेदिर्वृषाग्निः [माश १,२,५,१५J) । माश १४, ९,१,१६ । ६७२. योषा वाऽआपो वृषाग्निः (+ मिथुनमेवैतत्प्रजननं क्रियते [माश १, १,१,२०) । माश १, १, १,१८; २,१,१,४ । ।
६७३. रथीरध्वराणामित्याहैष (अग्निः ) हि देवरथः । तैसं २,५,९,२
६७४. रुद्रोऽग्निः (+स्विष्टकृत् ।तै..) । काठ ८,८; २४,६; क ४२, ६; तां १२, ४, २४; तै ३, ९, ११, ३-४ ।
६७५. रुद्रोऽग्निस्स प्रजनयिता । काठ ११,५।।
६७६. रेतो वा (रुद्रो वा एष यत् [तैसं.J) अग्निः । तैसं ५,४,३,१; १०,५; मै ३, २, १ । ।
६७७. रोहितेन त्वाऽग्निर्देवतां गमयतु । तैसं १,६,४,३; काठ ५,३।।
६७८. रोहितो हाग्नेरश्वः । माश ६,६,३,४ ।
६७९. रौद्रेणानीकेन पाहि माऽग्ने । तैसं १,३,३,१-२; क २,७।
६८०. वयो वा अग्निः । तैसं ५, ७, ६,१; मै ३,४,८।।
६८१. वाग् (+ एव [माश.J) अग्निः । माश ३,२,२,१३; ऐआ २,१, ५ ।।
६८२. वाग्वा अग्निः । माश ६,१, २, २८; जैउ ३, १, २, ५ ।।
६८३. वातः प्राणः (+तदयमग्निः [ मै १, ६,२]) । तैसं ७, ५,२५, १; मै ३, ९,७।। ६८४. वायुर्वा अग्निः सुषमिद्वायुर्हि स्वयमात्मानं समिन्धे, स्वयमिदं सर्वं यदिदं किञ्च। ऐ २,३४।।
६८५. वायुर्वा अग्नेस्तेजस्तस्माद् वायुमग्निरन्वेति ( °स्माद् यद्र्यङ् वातो वाति तदग्निरन्वेति [काठ.]) । मै ३, १, १०; काठ १९, ८ ।।
६८६. वायुर्वा अग्नेः स्वो महिमा । कौ ३, ३ ।।
६८७. वायोरग्निः । अग्नेरापः । तैआ ८,१; तैउ २, १।
६८८. वारुणं यवमयं चरु निर्वपेदग्नये वैश्वानराय । काठ १०, ४ ।
६८९. विक्ष्वग्निम् (वरुणोऽदधात् ) । तैसं १, २, ८, २; काठ २,६ ।
६९०. विदेदग्निर्नभो नामाग्ने ऽअङ्गिर आयुना नाम्नेहीति । माश ३,५, १, ३२ ।
६९१. विद्मा ते अग्ने त्रेधा त्रयाणि । तैसं ४, २,२,१ ।।
६९२. विद्युद् ( विराड् [माश.] ) अग्निः । माश ६, २, २, ३४; ३,१, ३१; ८,२, १२, ९, १, १,३१; तैआ २, १४, १ ।।
६९३. वि...बाधस्व रिपून् रक्षसो अमीवाः....अग्ने । मै २, ७, ५ ।।
६९४. विराट् सृष्टा प्रजापतेः । ऊर्ध्वारोहद्रोहिणी । योनिरग्नेः प्रतिष्ठितिः । तै १, २, २, २७ ।
६९५. विश्वकर्मायमग्निः । माश ९, २,२,२; ५,१, ४२ ।
६९६. विश्वानि देव ( अग्ने ) वयुनानि विद्वान् । तैसं १, ४,४३,१ ।
६९७. विश्वा हि रूपाण्यग्निः । मै ३, २, १ ।।
६९८. वीरहा वा एष देवानां योऽग्निमुत्सादयते ( °मुद्वासयते + न वा एतस्य ब्राह्मणा ऋतायवः पुराऽन्नमक्षन् तैसं.)। तैसं १,५,२,१; २,२,५,५; काठ ९, २० ।
६९९. वीर्य्यं वा (वैश्वदेवः [मैं.]) अग्निः । मै ३, ३, ८; तै १, ७, २, २; गो २,६,७ । ७००. वृषा (+वा । तैआ. J) अग्निः । तैसं ५,१,५,७; तैआ १, २६, ३, ४ ।।
७०१. वैश्वानर इति वा अग्नेः प्रियं धाम । तां १४,२, ३ ।
७०२. वैश्वानरो वै सर्वेऽग्नयः । माश ६, २, १,३५; ६,१, ५।
७०३. व्यृद्धा वा एषाहुतिर्यामनग्नौ जुहोति । काठ १२, १ ।
७०४. शिर एव (एतद् यज्ञस्य यत् [माश ९,२,३,३१]) अग्निः । माश १०,१,२,५।
७०५. शिवः शिव इति शमयत्येवैनम् ( अग्निम् ) एतदहिंसायै तथो हैष इमांल्लोकाञ्छान्तो न हिनस्ति । माश ६,७,३,१५ ।
७०६. शिशिरं वा अग्नेर्जन्म, :..सर्वासु दिक्ष्वग्निश्शिशिरे । काठ ८,१ ।।
७०७. शुग्वा अग्निरापः शान्तिः । मै ३, ४, १० ।
७०८. शुचिजिह्वो अग्निः । काठ १६, ३ ।
७०९. संयच्च प्रचेताश्चाग्नेः सोमस्य सूर्यस्य । तैसं ४,४, ११, २; काठ २२,५।।
७१०. संवत्सर एवाग्निः ( एषोऽग्निः ।माश ६, ७, १, १८])। माश १०, ४, ५, २ ।। ७११. संवत्सरः खलु वा अग्नेर्योनिः । तैसं २, २,५, ६ ।।
७१२. संवत्सरोऽग्निः (+वैश्वानरः [तैसं., मै., ऐ.J)। तैसं ५, १, ८,५; २,६,१; ४,७,६; मै १, ७, ३; ऐ ३, ४१; तां १०, १२,७; मा ६, ३, १, २५; ३,२,१०; ६,१,१४ ।।
७१३. संवत्सरो वा अग्निर्वैश्वानरः (°ग्निर्नाचिकेतः [तै ३,११,१०,२; ४]) । तैसं २,२,५,१; मै २,३,५; ५, ६; ३, १,१०; ३, ३; १०; १०, ७; ४, ३,७; काठ १०, ३; ४; ११, ८; क ८,४; तै १,७,२,५; माश ६,६,१,२०; ८,२,२,८ ।
७१४, संवत्सरो वा एष यदग्निः (रोऽग्नेर्योनिः [काठ.J)। तैसं ५, ६,९, २; काठ १९, ९ ।।
७१५. संवत्सरो वै प्रजननम् (+अग्निः प्रजनयिता [काठ., क.]) काठ ७, १५; क ६, ५; गो १,२, १५ ।
७१६. स ( अग्निः ) एताः तिस्रः तनूरेषु लोकेषु विन्यधत्त । माश २, २,१,१४ ।। ७१७, स एषोऽग्निरेव यत् कृमुकः । माश ६,६,२, ११ ।।
७१८, स एषो (अग्निः) ऽत्र वसुः । माश ९,३,२, १।।
७१९. स (अग्निः) गायत्रिया त्रिष्टुभा जगत्यो देवेभ्यो हव्यं वहतु प्रजानन् । तैसं २, २, ४, ८ ।
७२०. सत्पतिश्चेकितान इत्ययमग्निः सतां पतिश्चेतयमान इत्येतत् । माश ८, ६,३,२० ।
७२१. सत्यं पूर्वैर्ऋषिभिः संविदानो अग्निः । मै २, ७,१६ ।।
७२२. स नो भव शिवस्त्वं (अग्ने ) सुप्रतीको विभावसुः । काठ १६, ९ ।
७२३. सं नो देवो वसुभिरग्निः । तैसं २, १,११, २-३ ।
७२४. सप्तचितिकोऽग्निः । माश ६, ६, १, १४; ९, १,१,२६ ।।
७२५. सप्त ते अग्ने समिधः सप्त जिह्वाः (+सप्त ऋषयः सप्त धाम प्रियाणि । सप्त ऋत्विजः सप्तधा त्वा यजन्ति सप्त होत्रा ऋतुथानु विद्वान्त्सप्त योनीरापृणस्व घृतेन मै.J)( काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा। स्कुलिङ्गिनी विश्वरुची च देवी लेलायमाना इति सप्त जिह्वाः (तु. मुण्डक १,३,४) । । तैसं १,५,३, २-३; मै १,६,२; ३,३,९; काठ ७, १४; क ६,८; तै ३, ११, ९, ९।।
७२६. सप्त ते अग्ने समिधः सप्त जिह्वा इत्येतावतीर्वा अग्नेस्तन्वः षोढा सप्त सप्त । मै १,६,७।
७२७. स ( अग्निः ) प्राचीं दिशं प्राजानात् । कौ ७, ६ ।।
७२८. स ( प्रजापतिः ) भूरित्येवर्ग्वेदस्य रसमादत्त । सेयं पृथिव्यभवत् । तस्य यो रसः प्राणेदत् सोऽग्निरभवद्रसस्य रसः । जैउ १, १,१, ३ ।।
७२९. समग्निर्वसुभिर्नो अव्यात् । मै ४, १२, २; काठ १०,३७ ।
७३०. समाने वै योना आस्तां सूर्यश्चाग्निश्च । काठ ६, ३ ।।
७३१. समिधमातिष्ठ गायत्री त्वा छन्दसामवतु, त्रिवृत्स्तोमो, रथन्तरं सामाग्निर्देवता, ब्रह्म द्रविणम् । मै २, ६, १० ।
७३२. सम्राट् च स्वराट् चाग्ने ये ते तन्वौ ताभ्यां मा ऊर्जं यच्छ, विराट् च प्रभूश्चाग्ने ये ते तन्वौ....., विभूश्च परिभूश्चाग्ने ये ते तन्वौ••••। मै १, ६, २।। ७३३. स ( अग्निः ) यत्र यत्रावसत् तत् कृष्णमभवत् । तैसं ५, १, १, ४ ।
७३४. स यत्र ह वा एष (अग्निः ) प्रथमं संप्रधूप्य प्रज्वलति तद्ध वरुणो भवत्यथ यत्र संप्रज्वलितो भवत्यवरेणेव वर्षिमाणं तद्ध रुद्रो भवत्यथ यत्र वर्षिष्ठं ज्वलति तद्धेन्द्रो भवत्यथ अत्र नितरामर्चयो भवन्ति तद्ध मित्रो भवत्यथ यत्राङ्गारा मल्मलायन्तीव तद्ध ब्रह्म भवति । काश ३, १, १, १ ।।
७३५. स यथोच्छिष्टमग्नौ प्रास्येदेवं ह तत् । काश ५, ५,१,११ ।
७३६. स यदस्य सर्वस्याग्रमसृज्यत तस्मादग्निरग्रिर्ह वै तमग्निरित्याचक्षते परोऽक्षम् । माश ६, १,१,११।। -
७३७. स (अग्निः ) यदिहासीत्तस्यैतद् भस्म यत् सिकताः । मै १,६,३ ।
७३८. स यद्वैश्वदेवेन यजते । अग्निरेव तर्हि भवत्यग्नेरेव सायुज्यं सलोकतां जयति । माश २,६,४,८।।
७३९. स यो ह स मृत्युरग्निरेव सः । जै १,१२ ।।
७४०. स यो हैवमेतमग्निमन्नादं वेदान्नादो हैव भवति । माश २,२,४,१ ।
७४१. सर्वं वाऽइदमग्नेरन्नम् । माश १०,१,४,१३ ।
७४२. सर्वतोमुखोऽयमग्निः । यतो ह्येव कुतश्चाग्नावभ्यादधति तत एव प्रदहति तेनैष सर्वतोमुखस्तेनान्नादः । माश २,६,३,१५, ।
७४३. सर्वदेवत्योऽग्निः । माश ६,१,२,२८ ।
७४४. सर्वानृतून् पशवोऽग्निमभिसर्पन्ति । मै १,८,२ ।।
७४५. सर्वास्वोषधीष्वग्निः । मै ३,१,५।
७४६. सर्वेषां वा एष (अग्निः) भूतानामतिथिः । माश ६,७,३,११ ।
७४७. सर्वेषामु हैष देवानामात्मा यदग्निः । माश ७,४,१,२५; ९,५,१,७।
७४८. स (प्रजापतिः) वा अग्निमेवाग्रे मूर्धतोऽसृजत । मै १,८,१ ।
७४९. स ह सोऽभिजिदेव स्तोमः । अग्निरेव सः । स हीदं सर्वमभ्यजयत् । जै १, ३१२ ।
७५०. स (अग्निः) हि देवानां दूत आसीत् । माश १,४,१, ३४ ।
७५१. सा (पृथिवी)ऽग्निं गर्भमधत्थाः । मै २,१३,१५ ।
७५२. सा या सा वागग्निस्सः (वागासीत्सोऽग्निरभवत् [जैउ २,१,२,१]) । जैउ १, ९, १, ३ ।।
७५३. सिकता नि वपत्येतद्वा अग्नेर्वैश्वानरस्य रूपम् । तैसं ५,२,३,२।
७५४. सूपसदनोऽग्निः (अस्तु)। तैसं ७,५,२०,१ ।।
७५५. सूर्य्योऽग्नेर्योनिरायतनम् । तै ३,९,२१,२; ३ ।।
७५६. सैषा योनिरग्नेर्यद्वेणुः (ग्नेर्यन्मुञ्जः [माश ६,३,१,२६J) । माश ६,३,१,३२ । ७५७. सोऽग्नये तेजस्विनेऽजं कृष्णग्रीवमालभत तेन तेजस्व्यभवत् । मै २,५,११ । ७५८. सोऽग्निम् (प्रजापतिः) अब्रवीत्वं वै मे ज्येष्ठः पुत्राणामसि । त्वम्प्रथमो वृणीष्वेति । सोऽब्रवीन्मन्द्रं साम्रो वृणेऽन्नाद्यमिति । जैउ १, १६,२,५-६ ।।
७५९. सोऽग्निमेवाग्रेऽसृजत (प्रजापतिः)। काठ ७,५।
७६०. सोऽग्निरेव भूत्वा पृतना असहत (प्रजापतिः)। जै १,३१४ ।
७६१. सोऽग्निर्गायत्र्या स्वाराण्यसृजत । जै १,२९९।
७६२. सोऽपामन्नम् (अग्निः) । माश १४,६,२,१० ।
७६३. सोऽब्रवीद् (अग्निः) वरं वृणै यदेव गृहीतस्याहुतस्य बहिः परिधिः स्कन्दात् तन्मे भ्रातृणां (भूपति-भुवनपति-भूतानांपति-संज्ञानां) भागधेयमसदिति । तैसं २,६,६,२।।
७६४. सोमो रेतोधा (+अग्निः प्रजनयिता (काठ ८.१०)) । मै १.६.९ , ३.२.५, क ४६,२।।
७६५. स्तनयित्नुरेव (स्त्रियो वा ) अग्निर्वैश्वानरः । जै १,४५।।
७६६. स्त्रिक् च स्नीहितिश्च स्निहितिश्च । उष्णा च शीता च । उग्रा च भीमा च । सदाम्नी सेदिरनिरा। एतास्ते अग्ने घोरास्तनुवः । तैआ ४,२३ ।।
७६७. स्वाहाग्नये कव्यवाहनाय । मं २,३,२ ।।
७६८. हव्यवाहनो (+ वै [माश.J) देवानाम् (अग्निः) । तैसं २,५.८,६; माश २,६,१,३० ।
७६९. हिरण्यं वा अग्नेर्नाचिकेतस्य शरीरम् य एवं वेद सशरीर एव स्वर्गं लोकमेति । तै ३,११,७,३।
७७०. हिरण्यं वा अग्नेस्तेजः । मै १,६,४
७७१. हेतयो नाम स्थ तेषां वः पुरो गृहा अग्निर्व इषवः । तैसं ५,५,१०,३ ।
अग्ना-पूषन्-> आग्नापौष्ण
स आग्नापौष्णमेकादशकपालं पुरोडाशं निर्वपति । माश ५, २, ५, ५।
अग्ना-मरुत्->अग्निमारुत ( उक्थ)
१. अधिपत्न्यस्यूर्ध्वा दिग् , विश्वे ते देवा अधिपतयो बृहस्पतिर्हेतीनां प्रतिधर्ता
त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ त्वा स्तोमौ पृथिव्यां श्रयतां वैश्वदेवाग्निमारुते उक्थे अव्यथाथयै स्तभ्नुतां शाकररैवते सामनी । मै २, ८,९।।
२. शुकरूपा वाजिनाः कल्माषा आग्निमारुताः । मै ३, १३, ८ ।
अग्ना-विष्णु
१. अग्नाविष्णू (आमयाविनः ) आत्मा । तैसं २, ३, ११, १ ।।
२. अग्नाविष्णू इति वसोर्धारायाः (रूपम् )। तै ३, ११, ९,९।
३. अग्नाविष्णू वै देवानामन्तभाजौ । कौ १६, ८।।
४. अग्नाविष्णू ......सप्त रत्ना दधाना (आगच्छतम् )। काठ ४, १६ । आग्नावैष्णव
१. आग्नावैष्णव एकादशकपालः (+ अनड्वान् वामनो दक्षिणा [काठ.J) । मै २, ६, ४; ३, १,१०; ४, ३,१; काठ १५, १ ।
२. आग्नावैष्णवं घृते चरु निर्वपेच्चक्षुष्कामः । तैसं २, २, ९,३; मै २, १, ७। ।
३. आग्नावैष्णवं द्वादशकपालं निर्वपेत्तृतीयसवनस्याऽऽकाले । तैसं २, ३, ९, ६ । । ४. आग्नावैष्णवमष्टाकपालं निर्वपेत् प्रातः, ....एकादशकपालं मध्यन्दिने, ••• द्वादशकपालमपराह्णे । काठ १०, १। ।
५ आग्नावैष्णवमष्टाकपालं निर्वपेत् प्रातः सवनस्याऽऽकाले । तैसं २,३,४,५ ।
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